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& सुयश रूपी जल जगत के पाप रूपी मल को हरता है ऐसा जानकर आलस को दूर कर और साहस 8
को ठानकर इस शिक्षा को धारण करो कि जब तक शरीर को कोई रोग न घेरे, बुढ़ापा प्राकर न 8 सतावे तब तक शीघ्र ही अपना हित करलो अर्थात् निज आत्मा को स्मरण कर कल्याण करो।
____ अन्त में ग्रंथकार ग्रन्थ समाप्त करते हुए एक मर्म की बात कहते हैंयह राग आग दहै सदा तातै समामत सेइये । चिर भजे विषय कषाय अब तो त्याग निज पद वेइये । कहां रच्यो पर पद में न तेरो पद यहै क्यों दुख सहै । अब 'दौल' होउ सखी स्वपद रवि दाव मति चको यह ॥१५॥
अर्थ—यह विषय तृष्णा रूपो रागाग्नि अनादि काल से निरन्तर तुझे और संसारी जीवों को 8 जला रही है, इसलिए समता रूपी प्रमत का सेवन करना चाहिए । तूने चिरकाल से विषय कषाय को 8 8 सेवन किया है, अब तो उनका त्याग करके निज पद को पाने का प्रयत्न करना चाहिये, तू निरन्तर पर
पद में क्यों आशक्त हो रहा है ? यह पर पद तेरा नहीं है, क्यों व्यर्थ वियना भाष करता हुआ ध्यर्थ में इनके पीछे पड़ा हुआ तू क्यों दुःख सह रहा है ? हे दौलतराम ! तू अफ्नो आत्मा के पद में तल्लीन होकर सुखी होजा, इस प्राप्त हए अवसर को मत चूके, जो अवसर चक जायगा तो होरा कनी रेत के संभूद्र में गिरी हुई फिर नहीं मिलेगी । ऐसे अपने आपको संबोधन करते हुए पंडित दौलत- पत्र रामजी ने संसार के प्राणी मात्र को सावधान किया है कि नर भव पाने का ऐसा सुयोग बार बार नहीं र
होता । तू चाहे कि मैं विषय तृष्णा को पूरा कर लूफिर आत्म कार्य में लगूंगा, सो यह त्रिकाल में : 8 भी पूरी होने वाली नहीं है, उसकी पूर्ति का तो एक मात्र उपाय सन्तोषरूप अमृत का पान करना है