Book Title: Chahdhala 2
Author(s): Daulatram Kasliwal
Publisher: ZZZ Unknown
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इहटला 0000 दिगम्बर जन समाज मण्डी बड़ौत (मेरठ) द्वारा सप्रेम भेंट Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिष्ट प्रयोजन संसार के सभी प्राणी च कि दुःख से डरते हैं और मुख को अभिलाप करते है, इसलिये इस छहढाला ग्रन्थ द्वार 'उन्हें उक्त प्रयोजन सिद्ध करने के लिये भात्मस्वरुप की शिक्षा दी गई है। हमें यह विचार करना चाहिए कि वास्तविक सुख क्या है ? और वास्तविक दुःख क्या है। इन्द्रिय विषयों से जी प्रागी को सुख प्राप्त होता है वह पर द्रव्यों की अपेक्षा रखने से पराधीन, विनश्वर भोगकांक्षा आदि के दुर्ध्यान से पाप का बन्धक तथा अतृप्ति कारण अथवा विषय है। जो अन्य वस्तुओं की अपेक्षा न रखकर आरमोपेक्षित सम्यकदर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यकचारित्र रूप मोक्षमार्ग है उन्हें समझाना चाहिये उससे विपरीत मिथ्यादीन, मिथ्याज्ञान, मिथ्यावारित्र, मोक्ष मार्ग न होकर संसार का कारण है। छहदाला नथ एक अध्यात्म और नीति प्रधान मंथ है । यह सामान्य और विशेष बुद्धि एवं रुचिवालों को एकसा आकर्षित करने वाला है। सरल शैली में साधु एवं गृहस्थ स्त्री पुरुषों का समान रूप से हितकारी होने की क्षमता रखता है। उसमें जटिलता नहीं है। यह छहढाला ग्रन्थ अनेक बार प्रकाशित हो चुका है किन्तु इसमें बहुत विस्तार से विवेचन किया है । छहाला के छह छन्दों द्वारा निगोद से लेकर मोक्ष तक का वर्णन किया है। पहली डाल में निगोद एवं मारो गतियों का वर्णन है। दुसरी ढाल में मिथ्यादर्शम, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र का वर्णन, तीसरी हाल में निदचय व्यवहार सम्यक् दर्शन का वर्णन, चौथी हाल में सम्यक्जान एवं श्रावक के बारह व्रतों के अतिचारों का वर्णन, पांचबो ढाल में बारह भावनाओं का वर्णन छठी ढाल में मुनियों का तेरह प्रकार के चारित्र का स्वरूप निश्चय चारित्र का अन्त में वर्णन किया है। इसी तरह से यह भ्रन्थ छोटा समयसार यानी जैनधर्म की गीता है। उसी में चारों अनुयोगों का समावेश किया गया है। पहली हाल में प्रथमानयोग, दूसरी ढाल तत्वों का विवेचन में करणानु योग, चौथी-पाच-बी हाल में चरणानुयोग गर्व छठी डाल के अन्य में द्रव्यानुयोग इस तरह चारों अनुयोगों का वर्णन है। आनार्य रत्न थी १०. सुमतिसागर जी महाराज जैन धर्म के माननीय आचार्य है सभ. भावकों के मोक्षमार्गी एवं हितोपदेशी आत्म साधना के मार्ग दर्शन हेतु थावकों से प्रेरणा एवं उपदेशात्मक होकर यह ग्रन्थ दौलतराम जी कृत मूल प्रति का विस्तृत विवेचन किया गया है। सभी साधर्मी भाई अत्यन्त उपयोगात्मक समझ कर हर रोज पाठ कर समझ कर धर्म लाभ लेवें चन्थ छपने में प्रेस की किसी प्रकार को अशद्धि रह गई हो तो विवानगण सुधार कर पढ़ें। आचार्यरत्न श्री १०८ सुमति सागर जी महाराज की परम शिष्या १८ जनवरी, १९९० "पणनि" अयिका श्री १०५ ज्ञानमती (गुजरात वाली) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -: गुरु भक्ति ज्ञान अपार है सुमति सागर नाम है fugere जी पिता आपके विरोजाबाई माता जी (२) जैसवाल है बाति आपकी गोत्र कुल भंडारी जी (२) श्यामपुरा गांव हैं, शान्ति का धाम है पंच महाव्रत धारो गुरुजी सहते परिवह भारी जो (२) नम्न धरा है रूप आपने तन से ममता द्वारी जी (२) राग का नाम है द्वेष का न काम है देश देश में बिहार करते उपदेश देते भारी जी भव्य जीवों को निज सम करने मोह ममता टारी जो पर उपकारी है, गुणों के भंडारी हैं चौबे काल में जैसे मुनि थे ऐसे गुरुवर आज जी (२) सम्यरूपी दीपक ले जाय मोक्ष महल के द्वार जी (२) तपस्या अपार है, जीवन का उद्धार है। हम अज्ञानी शिष्य का गुरु मिथ्या मेल छुडाना जी पारस के पास लोहा जाय पारस सम बन जाय जी "ज्ञान" की पुकार है, महिमा अपरंपार है * जो कोई भव्य दर्शन करे उसका बेड़ा पार है ॥ टेक ॥ जो कोई भव्य दर्शन करे उसका बेड़ा पार है ॥ जो कोई भव्य दर्शन करे उसका बेड़ा पार जो कोई भव्य दर्शन करे उसका बेड़ा पार है it जो कोई भव्य दर्शन करे उसका बेड़ा पार है ! १ ५ २ ॥ ३ ॥ ४ ॥ जो कोई भव्य वर्शन करे उसका बेड़ा पार हैं ॥ ५ ॥ रचियता - आर्यिका १०५ ज्ञानमति Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प० पू० आचार्य श्री सुमति सागर जी महाराज का जीवन-परिचय मुनिश्री १०८ सुमतिसागर के रहस्य जीवन का नाम नरयोलाल मो था। आपके पिताश्री का नाम छिदुलाल जालथा माता जी का नाम श्रीमती चिरोंजादेवी सा। आपके परिवार में चार सगे भाई तपा एक बहन है, जिनका नाम मुनिलाल, बाबूलाल, रामस्वरुप तथा बहन का नाम कलाती हैं। आपकी धर्मपत्नी का माम राजश्री देवी है। आपके दो पुत्र मारेलाल और भागचन्द है, जिसका विवाह हो चुका हैं, दो पुत्रियाँ कपूरीबाई सथा शकुन्तलाबाई हैं, जिनका विवाह हो चका है, आप जैसवाल जैन हैं, जिनका गोत्र भंडारी है। आपका जन्म श्यामपुरा परगना अम्ला जिला मुरैना में असोज सुबी ६ वि० सं० १९७४ को हा या । आपने मरा-पूरा परिवार छोड़कर विगम्बरो दीक्षा धारण की। . जीवनी-मुनिश्री बाल्यकाल से ही धर्मप्रिय भै । आप काश्तकारी प्राडत नवा शुद्ध घी का व्यापार करते थे । आपका विवाह 12 वर्ष की उम्र में वि) स0 1986 में हुआ था और विवाह के थोड़े दिन बाद ही आपको रामलारे पक डाक् हरण कर ले गया लेकिन उसकी भी आपने कोई परवाह नहीं की । शासके पिता जी मांगी गई रकम को लेकर दुष्टाने गये । मेकिन इसके पूर्व ही 14 दिन में आ दु के गिरोह से भाग आये 1 वहाँ से आप अपना ग्राम छोडकर अम्बहा में दुकान करने लगे । वहां पर भी क ने पीछा नहीं छोड़ा और डाकुओं का गिरी रामा दालने आया और आपको पकड लिश । डाकुओं ने छाती पर बन्दुत्र की नोक से उनके पहने हुए गहने उतार लिये। फिर माल बताने की मजबूर किया तो आपने जबाव दिया कि मुझे क्या मालूम है, पिताजी जाने । पिसा जो ऊपर मकान पर सो रहे थे । पिताजी बो नानुम पठा तो मकान से कूद कर भाग गये । ठाकुओं ने मारने को कहा । इतने में आस-पास के लोगों ने हल्ला किश नो डाकु भाग गये। आप सम्बत् 2010 में गांव से मुरैना आकर रहने लगे और दुकानदारी कार्य करने नग ।। पुरानोदय में श्री 108 श्री वाचायं विमल सागर जी महाराज (भिण्ड) संघ सहित मुरैना पश्चारे । संघ में नौन मुनि और आपिचा, जनका आदि थे । उनी गमय आपकी धर्मपत्नि ने पूछा कि आचार्य श्री को आहार देने की करी इण्या है। अगर आप प्राज्ञा दें नो में व जल का त्याग ले लू और आप भी ले लिजिये । सब आप (मत्त्वीलाल) ने वहा आपसे बने नो आहार दो, हमने तो कुछ नहीं बनता । ना बाकी पत्नी ने शुद्र जल का त्याग कर दिया और ज्ञानवाई के साथ आहार दिया। फिर की धर्मपत्नी ने बहा, अब हम अपने कान पर चौका बनाकर आहार देंगे। तब दूसरे दिन घर पर श्री भाचा महाराज पधारे और ब न्हे । महागन बी की निगा आप पर पढ़ी Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की आने कहा, महाराज श्री मुझसे शुद्र जल का त्याग नहीं बनेगा । तब राक्ष श्री लोटन सो ना जागने मोना नि.मर र म महाराज बिना आहार निये लौट रहे हैं, मेरा जैन गुल में उत्पन्न होना ही बेकार है । फिर क्या था, उसी समय आपः भाव जाग और आपने शूद्र दल पा व्याग किया व आचार्यश्री को आहार दिया । आहार देने के बाद भावना हुई कि अब धीरे-धीरे और म्याग करते जायेंग 1 40 मखनलाल जी शान्धी, पं. ममतिवन्द्र जी मामी. बानमुकुन्द व मावदेव आदि ब्रह्मचारी लोगों की संगति में ग्लूने लगे । शास्त्र अध्ययन करते थे। में 2011 में श्री 108 शालिनागर महाराज जी ने दूभर प्रतिमा बन ग्रहण किया । स्वान् 22023 में मुरैना एकऱ्याणक महा सब हुन' । म अवयर गर या आधा थी बिमा गागर जी(भिण्ट वाल) पधारे। उसी समय सात प्रतिमा अन लिया । सी नन्द आप त्याग की और बनेगा। महाराज जी को नारिमल नद्राका और दीक्षा लने की भावना जगत की। आपने घर वालों से मंजरी नाही । मंजी नहीं मिलने में महागज जी ने दीक्षा को मना कर दी, अभी दीक्षा नहीं होगी । आपने करा ये पाष्ट्री-मंडल में ही लुगा । पोडी-मिडल एक गान नमा धान में टगै म । मं0 2034 फानुगनदी 12 को गांव वालों से दामा याचना कर रपाटी आचार्य दी 108 विधा मागरजी भर नाम पईन ।बाही मनीमाजी में मं।। -1125 चैत्र शुक्ला 13 को गलेक दिक्षा लिपा काम श्री 105 और मागर को स्वया । वहीं ने गुरुजी के साथ बिहार कर देहाली पधारे । बदों नाममाम हुआ । चातुर्मास के बाद बिहीर कर गाजियाबाद पहने । अगहनयदी 12 सं0 2026 को आचार्य विमलसागर जी से मुनि दीक्षा ली। आपका नाम श्री 118 मुनि श्री सुमतिसागर जी रपमा गया । पा है आपकी पोरुपना को कि भरा-पूग परिवार छोटवार निग्रंथ मनिपद प्राप्त किया । इससे समाज एवं अपने परिवार का नाम उजवन किया । आप मुनिदीक्षा में 6 वर्ष पूर्व सम्मेद गिखर यात्रा को गये नव आपने शवनाथ की टोंक पर ब्रह्मचर्य धन लिया और भावना की वि. भगवान में मुनिषद बेकर पैदल यात्रा कम । गुरु की आज्ञा लेकर आप सम्मेद शिखर पहुँने । सम्मेद शिखर पर मुनिहंध द्वारा फागण गदी 13 श्रि मं0 2028 में आपको आचार्य कल्प की पदवी प्रदान की। बाद में गुरु समाधि गागांद में हुई व्य गुरु की आज्ञा से मुरैना मन में ध्येय गुदी 5 को थि) 10 2030 को आचार्य पद प्राप्त हुआ । आर जैसे गम्भीर, और स्त्री एवं साम्बी आचार्यों द्वारा समाज में भारी धर्म प्रभावना फैल रही है। जहां-जहां बिहार करते हैं वही अनेक भन्य जीव ब्रत धारण करते हैं एवं आज तक करीबन 107 शियों को मुनि, माथिका, अल्लक, क्षुल्लिका का ब्रत देकर आत्मवाल्याण का मार्ग प्रशस्त किया है। जहां चातुर्मास होता है वहां कोई न कोई अार्मिक आयोजन आपके उपदेशानुसार होता है। जैसा कि अजमेर में औषधालय, ईर गुजरात में मानस्तम्भ, मुरैना (म0 प्र0) में मानस्तन, भिण्ड (म0प्र0) में चौबीसी, सोनामिरि निद्वक्षेत्र में त्यागीकृती आश्रम, सम्मेद शिखर टोंक, गिरनार टोंक, जलमन्दिर, 11 कुन्टल की अट धातु की प्रतिमा आदि का निर्माण हुआ है। अब तक आचार्य श्री के चातुर्मास निम्न-निम्न स्थान पर हुए हैं Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थान वर्ष (सन् स्थान वर्ष (सन् १६७१ १. दिल्ली २. बाराकी १. भागलपुर ४. कोडरमा (बिहार) २. आरा (बिहार) ६. श्री सोनागिरि सिक्षेत्र (म.प्र) ५. अजमेर (राजस्थान) - ईडर (गुजरात) 2. सोनागिरि सिद्धक्षेत्र (म.प्र) :... मुरैना (म०प्र०) १. सम्मेद शिखर (बिहार) १२. भिण्ट (म०प्र०) १३. इन्दौर (म.प्र) २४. पोदनपुर (बम्बई) ५६१ ५. इंडर (गुजरात) द्वितीय चार्तुमास १६. उदयपुर (राजस्थान) १७. सोनागिरि सिद्धक्षेत्र (म०प्र०) तृतीय चार्नु मास १९८४ १८. भिण्ड (म०प्र०) द्वितीय चानुमान 8. मोनागिरि निदर्शन (म०प्र०) चतुर्थ वातुं मास १९८६ १०. सोनगिरि मिद्धक्षेत्र (म.प्र) पचम त्रामास १९८७ १६५५ १९७७ २. बलना (मुजफ्फरनगर) उ०प्र० १९८४ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ॐ नम: सिद्धेभ्यः ॥ अथ छहढाला भाषा वनिका प्रारम्भ । तीन भुवन में सार, वीतराग विज्ञानता । शिवस्वरूप शिवकार, नमो त्रियोग सम्हारिक ॥१॥ अर्थ-तीनों लोकों में बोतराग परम-विज्ञानता ही सार है, वही कल्याण स्वरूप है, और २ मोक्ष को देने वाली भी वही है, ऐसा परम विज्ञान धन वीतरागता को मन, वचन और काय ये तोनों 8 8 योग लगाकर के प्रणाम करता हूँ। भावार्य- यद्यपि प्रत्येक वस्तु अपने स्वरूप को अपेक्षा सार युक्त स्वतन्त्र है, तथापि प्रयोजनभूत मार पदार्थ है, जो संसार के राग-द्वेष रूपो भयंकर ज्वाला में निरन्तर जलते और असहा वेदनाओं को सहते हुए सब प्राणियों के उद्धार करने में समर्थ और राग-द्वेष रहित २ ज्ञान राज को वीतराग ज्ञान कहते हैं । यह जान चार घातिया कर्मों के नाश होने और अरहंत दशा प्रकट होने पर उत्पन्न होता है। मारमा राम को एक बार इस ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर अनन्त २ काल तक यह आत्मा स्थायी मना रहता है, इसलिए इस ज्ञान को सार कहा है । वह वीतराग विझानता आनन्द धन शिव स्वरूप कल्याणकारी मोक्ष रूप है, इसलिए तीनों लोक में सर्वोत्कृष्ट सारभूत केवलज्ञान 8 ३ को प्रन्थकार ने मन, वचन और काय को शुद्ध करके नमस्कार किया है। यहाँ ग्रन्यकार पं० दौलतराम जो 3 २ ग्रन्थ रचना का उद्देश्य बतलाते हुए संसार के अनन्तानन्त प्राणियों को हार्दिक इच्छा को प्रकट करते हैं :चौपाई-जे त्रिभुवन में जीव अननन्त, सुख चाहे दुख ते भयवन्त । ताते दुखहारी सखकार, कहें सीख गरु करुणा धार ॥२॥ अर्थ--तीनों लोकों में जितने अनन्त जीव हैं, वह सब सुख शहते हैं और दुख से भयभीत है, इसलिये श्री गुरुदेव करुणा भाव धारण करके दुःख को हरने वाली और सुख को करने बालो Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 उत्तम शिक्षा को देते हैं । भावार्थ-संसार में प्रत्येक प्राणी मुख को चाहता है और दुख से दूर भागता है, क्योंकि यथार्थ में सुख आत्मा का स्वभाव है, और अपने को सामर्थ्यहीन समझकर साथ साथ अपने को दुखो मानने लगता है। इस मिथ्या मान्यता को भ्रान्ति को दूर करने के लिए प्राणीमात्र के बिना कारण परम हितोपदेशी श्री गुरुदेव करुणा भाव से प्रेरित होकर परम समता शान्ति को पाने के लिए सन्मार्ग दिखाने वाली उत्तम शिक्षा रूप सदुपदेश में जीव को संसार परिभ्रमण का कारण दिखलाते हैंचौपाई- ताहि सुनो भवि मन थिर आन, जो चाहो अपना कल्यान । मोह महा मद पियो अनादि, भूल आपको भरमत वादी ॥ ३॥ अर्थ--प्रन्थकार भव्य जीवों को संबोधन करते हुए कहते हैं कि हे भव्य जीवों! यदि तुम अपना कल्याण चाहते हो तो उस परम पवित्र दुःखहारी और आत्मा को सुखकारी शिक्षा को मन स्थिर करके सूत्रो। यह जीव अनादि काल से मोह रूपी महामद को पान कर अपने आत्मा, को भूल कर उस मोह मदिरा से उन्मत्त होकर व्यर्थ इधर उधर धार गति रूप संसार बनी में भ्रमण कर रहा है और स्व स्वरूप भूल रहा है । पद्यपि आत्मा का स्वभाव अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन आदि गुणों का भंडार है, किन्तु अनादि काल से मोह को लहर से राग द्वेश के जाल में फंसकर अपने स्वरूप को भूला हुआ है, मैं कौन हूँ, मेरा क्या स्वरूप है, मुझे कौन कार्य करना है, और कौन सा मार्ग मेरे & लिए हितकर है, जिसमें लगातार लगू । ऐसा विचार होने पर श्री गुरु कहते हैं कि हे भव्य ! यदि तू अपना कल्याण चाहता है तो अपना मन स्थिर करके उस शिक्षा को सुन । भावार्थ- जो श्रावक या पति इस जनन्द्र प्रणीत सिद्धान्त शास्त्र शिक्षा को श्रवण कर धारण करता है वह थोड़े ही काल में ४ पृष्ठ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ & सिद्धान्तसार के रहस्यभूत परमात्मा भाव जो आत्म . तत्व चैतन्य स्वरूप अनन्त धर्मात्मक एक अखड लू पिंड अनत धर्म स्वरुप आत्माराम जाना जाता है और उसको जानने पर ही पर पराय आत्म कल्याण & है, होता है. हम संसार चतुर्गति में गमन करने वाले जीव को अन्य अन्य अवस्था रूप परिणित होती ४ है, यही संसार है, यद्यपि यह जीव द्रव्य टंकोकिरण स्थिर रूप है, तो भी पर्याय से अथिर है अर्थात् प्ले पूर्व अवस्था को त्यागकर आगामो अवस्था को ग्रहण करना वही संसार स्वरुप है । इस संसार में यह & जोत्र अनादि काल से मलीन हुआ पुद्गल कर्मों से सझा हुआ मिथ्यात्व रागादि रूप कर्म सहित अशुद्ध विभाव विकार रूप परिणामों को पाता है और उस रागादि रूप विभाव परिणामों से पुद्गलीक द्रव्य कर्म जीव के प्रदेशों में आकर बंध को प्राप्त हो जाता है, और उसो कारण से रागाद विभाव परिणाम पुद्गलीक बंध के कारण रूप भाव कम है । अर्थात आत्मा के रागादि रूप अशुद्ध परिणाम जो हैं वह द्रव्य, कर्म के बंध के कारण हैं और रागादि विभाव परिणाम का कारण द्रव्य फर्म है तथा द्रव्य कर्म के उदय से भाव कम होता है इस नियम से दोनों कर्म का आप ही कर्ता है। 8 इसलिये ये चार गति स्वरूप संसार में यह जीव निश्चय से नाम कर्म को रचना है, इस हो कारण से यह संसारो जीव अपने अपने उपार्जित कर्म रूप परिणमन करते हुए आत्म स्वभाव को नहीं पाते ल हैं। जैसे जल का प्रभाव बन में अपने प्रदेशों और स्वाद में आम, नीम, चंदनावि वृक्ष रूप होकर & परिणमन करता है, वहां पर वह अल अपने द्रव्य स्वभाव और स्वाद स्वभाव को नहीं पाता, ऐसे ही यह जीव परिणमन के दोष से अनेक रूप हो जाता है, जैसे कि यह जीव निगोद में उत्पन्न होकर दुख भोगते हैं, उन दुःखों का यहां वर्णन करते हैं-- Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल चौपाई --तास भ्रमण की हैं बहु कथा, पै कछु कहुं कही मुनि यथा । काल अनन्त निगोद मझार, बीत्यो एकेन्द्री तन धार ॥ ४ ॥ अर्थ - इस जीव के संसार में परिभ्रमण करने की बहुत लम्बी बड़ी कहानी है, परन्तु मैं उसे संक्षेप में कुछ कहता हूँ जो कि श्री गुरु ने कही है, कि इस जीव ने निगोव राशि में अनन्त काल एकेन्द्रीय के भव में शरीर को धारण कर समय बिताया ( निगोव तियंच गति में गर्भित है) वह त्रियंञ्च गति में पांच प्रकार के जीव राशि होते हैं-- एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंखेन्द्रिय, इनमें एकेन्द्रिय जीव राशि भी पाँच प्रकार के होते हैं । पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक. और वनस्पतिकायिक । बनस्पतिकायिक जीव राशि दो प्रकार के होते हैं, प्रत्येक शरीर वनस्पतिकःयिक और साधारण शरीर वनस्पतिकायिक । इनमें साधारण शरीर वनस्पतिकायिक जीवों को निगोद राशि कहते हैं। यह साधारण शरीर नामकर्म के उदय से जिन अनन्त प्राणियों के समान शरीर मिलता है और इस एक शरीर में रहने वाले अनंते जीवों का एक साथ हो आहार होता है, एक साथ ही सम श्वास- उच्छावास लेते हैं, और एक साथ ही उत्पन्न होकर एक साथ हो मरण को प्राप्त होते हैं। इन जीवों को साधारण शरीर वनस्पति निगोद कहते हैं, ये अनंत निगोदिया जीव जिस एक साधारण शरीर में रहते हैं वह शरीर इतना छोटा होता है कि हमारे नेत्रों से दिखाई नहीं देता और श्वास के अठारहवें भाग में निगोदिया जीवों के उत्पन्न होने या मरने पर भी निगोव शरीर ज्यों का त्यों बना रहता है, उसकी उत्कृष्ट स्थिति असंख्यात कोड़ा - कोड़ी सागर प्रमाण है । अब तक यह स्थिति पूर्ण नहीं हो जाती है तब तक इसी प्रकार उस शरीर में प्रतिक्षण अनंतानंत जीव एक साथ ही उत्पन्न होते हैं और मरते रहते हैं। यह एक सूक्ष्म निगोदिया जीव सारे लोकाकाश में ठसाठस भरे XXXXXX . Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुए हैं, ऐसा राई मात्र भी कोई स्थान नहीं है जहां अनंत निगो क्या जीव नहीं रहते हों और वादर निगोदिया जीव पुद्गल आदि आधार का निमित्त पाकर विश्राम करते हैं। जो कि किसी जीव के शरीर रूप परिणत हुए विशिष्ट प्रद्गल और शरीर आकार नहीं परिणत हुए सामान्य पुद्गल इन दोनों प्रकार के पुद्गलों के आश्रय या आधार पर बादर निगोदिया जीव रहते हैं। वह पृथ्वीकायिक, जmaife, अग्निकायिक जीवों का शरीर तथा अरहंत केवली का शरीर आहारक ऋद्धिधारी मुनि का आहारक शरीर, देवों का शरीर और नारकियों का शरीर इन आठ जाति के शरीरों को छोड़कर शेष समस्त जीवों के शरीरों के आधार वादर निगोदिया जीव निवास करते हैं । उनमें जो अनादि काल से निगोद पर्याय को धारण किए हैं जिन्होंने आज तक भी निगोद के सिवाय अन्य स पर्याय नहीं पाई और न आगे पायेंगे उन्हें नित्यनिगोद कहते हैं, एक अत्यन्त भाव कलंक प्रचुर अत्यन्त दुर्लश्या रूप संक्लेश परिणामों की प्रचुरता (बहुलता) वाले जीवों ने अनादि काल से आज तक न तो निगोद पर्याय को छोड़ा है और न आगे अनन्त काल तक कभी भी छोड़ेंगे किंतु सदा काल निगोद रूप पर्याय को ही धारण किये रहेंगे । और जो जीव अल्प भाव कलंक प्रचुर होते हैं, उन्होंने यद्यनि आज तक निगोद पर्याय को नहीं छोड़ा है किंतु आगे जाकर और काल लब्धि को पाकर वे निगोद राशि से निकल कर स आदि की पर्याय को प्राप्त हो सकेंगे । ऐसे जोवों को भी नित्य निगोद कहा है +-- चौपाई -- एक श्वास में अठ दश वार, जन्म्यो मरयो भयो दुःख भार । निकसि भूमि जल पावक भयो, पवन प्रत्येक वनस्पति थयो । अर्थ - - निगोबिया जीव एक श्वास में अठारह बार जन्म और मरण करता है, अर्थात् ५. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म-मरण जन्य महान दुःख के भार को सहन करता है, और भाग्यवशात् काललाध आने पर वह 8 & जोय वहां से निकल कर पृथ्वी, जल अग्नि, पवन और प्रत्येक वनस्पति को पर्यायों को प्राप्त होता है यहां पर संसार में मरण या वृद्धावस्था का दु.ख ही सबसे बड़ा दुःख माना गया है, जिन ओयों को अत्यन्त . शीघ्रता से मरण करना पड़ता हैं उनके कष्टों को सर्वज्ञदेव के सिवाय और कौन जान सकता है, वह दुःख वचमातीत है । उन निगोदियों के दुःख को कल्पना उस पुरुष से की जा सकती है, जिसके हाथ पर रस्सी से खूब कस कर बांध दिए जाए, और आँख, नाक, कान, मुंह को कपड़ा आदि भर कर बिल्कुल बन्द कर दिया जाय, जिससे कि वह बोलचाल नहीं सके। फिर उनके गले में रस्सी का फन्दा डालकर ऊंचे वृक्ष आदि पर लटका दिया जाय और ऊपर से बैतों से खूब पीटा जाय 8 तो वह दुखिया जोव न रो सकता है, न बोलचाल इशारा आदि द्वारा अपने दुःख ही किसी से प्रकट कर सकता है, किन्तु अभ्यन्तर ही असीम कष्ट का अनुभव कर आकुल-व्याकुल हो घबराता हुआ छटपटाता रहता है । इसी प्रकार को अव्यक्त अभ्यन्तर वेदना(बु.ख) को एकेन्द्रिय निगोदिया जीव प्रति क्षण सहा करता है, इस प्रकार क्लेशों को सहते-सहते भाग्योदय से कोई जीव निगोद से बाहर निकल पाता है, जिस प्रकार कि भाड़ में अन्न भेजते हुए कोई एक कण का दाना भाड़ से बाहर निकल कर आ जाय । इस प्रकार बाहर निकले हुए जोव कमशः या अक्रमशः पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और ल प्रत्येक वनस्पति में उत्पन्न होते हैं, और उस पर्याय में असंख्यात काल तक निवास कर अनेक भारी वेदना को सहते हुए जन्म मरण करते रहते हैं । और प्रत्येक वनस्पति उसे कहते हैं जो एक पारीर 8 का स्वामो एक हो जीव होता है जैसे आम, नीम, नारियल आदि के वृक्ष । निगोद राशि से निकल & कर जीव सीधा मनुष्य पर्याय भी प्राप्त कर सकता है और उसी भव से मोक्ष भी जा सकता है Nur Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 या क्रमशः भी उत्पन्न होता है, दोनों का भी नियम नहीं है। अब त्रस पर्याय पाने को दुर्लभता को & बतलाते हैं : चौपाई--दुर्लभ लहि ज्यों चिन्तामणी, त्यो पर्याय लही त्रस तणी । लट पिपील अलि आदि शरीर, धरि-धरि मरयो सही बह पीर ॥६॥ अर्थ-जिस प्रकार चिन्तामणि रत्न का पाना अत्यन्त दुर्लभ है, उसी प्रकार त्रस की पर्याय & पाना भी अत्यन्त बुर्लभ है। क्योंकि इस जीव ने निगोद पर्याय में अनंत काल बिताने के बाद ४ अत्यन्त कठिनता से त्रस पर्याय को प्राप्त किया, तथा नाना योनियों में लट, कोड़ी, मकोड़ा, मच्छर & भौरा भारि शरीर बार-बार धारण कर मरा और बहुत कष्ट सहे । अर्थात् अस पर्याय में असंख्यात काल प्रमान शरीर स्थिति के पूरा होने तक यह जीव द्वोत्रिय मावि विकलेन्द्रियों में बार-बार जन्म X मरण किया करता है। ऐसे ही भव सम्बंषी स्थिति को काय स्थिति कहते हैं। जैसे द्वीन्द्रिय जीवों की & एक भव सम्बंधी उत्कृष्ट आयु द्वादश वर्ष की है यह भय स्थिति है। जो कोई जौब द्वीन्द्रिय को एक & पर्याय को आयु को पूरा कर मरा, और पुनः द्वीन्द्रियों में उत्पन्न हुआ फिर मरा, इस प्रकार लगातार & एक ही काय के धारण करने के काल को काय स्थिति कहते हैं । इस अनुक्रम से या इस प्रकार 6 द्वीन्द्रियादि विकलेन्द्रिय जीवों को कायस्थिति असंख्यात हजार वर्ष की है । आगे पंचेन्द्रिय जीवों के 8 दुःखों का वर्णन करते हैं: चौपाई-कबहूं पंचेन्द्रिय पशु भयो, मन बिन निपट अज्ञानी थयो। सिंहादिक सैनी व कूर, निर्बल पशु हति खाये भूर ॥७॥ कबहूं आप भयो बलहीन, सबलनि करि खायो अति दीन । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदन भेदन भूखरु प्यास, भार वहन, हिम, आतप त्रास ||८|| बध बंधन आदिक दुख घने, कोटि जीभते जात न भने । अति संक्लेश भावते मरयो, घोर शुभ्र सागर में परयो ॥ ६ ॥ -- स्वभ्र अर्थ --- विकलेन्द्रिय पर्याय से कभी निकलकर जीव पंचेन्द्रिय पशु भी हुआ तो मन के बिना बिल्कुल अज्ञानी रहा, और कभी यदि सेनी भी हुआ तो सिंह, मच्छ, गोध प्रादि क्रूर जीवों में उत्पन्न हुआ, वहां सैंकड़ों निर्बस पशुओं को हत कर खा गया, और कभी यह जीन स्वयं निर्बल हुआ तो बलवान जोगों के द्वारा प्रत्यन्त दोनता पूर्वक खाया गया और छेक्न भेदन भारन ताड़न सहना पड़ा और शीत, उष्ण, मूख, प्यास, बोझा ढोना, बघ बंधन को प्राप्त होना इत्यादि प्रसंस्य दुखों को त्रियंञ्च योनि में सहता है, जो कि करोड़ों जिह्वाओं के द्वारा भी नहीं कहे जा सकते हैं ? ऐसे घोर दुःखों को भोगते हुए यह जीव जब अत्यन्त संक्लेश भाव से मरता है तो घोर नरक रूपी महासागर में जा गिरता है। भावार्थ- पंचेन्द्रिय जीव दो प्रकार के होते हैं एक संनी, दूसरे असैनी । जिनके मन होता है वह सैनी हैं, इसे संज्ञी समनस्क भी कहते हैं, जिनके मन नहीं होता है उन्हें असैनी, असं या श्रमनस्क कहते हैं । ये दोनों प्रकार के जीव गर्भज भी होते हैं, और सन्मूर्च्छन भी होते हैं, जिन जीवों का शरीर माता पिता के रज और वीर्य के संयोग से बनता है उन्हें गर्भज कहते हैं जैसे -- गाय, घोड़ा, तीतर, कबूतर, मगरमच्छ इत्यादि । किन्तु जिन जीवों का शरीर माता पिता के रज वीर्य की अपेक्षा बिना इधर उधर के परमाणुओं के मिल जाने से उत्पन्न होता है उन्हें संमूच्छिन कहते हैं; जैसे जल, सर्प वगैरह । उक्त दोनों ही प्रकार के संज्ञी और प्रसंजी जीव जलचर, थलचर और नभचर के भेव से तीन प्रकार के होते है । इन सर्व प्रकार के पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों में जो क्रूर स्वभाव पृष्ठ ८ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ & वाले और बलवान होते हैं, वे अपने से छोटे जीवों को निर्दयता पूर्वक मार कर खा जाते हैं। और & की तो बात हो क्या है, इस तियंच योनि में भूखी माता भी अपने बच्चों को खा जाती है । इसके 8 & अतिरिक्त आकाश में निर्द्वन्द्व विहार करने वाले पक्षी प्रावि अकाल में ही काल के गाल में जा 8 पहुंचते हैं। वर्तमान के कसाई खानों में असंख्य मूक प्राणी प्रतिदिन तलवार के घाट उतारे ज ते हैं। 8 तथा उत्पन्न होने के पूर्व ही अण्डे को अवस्था में असंस्य प्राणो समूचे रूप में खा लिये जाते हैं । भूख, प्यास के दुःस, बोझा जाने के दुःख, नपुंसक (माधो) करने में महान दुःख, सर्दी गर्मों में सहने के दुःख तो सर्व जगत के प्रत्यक्ष ही हैं । अभी तक तो मांस भक्षियों के लिए पशु मारे जाते थे 8 परंतु अब तो कोमल चमड़ा प्राप्त करने के लिए गर्भ धारण करने वाले पशु अत्यन्त निर्दयता पूर्वक मारे जाते हैं । कहने का सारांश यह है कि इस प्रकार असंख्य कुःखों को यह जीव त्रिर्यञ्च गति में भोगता है जिन्हें यदि करोड़ों व्यक्ति भी एक साथ कहने को उद्यमी हों तो सहस्रों वर्षों तक सहस्र जिह्वा से भी नहीं कह सकते हैं । इस प्रकार जब यह जोब संक्लेश पूर्वक मरता है तो नकं गति में जाकर उत्पन्न होता है इसलिए नकंगति के दुःखों का यहां वर्णन करते हैंचौपाई-तहां भूमि परसत दुख इसो, बीछू सहस उसे तन तिसो । तहां राध शोणित वाहिनी, कृमि-कुल-कलित, देह दाहिनी ॥१०॥ सेमर तरु जुत दल असि पत्र, असि ज्यों देह विदारे तन । मेरु समान लोह गलि जाय, ऐसी शीत उष्णता थाय ॥११॥ तिल-तिल करें देह के खण्ड, असुर भिड़ावै दुष्ट प्रचण्ड । सिन्धु नीर ते प्यास न जाय, तो पण एक बून्द लहाय ॥१२॥ पड्ठ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन लोक को नाज जो खाय, मिटे न भूख कणा न लहाय । ये दुख बहु सागर लों रहें, करण जोगले तर गति लहैं ॥१३॥ अर्थ-उन नकों की भूमि को छूने से ऐसा दुःख होता है कि वैसा दुःख हजारों बिच्छुओं के एक साथ डंक मारने से भी नहीं हो सकता । वहां पर पोप और खून से भरी हुई कोड़ों के समूह से 8 & युक्त और शरीर को जलाने वाली येतरणी नदी बहती है. वहां के वृक्ष सेमर के वृक्ष के समान लन्ने और तलवार की धार के समान तेज धार वाले पत्तों से युक्त होते हैं। जब कोई नारको छाया विश्राम पाने की इच्छा से उन वृक्षों के नीचे पहुंचता है तो उन वृक्षों के पत्ते ऊपर से गिरकर तलवार के समान उन नारकियों के शरीर को विदीर्ण कर डालते है । उन नारकियों के इतनी अधिक शीत उष्ण' को वेदना है कि यदि मेरु पर्वत के समान एक लाख योजन का लोहे का गोला यहां डाला जाय तो क्षण मात्र में गल जाय । वहाँ नारकी आपस में एक दूसरे के तिल-तिल प्रमाण शरीर के खंड कर डालते & & हैं और ऊपर से दुष्ट एवं प्रचण्ड स्वभाव वाले असुर उन्हें आपस में भिड़ाते हैं । वहां प्यास की वेदना इतनी अधिक होती है कि यदि समुद्र भर भी पानी पीने को मिल जाय तो भी प्यास न बुझे, ल परन्तु पीने को एक बून्द भी पानी नहीं मिलता है । वहां भूख को बेदना इतनी अधिक होती है कि यदि तीनों लोकों का समस्त अन्न भो खाने को मिल जाय, तो भी भूख न मिटे, परन्तु अन्न का एक वाना भी खाने को नहीं मिलता है । ये दुःख और इसी प्रकार के अन्य अनेकों बुःख यह जोब कई सागरों तक सहता है, तब कहीं जाकर यह जोव कर्म योग से मनुष्य गति पाता है । भावार्थ--इस & चतरा पृथ्वी के नीचे छह राजू में सात नरक हैं, उनमें उत्पन्न होने वाले जीवों को नारको कहते हैं । 8 इन नारको जीवों का शरीर वैक्रियिक होता है इस लिए वह एक अन्तमुहूर्त में हो पूर्णावयव हो Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ जाता है । इन नारकियों के जन्म स्थान नरक चौरासी लाख बिलों के ऊपर होते हैं । जन्म स्थानों के आकार कुम्भी, मुद्गर, मृदंग, भस्मा, धोंकनो, टोकनी आदि, के समान अशुभ और भयानक है, इन जन्म स्थानों का भीतरी भाग करोंत को धार के समान तीक्ष्ण बन्नमयो भयंकर है, सब जन्म स्थानों के मुख नीचे की ओर है । जिससे नारको उत्पन्न होने के साथ हो नोचे बिलों में जाकर गिरत है । उन नरक बिलों में कुत्ता, बिल्ली, ऊंट आदि के सड़े गले शरीरों की दुर्गध की अपेक्षा अनन्त गुणी अधिक दुर्गध है और वहां की भूमि अत्यन्त जहरोली है कि उसे छूने मात्र से हजारों विच्छुओं के एक साथ काटने से भी अधिक वेदना होतो है । नारको जीव उत्पन्न होकर नीचे छत्तीस आयुधों के बीच में गिरता है, और जहरीलो भूमि तथा तीक्ष्ण आयुषों को वेदना को नहीं मह सकने के कारण एकदम ऊपर को उछलता है । प्रथम नरक में सात योजन और छह हजार पांच सौ धनुष प्रमाण ऊपर उछलता है । आगे के नरकों में उछलने का प्रमाण उत्तरोत्तर दूना दूना है । इस प्रकार कई बार दड़ो गैंद, फुटबाल के समान नीचे से ऊपर उछलने पर जब नया नारकी अधम दशा होकर नीचे गिर जाता है, पड़ जाता है, तब पुराने नारको उन नवीन नारकियों को देखकर धमकाते हुए उस पर इस प्रकार टूट पड़ते हैं जिस प्रकार क्रूर सिह मृग के बच्चे को देखकर उसके ऊपर टूट पड़ता है । ये नारको चक्र बाण, मुद्गर, करोत, भाला, मूसल, तलबार, छूरी, कटारी आदि से मारने काटने लगते हैं । कितने & ही नारको उसे पकड़ कर और पूर्व भाव के बैरों को स्मरण कर उसे कोल्हू में पेल देते हैं। कोई उसे पष्ठ धधकती हुई भाट्रियों में झोंक देते हैं, कोई उबलते हुए तेल के कढ़ावों में डाल देते हैं । इस प्रकार ११ 8 जब वह नारकी इन असंख्य दुःखों से मरणासन्न हो जाते हैं तो अपने प्राण बचाकर शान्ति पाने की 3 & इच्छा से वहां बहने वाली वैतरणी नदी में कूद पड़ता है, परन्तु पाप के उदय से वहां भी शान्ति नहीं Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ & मिलतो । प्रथम तो उस नदी का जल ही अत्यन्त खारा, उष्ण और दुर्गन्धित है, फिर उसमें अगणित 3 मगरमच्छ आदि भयानक जल जन्तु मुंह फाड़े हुए खाने को दौड़ते हैं । तब वह नारकी उनसे भी असोम वेदना पाकर बाहर भागता है और किनारे पर खड़े हुए बन वृक्षों को देख कर शान्ति और ४ & शीतलता पाने की लालसा से उस बन में प्रवेश करता है । परन्तु पापी जीवों को शान्ति कहां ? जैसे 8 हो वह नारको बन के भीतर पहुंचता है, वैसे ही प्रचंड वेग से आंधी चलनी प्रारम्भ हो जाती है और 8 ऊपर से तलवार को धार के समान तीक्ष्ण पत्ते बनदंड के समान डालियां और लोहे के गोले के समान ४ फल गिरने प्रारम्भ हो जाते हैं, जिससे उसके अंग-उपंग छिन्न-भिन्न हो जाते हैं। उसी समय उन वृक्षों पर & बैठे हुए गिद्ध, गरुड़, काक, चोल प्रावि तोक्षण और बभ्रमय चोंच वाले मांस भक्षी पक्षो उस पर टूट ल 8 पड़ते हैं, और उसके शरीर का मांस लोंच-लोंच कर खाने लगते हैं । इसी समय पुराने नारको आकर 8 & उसे मुद्गर, मूसल से मार-मार कर चूरा चूरा कर डालते है और ऊपर से नमक मिर्च जैसे तोक्षण 8 पदार्थ उसके शरीर पर डाल देते हैं, जिससे पीड़ित होकर छटपटाने लगता है, हाय, हाय, विलाय करता है और मूच्छित होकर भूमि में गिर जाता है, ऐसे ही तीन नरक पर्यन्त अम्बारोष आदि नीच जाति के कर स्वभावी असुर देव आकर पुराने नारकियों को सम्बोधित करते हुए पूर्व भव को याद दिलाते हैं और उन्हें पुनः आपस में लड़ाने के लिए तय्यार कर देते हैं और लड़ाते हैं जैसे यहां तीतर आदि लड़ाते हैं । उन नरकों में शोत को वेदना इतनी अधिक है कि यदि मेरु पर्वत के समान विशाल लोहे का गोला डाला जाए, तो वह जमीन तक पहुंचने के पूर्व ही अधर प्रदेश में नमक की डली के 8 १२ समान गलकर बिखर जायगा । इसी प्रकार उष्ण नरकों में इतनी अधिक उष्णता है कि मेरु समान लोहे & का गोला तल प्रदेश तक पहुंचने के पूर्व ही मोम के खण्ड के समान पिघलकर पानी-पानी हो Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (8 जायगा। तहां प्रथम नरक में ३० लाख बिल हैं, दूसरे नरक में २५ लाख मिल हैं, तीसरे में १५ 8 8 लाख बिल हैं, चौथे में १० लाख, पांचवें में ३ लाख बिल हैं; छठे में पांच कम एक लाख बिल हैं 8 और सातवें में पांच ही बिल हैं, कुल सात नरक में ८४ लाख बिल हैं । इनमें ऊपर के ८२ लाख बिलों में उष्ण वेदना है, और नीचे के २ लाख बिलों में शोत वेदना है, तहां गर्मी को अपेक्षा सर्दी की वेदना अधिक होती है। इसलिए पांचवें नरक के आधे भाग में मोचे शीत वेदना बतलाई गई है भूख प्यास वेदना ऊपर लिख. आये हैं । तथापि वह नारकी भूख की असह्य वेदना से पीड़ित होकर & वहाँ की अत्यन्त तीखी कड़वी और दुर्गध सहित थोड़ी सी मिट्टी को बे चिरकाल में खाते हैं, उस मिट्टी में इतनी दुगंध आती है और वह इतनी जहरीली होती. है यदि पहले नरक की मिट्टी यहां लाकर शान यो भार तो आजोश हे भोकर रहने वाले समस्त जीव मर जाय । इसका यह जहरीलापन और घातक शक्ति आगे के नरकों में पाथड़ा प्रति आध-आध कोश बढ़ती गई है । सप्तम नरक के पाथड़े में साढ़े चौबोस कोश के जीव गंध से मृत्यु को प्राप्त हो जायं, प्रथम नरक में १३ 0 दूसरे में ११, तीसरे में ६, चौथे में ७, पांचवें में ५, छठे में ३, सातवें में एक पाथड़ा हैं । इनको पटल भी कहते हैं । इस प्रकार नरकों के भीतर नारको जीव असंख्य काल तक भारी वेदना को सहने ४ के राइ अत्यन्त सौभाग्य से मनुष्य गति को प्राप्त कर पाता है । प्रथम नरक में जघन्य आयु १० हजार वर्ष और उत्कृष्ट एक सागर को है, दूसरे में तीन सागर की है, तीसरे में सात सागर, चौथे में दस सागर, पांचवें में सतरह सागर, छठे में बाईस सागर, सातटों में ३३ सागर की है । दूसरे आदि 8 नरकों में जघन्य आयु के पूर्व के नरकों को उत्कृष्ट आयु से एक समय अधिक जानना चाहिए । इन & नारको जीवों का असमय में मरण नहीं होता है। शरीर के तिल बराबर टुकड़े कर दिए जाने पर Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ भी वह पारे के समान पुनः भापस में मिल जाते हैं । उक्त कथन में इतनी बात विशेष जाननी 8 & चाहिए कि नरकों में विकल-त्रय या पशु-पक्षी जीव नहीं होते हैं । वहां के नारकी अशुभ विक्रिया से व्याघ्र, श्वान आदि विविध रूप को धारण कर आपस में एक दूसरे को खाते हैं, और सिंहादि नई-नई अपने देह को विक्रिया किया करते है, और यहां के तारको ही नये या पुराने नारकियों को वेदना पहुंचाने की दुर्भावना से अपने शरीर को विनिया द्वारा लट, पिपिलिका, सर्प, मगरमच्छ, ध्याघ्रादिक का 8 रूप धारण कर लेते हैं और परस्पर दुःख देते हैं । अपग्विक्रिया ही होती है । नारको जीव ही 8 विक्रिया के द्वारा वृतादि रूप धारण कर लेते हैं, मूसल तलवार आदि शस्त्रों के विषय में भी यही बात जानना चाहिए । और वह नारकी जीव नरक में पाप कर्म जो मद्य पान, मांस भक्षी, पशु-पक्षियों के घातक और शिकार खेलने वाले जीव नारकों में जाकर उत्पन्न होते हैं । और वहाँ अनन्त दुःखों 8 को पाते हैं; जो जीव लोभ, क्रोध, भय, मोह के बल से असत्य भाषरण से, परधन हरण से, अत्यन्त भयानक नरक में जाते हैं । जो लज्मा से रहित काम से उन्मत्त अन्याय करते हैं परस्त्री में प्रासक्त रह 8 कर रात दिन मैथुन का सेवन करते हैं वह नरक में घोर दुःख पाते हैं । जो जीव आयु के बंध के समय अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ कषाय से व्याप्त चित्त रहते हैं और कृष्ण, नील, कापोत इन तीन अशुभ लेश्याओं के अनुरूप जिनको प्रवृत्ति रहती हैं जो बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह में & मस्त रहते हैं, दया दान शील जप तप से जिनका हृदय शून्य रहता है और आहार, भय, मैथुन और 8 परिग्रह इन चारों संज्ञाओं में अत्यन्त आसक्त रहते हैं ऐसे पापी मनुष्य और तिर्यच पंचेन्द्रिय जीव & नरक में जाकर उत्पन्न होते हैं और वहां से निकल कर तिर्यंच सैनी या मनुष्य उत्पन्न होता है। किन्तु : & सातवें नरक से निकला हुआ जीव नियम से पंचेन्द्रिय तियंच ही होता है । और नरक से निकला Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमा जीव नारायण, प्रतिनारायण, बलभद्र और चक्रवर्ती नहीं हो सकता है। तीसरे नरक तक से 8 निकला हुआ श्रीव तीर्थकर हो सकता है। इससे नीचे के नहीं । चौथे नरक से निकला हुआ जोव चरम शरीरी हो सकता है । पांचवें नरक से निकला हुआ जीव सकल संयमी हो सकता है । छठे नरक से निकला हुआ जीव देश संयमी तक हो सकता है । सातवें नरक से निकला हुआ जोव मनुष्य नहीं हो सकता है किन्तु तिथंच ही होता है परन्तु उनमें कोई बिरला प्राणी सम्यक्त्व को प्राप्त कर सकता है । तथा नरक से निकला हुआ जीव अनन्तर पश्चात् तो नरक में जा नहीं सकता, पर मनुष्य या तिर्यच होकर पुनः नरक में अवश्य जा सकता है । प्रथम नरक से निकल कर मनुष्य या तिर्यच होकर पुनः नरक में अवश्य जा सकता है । यदि प्रथम नरक में उत्पन्न हो तो इस क्रम से लगातार आठ बार तक प्रथम नरक में उत्पन्न हो सकता है। इसी प्रकार दूसरे नरक में लगातार सात बार, तीसरे नरक में लगातार छह बार, चौथे नरक में लगातार पांच बार, पांचवें में चार बार, छठे में तीन बार ४ और सातवें नरक में दो बार लगातार उत्पन्न हो सकता है, इस क्रम से अधिक नहीं । प्रथम नरक में ले शरीर की ऊंचाई उत्कृष्ट पुणा आठ धनुष पाव हाथ है, दूसरे नरक में साढ़े पन्द्रह धनुष आप हाथ है तीसरे में ३१, चौथे में ६२॥, पांचों में १२५ धनुष, छठे में २५० धनुष और सातों में शरीर को ऊंचाई ५०० धनुष को है । और असंज्ञो पंचेन्द्रिय जीव तिर्यच प्रथम नरक के अन्त तक उत्पन्न हो & सकते हैं। पेट से चलने वाले सरी सर्प आदि जीव दूसरे नरक तक, पक्षी तीसरे नरक तक, भुजंगादि 6 चौथे नरक तक; सिंह व्याघ्रादिक शिकारी जानवर पांचवें नरक तक; स्त्री छठे नरक तक और मत्स सातों नरक तक उत्पन्न हो सकता है। मनुष्य पहले नरक से लेकर सातों ही नरक में अपने पाप कर्म के अनुसार उत्पन्न हो सकते हैं । इस प्रकार नरक गति के दुखों का वर्णन समाप्त हुआ । आगे Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य गति के दुःखों को लिखते हैं: चौपाई — जननी उदर - बस्यो नवमास, अंग सकुचते पाई त्रास | निकसत जे दुख पाये घोर, तिनको कहत न आवे ओर ।। १४ ।। बालपने में ज्ञान न लह्यो, तरुण समय तरुणी रत रह्यो । अर्द्ध मृतक सम बूढ़ा पणो, कैसे रूप लखे आपणो ॥ १५॥ अर्थ – मनुष्य पर्याय का पाना, जैसे बालू के समुद्र में गिरी हुई हीरे की कणी को पुनः प्राप्त करना । इस प्रकार के अति दुर्लभ मनुष्य भय को पाने के बाद भी अनेकों जीव तो गर्भावस्था में ही मृत्यु को पा लेता है। यदि भाग्योदय जीवित बाहर निकल भी आया तो बाल्यावस्था में उत्पन्न होने वाले सैंकड़ों रोगों से ग्रस्त होकर जोवन मरण के संशय में झूलता रहता है। यदि भाग्यवश से बिमारी आदि से किसी प्रकार बच भी गया, तो खेलकूद में ही लगातार लगा रहता है, तब विद्याभ्यास से वंचित रह गया और खोटी संगति में फंस गया, जिससे युवा अवस्था आने पर भी स्त्री आदि भोगों में मस्त रहा, तो कभी जुआ खेलने, मांस खाने, चोरी करने, शिकार खेलने आदि दुर्व्यसनों में पड़कर अपना जीवन व्यर्थ कर दिया, धोरे धीरे वृद्धावस्था आ गई और शारीरिक एवं मानसिक चिन्ताओं से ग्रस्त होकर जर्जरित हो गया तथा क्षीण शक्ति होकर पराधीन हो गया, जहां पुत्रादिक भी अवहेलना करने लगते हैं । और भर्त्सना या तिरस्कार करते हैं, जिन पुत्रों को बालपने में बड़े लाड़ प्यार से लालन पालन कर शादी आदि की थी; वे हो घुड़कियां देकर कहने लगते हैं चुप रहो एक तरफ बंठ जावो; तुम्हारी बुद्धि वृद्ध हो गई है। मारी गई है; तुम साठे न साठे हो गये तथा इस वृद्धावस्था में शरीर की क्षीण शक्ति हो जाने से मनुष्य चलने तक से भी असमर्थ हो जाता है; उठना बैठना पृष्ठ १६ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कठिन हो जाता है, अंग-अंग संकलित हो जाते हैं, मांस राशि सूख कर नसा जाल झलक जाते है, वृष्टि मन्ब हो जाति है, वांत गिर जाते हैं, मुंह में से लार बहने लगती हैं, सुनने में शब्ब समझ में आते हैं, मनी बढ़ जाती है, नाक बहने लगती है, सूत्र के बुहाव शुरू हो जाता है, कफ गिरने लगता है, श्वास, सवा भरा रहता है. कई गूंगे या बहरे बन जाते हैं। जब ऐसी अवस्था को कवि ने अर्द्धमृतक बुढ़ापा बताया है यह बिल्कुल ठीक हो कहा है । जब मनुष्य पर्याय के तीनों को यह दशा है तब फिर यह जीव अपनी प्रात्मा का यथार्थ स्वरूप कैसे देख सकता है, अर्थात् कभी नहीं । कहने का सारांश यह है कि जो बचपने में निरन्तर विद्याभ्यास " करता हुआ बालक सद्ज्ञान का उपार्जन करता हुआ स्याप पूर्वक धन उपार्जन कर सत्कार्य में उसको उपयोग करता हुआ वान, पूजन, शील, संयम आदि यथाशक्ति पालन करते हुए रात दिन संसार देह मोगों से उदासीन रहता है और पुण्य पाप के फल में हर्ष विवाद नहीं करता है और निरन्तर आत्म स्वरूप के चित्तवन में लगा रहता हैं, यह मनुष्य का सार है ! अन्यथा जो काल के संस्कारवश आहार, भय, मैथुन और परिग्रह संज्ञा में फंसकर न्याय, अन्याय, को कुछ नहीं गिनता हुआ अपनी स्वार्थमयो वासनाओं को पूरा करने के लिए दूसरे के धन का अपहरण, झूठ बोलना, पराई स्त्री से दुराचार करना और समय आने पर दूसरे का कंठ काटने से भी नहीं चूकना, इन कारणों से अपने पन को भूल जाना कि मैं कौन हूं, कहां से आया हूं और कहां जाऊंगा, मेरा क्या स्वरूप है, मुझे क्या प्राप्त करना है, और उसकी प्राप्ति में कौन मार्ग चलना, वा उसके साधन कौन से हैं? इस प्रकार मनुष्य के हृदय में उक्त विचार जब तक जागृत नहीं होते हैं, तब तक यह आत्मा उन्नति की तरफ कैसे अग्रसर हो सकता है । इस प्रकार प्रमादवश मोह निद्रा को • पृष्ठ १७ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लहर में मामय अवस्था को तीनों पनोत्तियों को यों ही खो देता है । अब देव गति के वुःखों को 8 लिखते हैं:चौपाई-कभी अकाम निर्जरा कर, भवन त्रिक में सुर तन धरै ।। विषय चाह दावानल दह्यो, मरत विलाप करत दुःख सह्यो ॥१६॥ जो विमान वासी हूँ थाय, सम्यग्दर्शन बिन दुःख पाय । तहते चय शावर तन पर, यो परिवर्तन पूरो करै ॥१७॥ अर्थ- मनुष्य या सैनो पंचेन्द्रिय तिपञ्च पर्याय में कभी इस जोव ने अकाम निर्जरा को तो उसके फल स्वरूप भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी इन त्रिक में किसी एक जाति के देव का शरीर धारण किया । वहां पर सब समय में विषयों को चाह रूपी दावानल में जसता रहा । तथा 8 भरते समय रो-रोकर विलाप किया। और अत्यन्त दुःखों को सहन किया । यदि कवाचित् वह जोव 8 विमानवासी देव भी हो गया तो भी वहां सम्यग्दर्शन के गिना अत्यन्त दुःख पाता रहा । और जीवन ल के अन्त में वहां से च्युत होकर एकेन्द्रिय स्थावर शरीर को धारण किया। इस प्रकार यह जीव चतुर्गति रूप संसार में परिभ्रमण के चक्कर में पड़कर पूरा किया करता है ऐसे अनन्त काल 0 बीत गये आत्म कल्याण कभी नहीं हुआ । भावार्थ जो देवगति में उत्पन्न होते हैं उस जीव को देव 3 संज्ञा है । वह भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिस के भेद से चार प्रकार के देव होते हैं । तहां पृष्ठ रत्नप्रभा पृथ्वी के खर भाग वा पंक भाम में स्थित भवनों में रहने वाले देवों को भवनवासी कहते 8 हैं। इनके असुर कुमार आदि १० भेद हैं वे देव सोलह वर्ष को आयु वाले नवयौवनन्त कुमारों के ल समान सबा हास्य कोतूहल आदि में मस्त रहते हैं, इसलिए उन्हों को कुमार संजा है। वह पर्वत नवी *-- Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ sssssssssss बम खंड वृक्ष गुफा समुद्र पहाड़ों के बराड़े आदि विविष स्थानों में रहते हैं, उन्हें व्यस्तर देव कहते हैं 8 ये ही वेष मनुष्य स्त्री आदिके शारीर में प्रवेश कर नाना प्रकार के कोतूहल किया करते हैं, जिनके ज्योतिर्मय विमानों में कारण एस पूरक पर गगा: लाता और पहुंचाता है जिनसे दिन रात आदि हु काल का विभाग होता है उन्हें ज्योतिषदेव कहते हैं । ये ही तीनों प्रकार के देव भुवन त्रिक कहलाते ए हैं। इनमें मिथ्यावृष्टि मनुष्य व तिर्यश्च ही उत्पाद शिला पर जन्म लेते हैं, यद्यपि श्रुत में भवनवासी 3 आदि देवों में उत्पत्ति के कारण भिन्न-भिन्न बतलाये गये हैं परन्तु सामान्य रूप से अकाम निर्जरा रु तीनों प्रकार के देवों में उत्पत्ति का कारण है, यहां उसो एक पक्ष का उल्लेख किया है । और अपनी ३ इच्छा के बिना केवल पराधीनता से मोग-उपभोग का निरोष होने से तथा तीन कषाय रहित होकर 8 ३ भूख प्यास मारण ताड़न छेदन भेवन त्रास या प्राणघात हो जाने से जो कर्मों को निर्जरा होती है उसे 3 अकाम निर्जरा कहते हैं । भवन श्रिक में उत्पन्न होने का कारण जो ज्ञान और चरित्र को धारण करते हुए भी मिथ्यात्व न छूटने के कारण धर्म पालने में शंकाभाव वर्तते है तब संक्लेश भाव से युक्त हो कर व्रत उपवास आदि करते हैं तथा स्त्रो के वियोग से संतप्त होते हुए भी जो ब्रह्मचर्य का पालन 8 ३ करते हैं, ऐसे जीव भवनवासी देषों में उत्पन्न होते हैं । जो मनुष्य हास्यादि के वशीभूत होकर असत्य ३ संभाषण में अनुरक्त रहते हैं, सवा दूसरों की नकल किया करते हैं, परिहास्य करते डरते नहीं हैं, 8 ३ ऐसे जीव कंवर्ष जाति के भवन वासी देवों में उत्पन्न होते हैं । जो मनुष्य मंत्र-जन्त्र-तंत्र योग & पृष्ठ है करते है. नाना प्रकार के कौतूहल नाटक चेटक में लगे रहते हैं, दुनिया की खुशामद में लगे रहते हैं 8 । यह वाहन जाति के भवन वासी देवों में उत्पन्न होते हैं । जो मानव तीर्यकर या चार प्रकार के संघ को ई महिमा, पूजा, आगम प्रन्य, यात्रा, पंच कल्याणक महोत्सव, मन्दिर देवी प्रतिष्ठावि, आगम प्रतिकूल 8 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचरण करते है, वह दुविनवी मायाचारी होते है उनके पवि भाग्यवश देवायु का बंच हो जाय तो वे किल्विषक जाति के देवों में उत्पन्न होते हैं। जो जीव कोध, मान, माया और लोम में आसक्त है और ४ चरित्र धारण करते हुए भी निर्भय भाव से युक्त हैं ये असुर कुमार देवों में उत्पन्न होते हैं तथा & जो जीव जीवन पर्यंत सधर्म को धारण करके भी जो मरण के समय उसको विराधना कर देते हैं और समाधि के बिना मरण को प्राप्त होते हैं वे कन्दर्प, अभियोग्य, सम्मोह आदि नाना प्रकार के निकृष्ट देव दुर्गति भवनवासी देवों में उत्पन्न होते हैं। तथा जो मिथ्यावृष्टि होते हुए भी मंव कषाप से युक्त होकर गाने बजाने में लगे रहते हैं लोगों के मनोरंजन के लिए बलपियों का वेष धारण करते है। 8 धन्वीजन, धारण, और नट, मांडों का वेष धारण करते हैं उनके यदि भाग्यवश वायु का बन्ध हो जाय तो वे व्यन्तर जाति के देवों में उत्पन्न होते हैं। जो घर के क्लेशों से ऊबकर कूप, नदी में गिरकर या अग्नि में प्रवेश कर; फांसी लगाकर मरने वाले भी प्रायः व्यन्तर येवों में उत्पन्न होते है । प्रोर पंचाग्नि का तपना; पहाड़ को चोटियों पर ध्यान लगाना; शरीर में भस्म लगाकर साधु- महन्तपने छ को प्रकट करमा; जटाजूट धारण कर मल परिषह को सहन करना; लोगों में मान प्रतिष्ठा के लिए 8 नाना प्रकार के प्रासन लगाकर ध्यान करने का स्वांग रचना, घी, दूध, रही प्रादि का त्याग केवल पूजा सत्कार पाने के लिए करना इत्यादि कारण विशेषों से मिथ्या दृष्टि जीव ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार भवन त्रिक में उत्पन्न होने वाले सर्व देवों के समस्त भोग-उपभोग समस्त . सामग्री पंचेन्द्रियों के तृप्ति कारण उपलब्धि रहती है, तथापि मिथ्यात्व कर्म के उदय तीवपना से, अपने ले २० से अधिक विभूति वाले देवों को देखकर उनके हण्य गर्भ में ईष्यों को अरिम सदा जलती रहता है। ले और उस संपदा को प्राप्त करने के लिए अनेक संकल्प विकल्प उत्पन्न होते रहते है । उन्हें अपने & Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 पुण्योदय से प्राप्त भोगों में संतोष नहीं रहता । इस कारण से सदा पाकुसता रूप महान् मानसिक & दुःख अनुभव करते रहते हैं और अपनी आयु को पूरी करके नीच गति प्राप्त करते हैं । बिमानवासी स्वर्गों के देवों को यद्यपि भवनत्रिक के समान ईर्षा भाव नहीं होते हैं, और वे उनको अपेक्षा बहुत ना अधिक सुखी भी होते हैं । तथापि सम्यग्दर्शन रस्न के बिना अपनी प्रियतमा देवियों के वियोग काल 8 में वे अत्यन्त दुःख का अनुभव करते हैं। इसके अतिरिक्त देवों को आयु जब छह मास शेष रह ४ & जाती है तब उनके गले में पड़ी हुई रत्नों की माला, चेहरे को हीनता से मुरझाई हुई दर्शती है 8 8 और वस्त्राभूषण कान्तिहीन हो जाते हैं, वे देव देखकर एकदम आश्चर्य से स्तम्भित रह जाते हैं, ४ 8 और फिर अवधि ज्ञान से उन्हें यह ज्ञात होता है कि हमारी वेद पद के सिर्फ छह मास आयु शेष रह ४ गया है, तब मिथ्यादृष्टि देव अत्यन्त विकल्प होते हैं और नाना प्रकार से विलाप करते हैं । उस समय & उमके परिवार के सथा अन्य वेव आकर समझाते हैं और उसके दुःख दूर करने को भरपूर चेष्टा करते हैं परन्तु मिथ्यात्व मोहित मति होने के कारण उसको ममझ में कुछ नहीं आता है, और ज्यों ज्यों समय बीतता जाता है त्यों त्यों यह अधिक विलाप कर अत्यन्त दुःखी होता जाता है जब उसे पह ज्ञात होता है कि यहां से मरकर जीव मनुष्य या तिर्यंच योनि में उत्पन्न होता है तो वह विलाप करता हुआ कहता हैं कि हाय हाय, कृमि कुल से भरे हुए, मल रुधिर आदि से व्याप्त, अत्यन्त दुगंधित गर्भ में मैं नव मास तक कैसे रहूंगा। मैं क्या करूं, कहां जाऊं किसकी शरण लेऊ, हाय, मेरा कोई ऐसा बन्धु नहीं है जो मुझे यहां गिरने से बचा सके। इन्द्र महाराज बज्र के आयुध को धारण करने बाला, ऐरावत हाथी की सवारी करने वाला, देवों का स्वामो भी जिसको जीवन भर सेवा को है, मुझे & बचाने के लिए वह समर्थ नहीं है तो और को क्या बात । इस तरह नाना प्रकार विलाप करता हुआ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 बह वेव कहता है कि यदि यहां से मेरा भरण होता है तो भले ही होये, परन्तु मनुष्य तिर्यचों के उस 8 नरक वास के तुल्य गर्भवास में निवास न करना पड़े, भले हो मेरो उत्पत्ति एकेन्द्रियों में हो जाय । ह& ऐसा विचार जब बहुत समय तक हृदय गर्भ में भरते हैं, हिलोरें मारते हैं, तब वह एकेन्द्रियों की आयु बंध कर लेता है, और वर्तमान पर्याय की आयु के पूरा हो जाने पर वह मरकर निदान के वश 8 से एकेन्द्रियों में उत्पन्न हो जाता है । जो कि भवनत्रिक और दूसरे स्वर्ग तक के मिथ्या वृष्टि देव मर 8 कर एकेन्द्रियों में उत्पन्न हो सकते हैं । विशेषार्थ-यह तिर्यञ्चगति का दुःख छ: प्रकार के प्राणियों में पाया जाता है । प्रथम प्रकार के प्राणी एकेन्द्रिय स्थावर जीव हैं । जैसे पृथ्वोकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक तथा वनस्पतिकायिक ये सब सचित दशा में हवा के द्वारा जीते हैं । हवा न मिलने से मर जाते हैं । खान वा खेत की मिट्टी जीव सहित है। सूखो या जली हुई मिट्टी जीव रहित है । कूप, बावड़ी, & नदी का पानी सचित है, गर्म किया हुआ, रौंदा हुआ, टकराया हुआ पानी जीव से रहित है, लाल लाल ज्योतिमय स्फुलिंगों के साथ जलती हुई अग्नि सचित है, कोयलों में अचित अग्नि है । समुद्र, नदो, सरोवर, उपवन की गोली पवन सचित है । जेठ-बंशाख को गर्म हवा या धुएं वाली हवा अचित है । फल-फूल पत्ता शाखा हरी-भरी सचित वनस्पति है । सूखा पका फल गर्म व पकाया हुआ शाकादि व यन्त्र से भिन्न किया हुआ शाक फलादि जीव रहित वनस्पति है जीव रहित सचित एकेन्द्रिय जीवों के एक स्पर्शन इन्द्रिय है। उन्हें इन्द्रिय से छूकर ज्ञान होता है इसे मतिज्ञान कहते हैं। स्पर्श के पीछे सुख वा दुःख का ज्ञान होता है, इसे श्रुतज्ञान कहते हैं । वे जीव & यो जोव के धारी होते हैं । इनके स्पर्शनेन्द्रिय, शरीर का बल, श्वासोच्छ्वास और आयु कभं ये चार Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 प्राण पाये जाते हैं। द्विन्द्रिय जीवों के जैसे सोप, शंख, कौड़ी, केंचुआ, लट आदि इनके स्पर्शन और 8 ले रसना ये हो इन्द्रियां होती हैं और इनके छः प्राण होते हैं । एकेन्द्रिय से दो प्राण अधिक होते हैं । रसना इन्द्रिय और वचनवल, एकेन्द्रिय की तरह इनके भी दो ज्ञान होते हैं । तीन इन्द्रिय जोब जैसे 8 कुथु, चोंटो, कुम्भी, बिच्छू, धुन खटमल, जू, लोक इनके घाण इन्द्रिय अधिक होती है, ये छूकर स्वाद लेकर वा सूचकर जानते हैं। ज्ञान दो होते हैं ।- प्रति श्रुत। पूर्ववत् प्राण एक अधिक होते हैं 8 & घ्राणइन्द्रिय को लेकर सात प्राण होते हैं । चौइन्द्रिय जीव जैसे मक्खी, डाँस, मच्छर, भिड़, भ्रमर, & पतंग, तोतरी, टोडी आदि इनके प्रांख अधिक होती हैं । इनके आठ प्राण व दो मतिश्रुत ज्ञान होते 8 हैं। पंचेन्द्रिय मन रहित असनी जैसी कोई जाति के, पानी में पैदा होने वाले सर्प, इनके कान भी होते हैं । इनके नौ प्राण या मतिश्रति ये वो ज्ञान होते हैं। पंचेन्द्रिय मन सहित सैनी जैसे चार पग वाले मृग, गाय, भैंस, कुत्ता, बिल्ली, बकरी, मैना, तोता आदि । उर से चलने वाले नागादि; जल से पैदा होने वाले मछली; मगर; कछुएं प्रावि इनके मनबल को लेकर दशप्राण होते हैं । साधारण दो & ज्ञान भतिश्रुति होते हैं । मन एक सूक्ष्म स्थान में कमल के आकार अंग होता है जिसको सहायता से 8 सैनी प्राणी संकेत समझ जाता है । शिला अलाप ग्रहण कर सकता है । और कारणकार्य का विचार कर सकता है । तर्क वितर्क या अनेक उपाय सोच सकता है। छः प्रकार के तियंचों के क्या-क्या दुःख है । वह रसना इन्द्रिय के द्वारा वर्णन नहीं किये जा सकते हैं उनका दुःख भुगते सो हो जाने या केवलशानी जाने हैं । सो भी सब जगत् को प्रत्यक्ष प्रकट है कि एकेन्द्रिय जीवों के अकथनीय कष्ट हैं । पृथ्वीकायिक-- मिट्टी को खोदते हैं, रोंदते हैं, जलाले हैं, कूटते हैं, उन पर अग्नि जलाते & है, धूप को ताप से मिट्टी के प्राणी मर जाते हैं । मिट्टी के शरीरधारी जोत्रों का देह एक अंगुल 8 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ᏂᎦ 0 के असंख्यात भाग जो बहुत हो र होला है। एक के शो बस सचित्त मिट्टी में अनगिनती ४ पृथ्वीकायिक जीव हैं। जैसे हमें कोई जन कूटे छोले कुल्हाड़ी से छेदे तो स्पर्श का कष्ट होता है, वैसे ही पृथ्वी के जीवों को हल चलाने आदि से घोर कष्ट होता है। वे जीव पराधीनपने में सब सहते हैं। कुछ बचने का उपाय नहीं कर सकते हैं और भागने को भी असमर्थ है । जलकायिकसचित्त जल को गर्म करने, मसलने, रोंदने, फेंकने, पीट देने आदि से महान् कष्ट उसी तरह होता है, जैसे पृथ्वी के जीवों को होता है। इनका शरीर बहुत छोटा होता है । एक पानी को बून्द में अनगिनत जीव होते हैं । पवनकायिक जीव, दोवार भीतादिक को टक्कर खाने से, गर्मी के झोकों से, जल को तो दूष्ट से, पंखों से, हमारे दौड़ने, उछलने से, टकराकर बड़े फष्ट से मरते हैं । इनका & शरीर भी बहुत छोटा होता है । एक हवा के झोके में अनगिनत वायुकायिक प्राणी होते हैं । & अग्नि जल रही है । जब उसको पानी से बुझाते हैं या मिट्टी डालकर बुझाते हैं या लोहे से निकलते हुए स्फुलिगों को घन को चोटों से पीटते हैं तब उन अग्निकायिक प्राणियों को स्पर्श का बहुत ही दुःख होता है । इनका शरीर भी बहुत छोटा होता है । एक उठती हुई अग्नि को लौ में अनगिनती अग्निकायिक जीव होते हैं । वनस्पतिकायिक -दो प्रकार की होती है एक साधारण, दूसरी प्रत्येक । जिस वनस्पति का शरीर एक हो या उसके स्वामी बहुत जीव हों । जो साथ-साथ जन्में और साथ साथ 8 मरे उनको साधारण वनस्पति कहते हैं । जिनका स्वामी एक हो जीव हो, उसको प्रत्येक वनस्पति कहते हैं । प्रत्येक के आश्रय जब साधारणकाय रहते हैं तब उस प्रत्येक फो सप्रतिष्टित प्रत्येक कहते हैं। जब साधारण बनस्पतिकाय उनके प्राश्रित नहीं होते हैं, तब उनको अप्रतिष्ठित वनस्पति कहते हैं। जिन पत्तों में या फलादि में जो प्रत्येक रेखायें बंधन मावि निकलते है ये जब तक न निकलें. जब Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ला . उनको सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति कहते हैं । जब ये निकल जाते हैं तब उनको अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति कहते हैं । और तुच्छ फल सप्रतिष्ठित प्रत्येक के दृष्टान्त हैं । साधारण वनस्पति को एकेन्द्रिय निगोद कहते हैं । वह बहुधा आलू, घुइयां, मूली, गाजर, शकरकन्द रतालू भूमि में फलने बाली तरकारियां साधारण या सप्रतिष्ठित प्रत्येक होती है । अपनी मर्यादा को प्राप्त परको ककड़ी, नारंगी, पक्का आम, अनार, सेब, अमरूद, केला, नींबू, खरबूजा, कोहला, कलिवरा, पेठा, कुमरा, बिजोरा, इमली, आंवला, केत, वोला, बेल आदि प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीवों को बड़ा हो कष्ट होता है । कोई वृक्षों को काटता है । कोई छेदन - मेदन करता है । पत्तों को तोड़ता है। फलों को काटता | साग को तीक्ष्ण शस्त्र काटकर अग्नि में भोंकता है, मसलता है, पकाता है अथवा पशुओं के द्वारा या मनुष्यों के द्वारा इन वनस्पतिकायिक जीवों को बड़ी हो निर्दयता से कष्ट दिया जाता है । वे बिचारे पराधीन होकर स्पर्शन इन्द्रिय द्वारा घोर वेदना सहते हैं। वे जीव बड़ा ही कष्ट पाकर मरते हैं। इस तरह ऐकेन्द्रिय प्राणियों के कष्टों को विचारते हुए रोमाञ्च खड़े हो जाते हैं । जैसे कोई किसी मानव की आंख बन्द कर दे। जबान पर कपड़ा लगा दे व हाथ-पैर बांध वे और मुद्गरों से मारे, छोले, पकावें । कुल्हाड़ी से टुकड़े करें तो भी यह मानव सहाकष्ट वेदना सहन करेगा, परन्तु कह नहीं सकता, feet नहीं सकता, भाग नहीं सकता। इसी तरह हो ये एकेन्द्रिय प्राणी अपने मति श्रुत ज्ञान के अनुसार घोर दुःख सहन करते हैं । वे सब उनके हो पूर्व बांधे हुए असातावेदनीय पाप कर्म के फल हैं । दो इन्द्रिय प्राणियों से चौइन्द्रो प्राणी तक के जीवों को विकलत्रय कहते हैं । ये कोड़े मकोड़े पतंग चींटी आदि हवा पानी प्राग से भी घोर कष्ट पाकर मरते हैं । बड़े सबल जन्तु छोटों को पकड़कर खा जाते हैं अथवा बहुत से भूख प्यास पानी की वर्षा से, आग जलने से बनी में आग पृष्ठ २५ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. लग जाने से, नदी को बाढ़ आ जाने से, दीपक रोशनी की लौ से, न्हाने ब धोने के पानी से, झाडू ले 8 देने से, फटकारने से, कपड़ों के धोने से, शस्त्रों से तड़प-२ कर मर जाते हैं, गाड़ी घोड़े मोटर तथा 8 मनुष्यों के पैरों से दबकर मर जाते हैं या भार के नीचे चौको पलंग कुर्ती सरकाने से, बिछौना बिछाने से दब कर प्राण दे देते हैं। निर्वयो मानव जान बूझकर इनको मारते हैं मक्खियों के छत्तों में आग लगा देते हैं । मच्छरों को हाथों से मेरछलों से मार डालते हैं । रात्रि को भोजन बनाने या खाने में बहुत से भूखे प्यासे जन्तु अग्नि या भोजन में पड़कर प्राण गंवा देते हैं। सड़ी बुसी चीजों में जन्तु & पैदा हो जाते हैं । इनको धूप में गली में डाल देते हैं । गमं कड़ाहों में पटक दिया जाता है । आटे मैदा शक्कर को बोरी में बहुत से चलते फिरते जीत दोख एडो हैं तो भी इलवाई लोग क्या नहीं करते उनको खोलते हुये पानी में डाल देते हैं । रेशम के कीड़ों को ओंटते हुए पानी में डालकर मार डालते हैं। इन विकलत्रय के दुःख अपार हैं पंचेन्द्रियों के दख तो विदित ही हैं। बेचारे उन पंचेन्द्रिीय ल पशुवों को दिन-रात भोजन ढूंढते हुए बीत जाते हैं। पेट भर भी खाने को नहीं मिलता है वे दोन 6 बेचारे भूख प्यास से या अधिक गर्मी-सर्दी- वर्षा से तड़प २ कर मर जाते हैं । निर्दयी शिकारी लोग निर्दयता से गोली था तीर कमान या लाठी से मार डालते हैं। मांसाहारी पकड़ कर कसाई खानों में बड़ी कठोरता से पकडकर चारों पैर बांधकर मुंह में लकड़ी का मसल सा ठोक कर फिर गला काट कर मार डालते हैं । दया नहीं करते है और पक्षी जीवों को पिंजरों में बन्द कर देते हैं । वे आप 8 6 स्वतंत्रता से उड़ नहीं सकते हैं । मछलियों को जाल से पकड़ कर मार डालते हैं या तड़फ २ कर वे स्वयं मर जाती हैं वे जाल में फंस कर प्राण गमाती हैं तथा बैल, गाय और भंसों को हडडी के लिये 8 या चमड़े के लिये मार डालते हैं । इस प्रकार ये हिंसक मानव पशु और पक्षियों को घोरतम कष्ट Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उह ला देकर मार डालते है। ऐसे पंचेन्द्रिय तिर्यंचों को असहनीय दुख सहना पड़ता है । वह देव मिथ्यादृष्टि निदान के बल से पृथ्वीकायिक, जलकायिक और वनस्पतिकायिक इन तीनों जाति के एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं, शेष अग्निकायिक और वायुकायिक एकेन्द्रियों में नहीं उत्पन्न होते हैं । और हीरा पन्ना नोलम आदि ऊंच जाति की रत्नमयी पृथ्वीकायिक जीवों में उनकी उत्पत्ति होती है। जलकाधिक में स्वांत बिन्दु जो कि जल मोती या गजमुक्ता के या वांस में परिणत होता है । इसी प्रकार वनस्पतिकायिक में भी गुलाब चमेली चम्पा उत्तम जाति के पुष्प वृक्षों में और नारियल अनर केला आम् आदि उत्तम जाति के फल वृक्षों में उत्पन्न होता है । और तीसरे स्वर्ग से लेकर बारहवें स्वर्ग तक के मिथ्यादृष्टि देव संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों और मनुष्यों में जन्म लेते हैं। इससे ऊपर के देव मनुष्य योनियों में ही जन्म लेते हैं जो जोव यहां सराग संयम को धारण करते हैं और व्रत शील या संयम पालन करने से जीव विमान वासी देवों में उत्पन्न होते हैं। जो सम्यग्दर्शन सहित उक्त व्रतादि का पालन करते हैं वे इन्द्र प्रतीन्द्र आदि महञ्जिक देवों में उत्पन्न होते हैं और जो मिध्यादृष्टि उक्त व्रतों को पालन करते हैं, वे निम्न श्र ेणी के वैमानिक देवों में उत्पन्न होते हं अर्थात् संसार परिभ्रमण का मूल कारण मित्यादर्शन है इसके कारण जीव चतुर्गति में नाना प्रकार के दुःख भोगता है । इसलिये मिग्यादर्शन के समान त्रिलोक और त्रिकाल में भी जीव का कोई अन्य शत्रु नहीं है । संसार से कम्पायमान प्राणियों को इम मिथ्यात्व का त्याग करके सम्यग्दर्शन धारण करना चाहिए बिना सम्यग्दर्शन के जोव का संसार से निकास- उद्धार नहीं हो सकता है। भावार्थजो सम्यग्दर्शन के बिना व्रत संयम समिति गुप्ति तपश्चरण, छहों आवश्यकों का पालन, ध्यानाध्ययन चारित्र, परिषहों का सहना, दिगम्बर भेष आदि साधन करना, ये सब संसार के कारण ही समझता पृष्ठ २७ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 चाहिए, बिना सम्यग्दर्शन के ये सब मिथ्या है । इसके बिना किसी भी जीव के सच्चा तत, तप, शोल, 8 संयम सामायिक, प्रतिक्रमण और प्रात्याख्यान इत्यादि नहीं होता। क्योंकि प्रथम सम्यक्त्व पीछे व्रत कार्यकारी है। हत्यत्म हुए बिना तुम फतकना हो है । सम्यग्दृष्टि सदा वस्तु स्वभाव स्वतंत्र निर्पक्ष समझता है और अपनी पर्याय का स्वामी आधारभूत आत्म स्वभाव समझता है, आत्मा में त्रिकाली सामान्य ज्ञान है, वह उसे अपने आप हो विशेष रूप से कार्य करता है अर्थात् सामान्य ज्ञान हो विशेष जान होकर परिणमता है, यह सामान्य ज्ञान का विशेष कार्य अपने स्वभाव के अवलम्बन से ही होता 8 है । यह सभ्यग्दृष्टि का विचार है, क्योंकि स्वभाव का साधन करे सो ही साधु है, ऐसी साधना करने वाला जीव लोकान्तिक देव होता है । विशेष आगम से जानना, सम्यग्दर्शन को महिमा अगम अपार है। यह विष्यष्टि ही भव का अन्त करने वाली है । इस जीद के दिव्यदृष्टि होने के बाद कुछ & काल विलंब हो तो एक, दो या तान भव धरना पड़े, परन्तु वे भव बिगड़े नहीं । इस दिव्य दृष्टि के ४ बल से जोस को नीच गति का बन्ध नहीं होता है, दिव्य दृष्टि मात्र पूर्ण आत्मा को हो स्वीकार 8 करती है । सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान भी दिव्य दृष्टि के आधीन है, आत्म दर्शन, आत्म ज्ञान प्राप्ति का 8 मुख्य उपाय दिव्य दृष्टि हो है, दिव्य दृष्टि से मोक्ष, पर्याय दृष्टि से संसार होता है, ऐसे उत्तम देव & सदा स्वों में विचार करता रहता है कि अनादि से यह प्रारमा स्वभाव सागर को श्रद्धा रुचि प्रतीत & न करके अनन्ते भव धर-धर भव सागर में मग्न रहा। आत्म स्वभाव की रुचि बिना भवसागर से पार & नहीं होता है, ये हो सब शास्त्रों का सार है। दूसरी ढाल में सब से प्रथम चतुर्गति में परिभ्रमण का कारण लिखते हैंचौपाई- ऐसे मिथ्या दृग ज्ञान चरण, वश भ्रमत भरत दुख जन्म मरण । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तात इनको तजिये सुजान, सुन तिन संक्षेप कहूं बखान ॥१॥ अर्थ- यह जीव मिथ्या दर्शन, मिथ्याज्ञान, और मिथ्या चारित्र के वश होकर जन्म मरण के दुःख सहन करता हुआ संसार चक्र में परिभ्रमण करता रहता है, इसलिए हे भव्य जीवो! इन तीनों 8 को जानकर छोड़ देना चाहिए । मैं संक्षेप से उनके स्वरूप का व्याख्यान करता हूँ। सो उसे सुनो। भावार्थ- जीवादि सात तत्वों के स्वरूप का यथार्थ श्रद्धान न करना, सच्चे देवल शास्त्र गुरु के स्वरूप में वास्तविक प्रतंत न करना और अनेकान्तवाद पर विश्वास न लाना, & सो मिथ्या दर्शन कहलाता है । सातों तत्वों का अयथार्थ जानना, एकान्तवादी शास्त्रों का पठन पाठन करना, प्रज्ञान भाव रखना या विषरो माला, दो गिया दान है इन्द्रियों को वश में नहीं करना, विषय कषाय रूप सदा प्रवृत्ति रखना, मन, वचन और काय को नहीं रोकना, 8 जटा जूट धारण करना, मूळ मुंडाना, तिलक छापा लगाना, पंचाग्नि तप तपना, शरीर में भस्म लगाना आदि असदाचरण को मिथ्या चारित्र कहते हैं। इन तीनों के वशीभूत होकर यह जीव पर पदार्थो में इष्ट अनिष्ट बुद्धि धारण कर रागो द्वेषी बनकर कर्म के द्वारा सुख दुःख का अनुभव किया 8 करता है । पर पदार्थों को अपनी इच्छानुसार परिणमता हुआ न देखकर प्राकुल-व्याकुल होता है । मरण समय में हाय-हाय करता हुआ मरण करता है । और दुर्गतियों में जन्म धारण कर अनेक लीला बनाता हुआ कष्टों को सहन किया करता है । भावार्थ--यह मिथ्या दर्शन, मिथ्या ज्ञान और मिथ्या पृष्ठ चारित्र, इन तीनों के समुदाय को सामान्यत: मिथ्यात्व के नाम से पुकारते हैं । यह मिथ्यात्व दो प्रकार 8 २९ है । अगृहीत मिथ्यात्व और गृहीत मिथ्यात्व । जो मिथ्यात्य अनादिकार से जीव के साथ चला आ 3 ल रहा है, उसे अगृहीत या निसर्गज मिथ्यात्व कहते हैं । जो मिथ्यात्व इस भव में जीव के द्वारा ग्रहण Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 किया जाता है उसे गृहीत मिथ्यात्व कहते हैं । इन दोनों ही प्रकार के मिथ्यात्वों में तीन-तीन भेद हैं । 8 अगृहीत मिथ्यावर्शन, अगृहीत मिथ्याज्ञान और अगृहीत मिथ्याचारित्र तथा गृहीत मिथ्यादर्शन, 8 गृहीत मिथ्याज्ञान और गृहीत मिथ्याचारित्र। अब प्रथम अगृहोस मिथ्यादर्शन का वर्णन लिखते हैंपद्धरि छंद-जीवादि प्रयोजनभूत तत्व, सरधे तिन मांहि विपर्ययत्व । चेतन को है उपयोग रूप,विन मूरति चिनमूरति अनूप ॥२॥ पुद्गल नभ धर्म अधर्म काल, इनसे न्यारी है जीव चाल। ताको न जान विपरीत मान, करि कर देह में निज पिछान ॥३॥ मैं सुखी दुखी, मैं रंक राय, भेरोधन गृह गोधन प्रभाव । मेरे सुत तिय मैं सबल दोन, बे रूप सभग मूरख प्रवीन ॥४॥ अर्थ--जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, मिर्जरा, और मोक्ष थे सात तत्त्व आत्मा के लिये प्रयोजनभूत हैं । अर्थात् इनका जानना अत्यन्त आवश्यक है, बिना इनके जाने किसी को भी अपने -रूप का भान नहीं हो सकता कि मैं कौन हूँ कहां से आया हूं और कहां जाना है, मिथ्यावृष्टि जीव मिथ्यादर्शन के प्रभाव से इन सातों तत्त्वों के स्वरूप का विपरीत श्रद्धान करता है, जैसे आत्मा का स्वरूप उपयोगमयी है, अमूर्त है, चिनमूर्ति है और अनुपम है ! पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और 8 काल, ये जो पांच अजीव तत्त्व के भेद हैं, उनसे जीव का स्वभाव न्यारा है, बिल्कुल भिन्न है । इस पर यथार्थ बात को न समझकर और विपरीत मानकर शरीर में आत्मा को पहिचान करता है, आत्मा ४ को अलग नहीं समझता है और उसी मिथ्यादर्शन के प्रभाव से कहता है कि मैं सुखी हूं, मैं दुःखी हूं, 2 मैं रंक हूँ, मैं राजा हूं, यह मेरा धन है, यह मेरा घर है, यह गाय भैत मेरी हैं, यह मेरा प्रभाव और Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐश्वर्म है, यह मेरे पुत्र हैं, यह मेरी स्त्री है, मैं सबल हूं, मैं निर्जल हूं, मैं मुरूप हूं, मैं कुरुप हूं, मैं पूर्ण & हूं और मैं बुद्धिमान हूं । कहने का सारांश यह है कि कर्मोदय से जब जिस प्रकार को अवस्था जीव 8 8 को प्राप्त होती है, मिथ्यावृष्टि जीव उसे ही अपने आत्मा का स्वरूप समझकर वैसा मानने लगता है & और उसी में हो तन्मय हो जाता है, यही जीव तत्त्व का विपरीत श्रद्धान है । भावार्थ-जो सात 8 & तत्त्व ऊपर कहे गये हैं, उनका स्वरूप इस प्रकार है---चेतना लक्षण या ज्ञान दर्शन युक्त पदार्थों को 8 8 जीव कहते हैं यह जीव अरूपी अमूत्तिक है, क्योंकि इसमें रूप, रस, गंध और स्पर्श ये पुद्गल के 8 कोई भी गुण नहीं पाये जाते हैं । इसी कारण जीय आँखों से न दिखाई देता है और न अन्य 8 इन्द्रियों से ही जाना जाता है, अतएव इसे अतेन्द्रिय भी कहते हैं । जिसमें चेतना नहीं पाई जाती है उसे अजीव तत्त्व कहते हैं । इसके पांच भेव हैं- पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, और काल । जिसमें रूप रस मन्ष और स्पर्श पाया जाता है, उसे पुद्गल कहते हैं । इन्द्रियों के द्वारा दृष्टि गोचर होने वाला समस्त जड़ पदार्थ पुद्गल है । जीव और पुद्गल के चलने में जो सहायक होता है, ऐसा त्रैलोक्यव्यापी सूक्ष्म अरूपी पदार्थ धर्म द्रव्य कहलाता है । इसी प्रकार जीत्र और पुद्गल के ठहराने में जो सहायक होता है, ऐसा त्रैलोक्य व्यापी सूक्ष्म अरूपी पदार्थ अधर्म द्रव्य कहलाता है । सर्व द्रव्यों को अपने भीतर अबकाश देने वाला द्रव्य आकाश द्रव्य कहलाता है । और समस्त पदार्थों के परिवर्तन में जो सहायता देता है, उसे काल द्रव्य कहते हैं । इन पांचों द्रव्यों के स्वरूप को यथार्थ जानना अजीव तत्व है । मन, वचन और काय को चंचलता से जो कर्भ पुद्गल आत्मा के भोलर पाते हैं, उसे आस्त्रय तत्त्व कहते हैं । इस प्रकार आये हुए कर्म पुद्गल आत्मा के प्रवेशों के साथ & मिलकर एकमेक रूप हो बन्ध जाते हैं उसे बन्ध तत्व कहते हैं। पूर्व संचित कर्मों के एक देश क्षय Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होना या झड़ने को निर्जरा तत्त्व कहते हैं। और आत्मा से सर्व कर्मों के अत्यन्त क्षय जाने को मी तत्व है। इन सातों तत्वों का प्रयोजनभूत यह है कि जीव के संसार निवास के प्रधान कारण आस्नव और बंध तत्थ है । इनके जाने बिना संसार के परित्याग का प्रयत्न हो कैसे किया जा सकता है। इस लिए इन दोनों तत्वों की उपयोगिता सिद्ध है । आत्मा का प्रधान लक्ष्य मोक्ष पाना है, इसलिये उसका जानना भी आवश्यक है और उसके प्रधान कारण संबर और निर्जरा है, क्योंकि नवीन कर्मों का निरोध और पूर्व संचित कर्मों का क्षय हुए बिना मोक्ष संभव नहीं है । इस लिये संवर, निर्जरा और मोक्ष इन तीन तत्थों का जानना प्रयोजनभूत । संसार में जीव का निर्वाह अजीव के बिना संभव नहीं है, अतएव श्रजीव तत्व का जानना भी श्रावश्यक है । इस प्रकार उपयुक्त सातों तत्व जीव के लिए प्रयोजनभूत माने गये हैं। यह जीव मिथ्यात्व कर्म के उदय से ऊपर बतलाये गये सातों तत्वों का विपरीत श्रद्धान करता है, वह मिथ्यादृष्टि जोव है । वह किस प्रकार करता है : -- पद्धरि छंद - तन उपजत अपनी उपज जान, तन नशत आपको नाश मान । रागादि प्रगट जे दुःख दैन, तिन ही को संवत गिनहि चैन ||५|| शुभ अशुभ बंध के फल मझार, रति अरति करे निजपद विसार । आतम हित हेतु विराग ज्ञान, ते लखँ आपको कष्ट दान || ६ || रोकी न चाह निज शक्ति खोय, शिवरूप निराकुलता न जोय । याही प्रतीत जुत कछुक ज्ञान, सो दुःखदायक अज्ञान जान ||७|| पृष्ठ ३२ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्या दर्शन के प्रभाव से यह जोव शरीर के जन्म को अपना जन्म जानता है और शरीर के नाश को अपना मरण मानता है। यह अजीव तत्त्व का विपरीत श्रद्वान है क्योंकि जन्म मरण शरीर के होता है, शरीर अजीब तस्व है आत्मा नहीं। जिस पदार्थ का जैसा स्वरूप है उसे वैसा न मानना ही उसका विपरीत श्रद्धान कहलाता है । जो रागद्वेबादि स्पष्ट रूप से जोव को दुःख देने वाले हैं उनका ही सेवन करता हुआ यह जीव सानन्द का अनुभव करता है । यह आलव तत्व का विपरीत श्रद्धान है, क्योंकि जो वस्तु यथार्थ में दुःखदायक है उसे वैसा ही समझना उसका यथार्थ श्रद्धान कहलाता है । पर यहां कर्मास्रव के प्रधान और दुःखदायक कारण रागद्वेष को सुख का साधन समझ कर अपनाया गया है यही आसव तस्व का मिथ्या दृष्टि जीव अपने आपके शुद्ध स्वरूप को भूल कर शुभ कर्मों के बंध के हर्ष मानता है और अशुभ कर्मों के बंध को फल प्राप्ति के समय दुःख मानता है, बंध तत्व का विपरीत श्रद्धान है, क्योंकि जो बंध आत्मा को संसार समुद्र में डुबोने वाला है, उसी शुभ बंध के फल में यह हर्ष मानता है। इसी प्रकार आत्मा के हित कारण में वैराग्य और ज्ञान है उन्हें यह मिथ्या-दृष्टि जीव अपने आपको कष्टदायक मानता है । यह संवर तत्त्व' का विपरीत श्रद्धान है, क्योंकि संवर कर्मों के आने को रोकने में प्रधान कारस्य । वैराग्य के संयोग से आत्मा में एक ऐसी व्यि शक्ति जागृत हो जाती है जिसके कारण कर्मों का आना स्वयं रुक जाता है । इस प्रकार संदर के प्रधान कारण ज्ञान और वैराग्य को दुःखदायक मानना ही संवर तत्व का विपरीत श्रद्धान है । मिथ्या दृष्टि जीव अपनी आत्म शक्ति को खोकर नष्ट कर या भूलकर, दिन रात विषयों में दौड़ने वाली इच्छा शक्ति को, नाना प्रकार की अभिलाषाओं को नहीं रोकता है, यह निर्जरा तत्त्व का विपरीत श्रद्धान है। क्योंकि इच्छाओं के रोकने विपरीत श्रद्धान है । फल की प्राप्ति में तो अरति करता है यह XXXXXXXXXXXX 65 ३३ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को तप कहते हैं, और तप से निर्जरा होती है । परन्तु मिथ्यादृष्टि जीव अनादि काल से लगे हुए मिथ्यात्व के प्रभाव से अपनो अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन आदि आत्मिक शक्तियों को भूल जाता है, उसे अपने आत्मिक अनन्त सुख का भान नहीं रहता है और वह पर पदार्थों में ही आनन्द मानकर रात दिन उनकी प्राप्ति के लिए उद्योगी रहता है तथा तृष्णा नागनी की लहर में सर्व काल हाय २ faar करता है । यह निर्जरा तत्व के यथार्थ स्वरूप को न समझने का ही फल है। मोक्ष को निराकुलता रूप माना गया है । क्योंकि निराकुलता हो परम आनंददायक सुख है । किन्तु मिथ्यादृष्टि जीव इस सर्वोत्कृष्ट पद की प्राप्ति के लिये भी प्रयत्न नहीं करता है, जो कि आत्मा का असली स्वरूप है । यह मिय्यात्व के कारण इस मोक्ष रूप निज स्वरूप को भी 'पर' मानता है और यही मोक्ष तत्व का विपरीत श्रद्धा है। ऐसे उक्त तत्व को मिथ्यादृष्टि जीव विपरीत श्रद्धान करता है। इस प्रकार के प्रार्थ श्रद्धान को अगृहीत मिथ्यादर्शन कहा गया है, क्योंकि यह श्रद्धान इस भव में उसने किसी गुरु आदिक से बुद्धि पूर्वक नहीं ग्रहण किया है, किन्तु अनादि काल से हो लगा हुआ चला आ रहा है इसी कारण इसका दूसरा नाम निसर्गन मिथ्यात्व भी हैं । सातों तस्वों को विपरीत श्रद्धा के साथ साथ जीव के जो कुछ ज्ञान होता है वह अगृहीत मिथ्या ज्ञान कहलाता है । क्योंकि यह मिथ्या ज्ञान भी इस जन्म में किसी गुरू आदि से ग्रहण नहीं किया गया है, किन्तु अनादि काल से ही जीव के साथ चला आ रहा है । इस मिथ्या ज्ञान को अक्लेश दान जानना चाहिये, वास्तव में यह ज्ञान नहीं, किन्तु अज्ञान कुज्ञान ही है। अब अगृहीत मिथ्या चारित्र को लिखते हैं पद्धरिछंद - इन जुत बिषयनि में जो प्रवृत्त, ताको जानो मिथ्या चरित्त । या मिथ्यात्वादि निसर्ग जंह, अब जे गृहीत सुनिये सु तेह ॥ ८६ ॥ पृष्ठ १३४ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छह ढाला अर्थ - अगृहीत मिथ्यादर्शन और अगृहीत मिथ्या ज्ञान के साथ पांचों इन्द्रियों के विषयों में जो अनादि काल से प्रवृत्ति चली श्रा रही है, उसे अगृहीत मिथ्या चारित्र कहते हैं । इस प्रकार अगृहीत मिथ्यादर्शनादि का वर्णन लिखा, अब आगे गृहोत मिथ्यादर्शनादि का वर्णन किया जाता है। भावार्थ - विषयरूप कृषि हैं, वह सब मिथ्या चारित्र हैं। संसारी जीव की अनादि काल से ही इन विषय कषायों में अत्यन्त आशक्ति लिए हुये प्रवृत्ति पाई जाती है, यहां तक कि एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय जीवों तक में विषय कषाय की प्रवृत्ति स्पष्ट रूप से देखने में आती है। आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इन चारों संज्ञाओं की प्रवृत्ति एकेन्द्रियों से लेकर पंचेद्रियों तक निराबाध रूप से पाई जाती है । मिध्यादृष्टि जीव को इस अनादि कालीन प्रवृत्तियों को ही यहां अगृहीत मिथ्याचारित्र कहा गया है। क्योंकि इन्द्रिय कषाय रूप प्रवृत्ति को किसी भी जीव ने इस जन्म में नवीन ग्रहण नहीं किया है, किन्तु सनातन से ही ऐसी प्रवृत्ति पाई जाती है। इस प्रकार यहां तक निसर्गज या गृहोत मिथ्या वर्शन, मिथ्या ज्ञान, और मिथ्या चारित्र का वर्णन किया गया, अब आगे गृहीत मिथ्या दर्शन, गृहोत मिथ्या ज्ञान और मिथ्या चारित्र का वर्णन किया जाता है। उनमें प्रथम गृहोत मिथ्या दर्शन का स्वरूप लिखते हैं । सो हे भव्य ! सुनो पद्धरिछंद - जो कुगुरु कुदेव कुधर्म सेव, पोषै चिर दर्शन मोह एव । अंतर रागादिक धरै जेह, बाहर धन अंबरतें सनेह ॥ ६ ॥ धारै कुलिंग लहि महतभाव, तं कुगुरु जनम-जल उपल- नाव । जे राग रोष मल करि मलीन, वनिता गदादि जुत चिन्ह चीन ॥ १० ॥ ते हैं कुदेव तिनकी जु सेव, शठ करत न तिन भव भ्रमण छेव । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाल रागादि भाव हिंसा समेत, दवित त्रस थावर मरन खेत ॥११॥ जे क्रिया तिन्हें जानहु कुधर्म, तिन सरधं जीव लहै अशर्म । याकौं गृहीत मिथ्यात्व जान, अब सुन गृहीत जो है कुज्ञान ॥१२॥ अर्थ-कुगुरु, कुदेव और कुधर्म की सेवा चाकरो चिरकाल के लिए बनि मोहनीय कर्म को पुष्ट करती है, ये हो सेवा उपासना करना हो गृहीत मिथ्यादर्शन है। अब आगे इन तीनों का क्रमशः ४ स्वरूप कहते हैं । जो अन्तरंग में राग द्वेष मोहादि धारण करते हैं और वहिरंग धन, वस्त्र घर संप हादि पनिगह से शुमन हैं, जो अपना महंत भावपना प्रकट करने के लिए जटा, तिलक नाना प्रकार & को मुद्रा धारण करते हैं, उन्हें कुगुरु जानना चाहिए । ऐसे कुगुरु संसार रूपी समुद्र से पार उतारने के लिए पत्थर को नाव समान हैं। पत्थर की नाद न रवयं तैर कर पार हो सकती है और न बैठने वाले & जीवों को पार लगा सकतो है। ऐसे ही कुगुरु न तो संसार समुद्र से स्वयं पार हो सकते हैं और न & अपने भक्तों को हो पार लगा सकते हैं । आगे कुवेव का स्वरूप लिखते हैं । जो देवता राग-द्वेष रूपी महामंल से लिप्त हैं, मलीन हैं, स्त्रियों को साथ लिये फिरते हैं। शंक, चक्र, गदा, पद्य नाना प्रकार के अस्त्र, बस्त्र और शस्त्रों को धारण करते हैं, उन्हें कुदेव जानना चाहिए । जो मुग्ध जीव ऐसे & छद्मस्थ ज्ञानी को देव मानकर सेवा-उपासना आदि करता है, उस आत्मा के संसार-परिभ्रमण का 8 अन्त कभी नहीं आ सकता है । क्योंकि जो स्वयं संसार-समुद्र में चक्कर लगा रहे हैं, वे दूसरों को कैसे उतार सकते है। अब आगे कुधर्म का स्वरूप कहते हैं-जो क्रियाएँ राग द्वेष आदि भाव हिंसा से युक्त 8 है। जिनके करने में त्रप्त स्थावर जीवों को द्रव्य हिंसा होती है, उन क्रियाओं को कुधर्म कहते हैं । & क्योंकि द्रव्य-भाव हिंसा से व्याप्त कुधर्म का श्रद्धान करने से जीव दु:खों को ही पाता है। इस प्रकार Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ उक्त कुगुरु, कुदेव और कुधर्म की सेवा करने को गृहीत मिथ्या वर्शन जानना चाहिये, क्योंकि यह & मिथ्यात्व इसी जन्म में ग्रहण किया गया है । भावार्थ-कुधर्म के स्वरूप में द्रव्य-भाव हिंसा का नाम है छह आया है, उसका विशेष खुलासा इस प्रकार है :-प्रमत्त योग से प्राणों के घात को हिंसा कहते हैं। वाला यह हिता दो प्रकार को होता है। द्रव्य हिसा और भाव हिंसा । किसी प्राणी को मारने का जो भाव ~ मन में जागृत होता है, उसे भाव हिंसा कहते हैं । पर प्राणी का घात चाहे न हो, पर ज्यों ही हमारे है भाव राग द्वेषादि से कलुषित होकर दूसरे को मारने को होते हैं, वैसे ही हम भाव हिंसा के भागी बन जाते हैं । स्व पर प्राणी के द्रव्य शरीर के घात को द्रव्य हिंसा कहते हैं। अन्य मतावलम्बियों द्वारा धर्म कार्य रूप से प्रतिपादित यज्ञ प्रचुर परिणाम में द्रव्य और भाव हिंसा होती है। इसलिए यज्ञादिकों का करना कुधर्म बतलाया गया है । सच्चा धर्म तो यह है जिसके करने पर किसी भी प्राणी को रंवमात्र भी कष्ट न हो । सच्चा गुरु वह है, जो विषयों की आशा तृष्णा से रहित हो, सदा ज्ञान, ध्यान और तप में लवलीन रहता हो । इसी प्रकार सच्चा देव वह है जिसने राग द्वेष काम मोह पर पूरी तौर से विजय कर लिया हो और धोतराग पद प्राप्त कर लिया हो, अज्ञान भाव का सर्वथा नाश कर के सर्वज्ञ बन गया है और जो शणो मात्र के सच्चे हित उपदेशक हैं । इस प्रकार के लक्षणों से जो रहित हैं, ऐसे देव, गुरु और धर्म को मिथ्या हो जानना चाहिए । इन कुगुरु, कुवेव और कुधर्म को सेवा आराधना को गृहोत मिथ्यादर्शन कहा गया है । अब आगे गृहीत मिथ्या ज्ञान का स्वरूप लिखते हैं :पद्धरि छंद -एकांतवाद दूषित समस्त, विषयादिक पोषक अप्रशस्त । रागादि रचित श्रुत को अभ्यास, सो है कुबोध बहु देन त्रास॥१३॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-जो शास्त्र एकान्तवाद से दूषित हैं, पंचेन्द्रियों के विषयों के पोषक हैं, हिंसा, झूठ, 8 चोरी और व्यभिचार आघि निद्य कार्यों के पोषक हैं, ऐसे रागादिक सहित खोटे कपोल कल्पित शास्त्रों का अभ्यास करना, पढ़ना पढ़ाना, सो गृहीत मिथ्या ज्ञान हैं और यह बहुत दुःखों का देने दालाल वाला है । भावार्थ-प्रत्येक वस्तु का स्वरूप अनेक धमों से युक्त है । प्रत्येक पदार्थ द्रव्य अपेक्षा नित्य है, पर्याय अपेक्षा अनित्य है । परन्तु इस यथार्य रहस्य को न समझकर यदि अज्ञानियों ने पदार्थों को सर्वथा नित्य हो माना है, तो बौद्ध ने सर्वथा अनित्य ही माना है, इस प्रकार के एक धर्ममय पदार्थ के कथन करने को एकान्तयाव कहते हैं । इस एकान्तवाद के प्ररूपक शास्त्रों को कुशास्त्र कहा गया है । & इस के अतिरिक्त जो बातें विषयों को पोषण करने वाली हैं, जीवों में भय, कामेंद्रिक, हिंसा, अहंकार, राग द्वेष आदि जागृत करने वाली हैं । उनका जो शास्त्र प्रतिपादन करते हैं, झूठे शब्दों से भरे हुए हैं, झूठी गप्पों से संचित हैं, ऐसे सब शास्त्र कुशास्त्र जानने चाहिएँ । तथा जो शास्त्र इस लोक, पर लोक, प्रात्मा, पुण्य, पाप, स्वर्ग, नरक आदि का ही अभाव बतलाते हैं, वे भी कुशास्त्र है। ऐसे कुशास्त्रों का पढ़ना, पढ़ाना, सुनना, सुनाना, उपदेश देना प्रावि सब गृहीत मिथ्याज्ञान माना गया है। इस मिथ्याज्ञान के प्रभाव से अनेकों जन्मों में करोड़ों कष्ट सहन करने पड़ते हैं । इसलिए इन शास्त्रों के पठन पाठन से दूर ही रहना भव्य जीवों के लिए श्रेयस्कर है। अब आगे मिश्या चारित्र का स्वरूप लिखते हैं :पद्धरि छद-जो ख्याति लाभ पूजादि चाह, धरि करत विविधविध देह दाह । आतम अनात्म के ज्ञानहीन, जे ज करनी तन करन छीन ॥१४॥ ते सब मिथ्याचारित्र त्याग, अब आतम के हित पंथ लाग। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाजाल मा को देवस्थान, अब 'दौलत निज आतम सुपाग॥१५॥ ___ अर्थ---जो आत्मा स्व और अनात्मा पर के ज्ञान से रहित होकर अपनी ख्याति, यश, कीर्ति छह & अर्थ, लाभ और पूजा प्रतिष्ठा आदि की इच्छा को धारण करके शरीर को जलाने वाली नाना प्रकार वालाल & की क्रियाओं को करते हैं, जिनसे केवल शरीर ही क्षीण होता है, आत्मा का कोई भी उपकार नहीं होता, उन सब क्रियाओं को गृहीत मिथ्या चारित्र जानना चाहिये । अब संबोधन करते हुए कहते हैं कि हे आत्मन् ! अब तू इस जगत् जाल के परिभ्रमण को त्याग दे और अपनी आत्मा के हित के & लिए मोक्ष मार्ग में लगजा और अपने आप में रमजा, यही सब कथन का तात्पर्य है । भावार्थ मिथ्या दर्शन और मिथ्या ज्ञान विद्यमान रहते हुए मनुष्य चारित्र के नाम पर जो कुछ भी धारण करता है, अत, नियम, उपवास आदि करता है, उसे गृहीत मिथ्याचारित्र कहते हैं । जो कि केवल शरीर को १ कष्ट पहुंचाने वालो क्रियाएँ हैं तथा मान, प्रतिष्ठा, यश, कामना, धन, लाभ आदि को इच्छा से जो की जाती हैं जिसमें त्रस स्थावर जीयों को हिंसा होती है । उनसे तो आत्मा हित की कल्पना ही नहीं की जा सकती है, ऐसी क्रियाओं को मिथ्या चारित्र कहा है । पंचाग्नि तप तपने में अगणित अस 8 स्थावर जोधों की हिसा होती है और जटा रखने में जू वगैरह उत्पन्न होती है । शरीर को राख लगाने 8 से या तिलक, मुद्रा धारण करने से मान प्रतिष्ठा आवि की भावना स्पष्ट हो दृष्टिगोचर होती है । नाना & आसन, मृगछाला से भी भाडंबर ही होता है। कोई आत्म का लाभ नहीं होता, इसलिए आत्मज्ञ पुरुषों & ने मिथ्या चारित्र कहा है । यथार्थ में जब तक मनुष्यों को स्व और परका भान नहीं है कि मैं कौन हूं & पर पदार्थ क्या है, मेरा और उनका परस्पर में क्या सम्बन्ध है यह ज्ञान नहीं होने पर पथार्ग लाभ & नहीं होता केवल शरोर को हो पीड़ा पहुंचती है। इस कथन का सारांश यह है कि गृहीत और Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगृहीत दोनों ही प्रकार के मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और अनन्त दुःखों का कारण मिथ्या चारित्र है © इनको छोड़ना चाहिए और सम्यग्दर्शन सम्यक्ज्ञान और सम्पचारित्र को धारण करना चाहिये, जिससे 8 कि आत्मा अपने यथार्थ स्वरूप को प्राप्त कर अनन्त सुखी धन, संसार परिभ्रमण से मुक्त हो सके। काला अर्थात् जो मनुष्य देव मूढता, गुरु मूढता और लोक मूढता इन तीनों से रहित है, तथा मापा, मिथ्या 8 और निशन, इन तीनों शाल्यों से रहित है, और राग, द्वेष और मोह इन तीनों दोषों से रहित है, तीनों मन, वचन और काय दंडों से रहित है, और ऋद्धियों का मद आदि तीन गर्यो से रहित है, और सम्यग्दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र से भूषित है, वेहो साधु मोक्ष तक पहुंचने वाले मार्ग के 8 स्वामी होते हैं। तोसरी ढाल में संसार परिभ्रमण से छुटने और मोक्ष पाने का उपाय बतलाते हैंनरेंद्रछंद (जोगीरासा)-आतम को हित है सुख, सो सुख आकुलता बिन कहिये। इस आकुलता शिव मांहि न तातें, शिवमग लाग्यो चहिये ॥ सम्यकदर्शन ज्ञान चरण शिवमग सो दुविध विचारो। जो सत्यारथ रूप सु निश्चय, कारण सो व्यवहारो ॥१॥ __ अर्थ-आत्मा का हित सुख है और वह सुख आकुलता के बिना किया गया है । आकुलता मोक्ष में नहीं है, इसलिए प्रात्म हितषियों को मोक्ष मार्ग में लगना चाहिये । एक निश्चय मोक्ष पष्ट & मार्ग और दूसरा घ्यवहार मोक्ष मार्ग । जो यथार्थ स्वरूप है, वह निश्चय मोक्ष मार्ग है, और जो 80 & निश्चय मोक्षमार्ग का कारण है, वह व्यवहार मोक्ष मार्ग है। भावार्थ-संसार के प्राणीमात्र आत्मा ४ & में सुख चाहते हैं, सरचा मुख बही है, जिसमें लेशमात्र भी आकुलता नहीं है । संसार के इन्द्रिय ४ . Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाला & जनित सुख सर्वत्र आकुलता से भरे हुए विखलाई देते हैं । इस लिए उसे सच्चा सुख नहीं माना गया & है। आकुलता तो एक मात्र मोक्ष में नहीं है। इसलिए सुखमात्र के इच्छुक भव्यजीवों को मोक्ष मार्ग पर चलने का उपदेश दिया है । सन्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र को मोक्ष मार्ग कहा गया ४ है । इन तीनों का कथन आगे कहेंगे । यहां पर जो एकमात्र शुद्ध आत्मा के आश्रित पर के संग से सर्वथा रहित है, वह निश्चय मोक्ष मार्ग है । जो निश्चय मोक्ष मार्ग का कारण है वह व्यवहार मोक्ष मार्ग है । इनका खुलासा लिखते हैंजोगरासा-पर-द्रव्यनितें भिन्न आपमें रूचि, सम्यक्त्व मला है । आप रूप को जान पनो, सो सम्यक ज्ञान कला है । आप रूप में लीन रहे थिर, सम्यक् चारित सोई । अब व्यवहार मोक्ष मग सुनिये हेतु नियत को होई ॥२॥ अर्थ-पुद्गल आदि परद्रव्यों से अपने आपको सर्वथा भिन्न समझकर अपनी आत्मा में जो दृढ़ रूचि, प्रतीति, श्रद्धान या विश्वास होना, सो निश्चय सम्यग्दर्शन है । अपने आत्म स्वरूप का यथार्थ जानना सो निश्चय सम्यग्ज्ञान है। अपनी आत्मा में लीन होकर स्थिर हो जाना, सो निश्चय ४ सम्यक चारित्र है। इस प्रकार मोक्ष मार्गका वर्णन किया। अब व्यवहार मोक्ष मार्ग लिखते हैं । भावार्थ -भेद रूप लत्रय को व्यवहार मोक्ष मार्ग और अभेद रूप रत्नत्रय को निश्चय मोक्ष मार्ग कहते हैं । भेद रूप रत्नत्रय साधन या कारण है । और अमेव रूप रत्नत्रय उसका साध्य या कार्य है। ॐ सात तत्त्वों के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं, वे सात तत्व ये हैं, उनका यह स्वरूप है। इत्यादि वचनात्मक कथन को भेद रत्नत्रय या व्यवहार मोक्षमार्ग जानना चाहिये । सात तत्त्वों का स्वरूप Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 जानने से जो आत्मा का बोध उत्पन्न होता है, उसमें जो दृढ़ श्रद्धान जागृत होकर, उसमें जो आत्मा को तन्मयता हो जाती है, उसे अभेद रत्नत्रय या निश्चय मोक्षमार्ग कहते हैं। यह अवस्था वचन व्यवहार से परे होती है इस लिए इसको अभेद रत्नत्रय कहते हैं अर्थात् आत्मा का निश्चय ही सम्धढाला ग्दर्शन है । आत्मा का यथार्थ ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है और आत्मा में स्थिर होना ही सम्यक् चारित्र है। इस प्रकार के अभेद रत्नत्रय से कर्मों का बन्ध कसे हो सकता है ? अर्थात नहीं हो सकता है। यथार्थ में व्यवहार मोकमार्ग को जाने बिना निश्चय मोक्षमार्ग की प्राप्ति नहीं हो सकती है। इसलिए व्यवहार मोक्षमार्ग को निश्चय मोक्षमार्ग का कारण कहा है । अब व्यवहार सम्यग्दर्शम का स्वरूप लिखते हैंजोगीरासा-जीव अजीव तत्व अरू आस्ब, बधा संवर जानो । निर्जर पक्ष कहे जिन तिनको, ज्योंको त्यों सरधानो ॥ है सोई समकित व्यवहारी, अब इन रुप बखानो । तिनको सन सामान्य विशेष, दढ़ प्रतीत उर आनो ॥३॥ __ अर्थ-अहंन्त भगवान् ने जीव, अजीथ, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष, इन सात ४ तत्त्वों का जैसा स्वरूप कहा है, उनका ज्यों का त्यों श्रद्धान करना, सो व्यवहार सम्यग्दर्शन है । अब आगे इन सातों तत्वों का सामान्य रूप से और विस्तार रूप से व्याख्यान किया जाता है, सो उसे ४ & सुनो और हृदय में विश्वास ताओ ? अब प्रथम जीव तत्व का वर्णन करते हैं:जोगीरासा-बहिरातम अंतर आतम परमातम जीव विधा है । देह जीव को एक गिन, बहिरातम तत्व मुधा है ॥ म. सायनात निविधि के अंतर मातमज्ञानी । . Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छह ढाला द्विविध संग बिन शुद्ध उपयोगी, मुनि उत्तम निज ध्यानी ॥ ४ ॥ मध्यम अन्तर आतम हैं जे देषव्यती. आगारी । जघन कहे अविरत ममदृष्टी तीनों शिवमग चारी ॥ सकल निकल परमातम द्वैविधि तिनमें घाति निवारी । श्री अरहंत सकल परमातम लोकालोक निहारी ॥ ५ ॥ ज्ञान शरीरी त्रिविध कर्मफल वर्जित सिद्ध महंता । ते हैं निकल अमल परमात्म, मोगें शर्म अनंता ॥ बहिरात मया देय जानि तजि, अंतर आतम हू । परमातम को ध्यान निरंतर, जो नित आनंद पूजै ॥ ६ ॥ अर्थ- जीव तोन प्रकार के होते हैं - वहिरात्मा, अन्तर आत्मा और परमात्मा । इनमें से जो देह और जीव को एक अभिन्न मानता है, तत्वों के स्वरूप को यथार्थ नहीं जानता है, मिथ्या--- दर्शन से संयुक्त है, अनन्तानुबंधी क्रोध मान माया और लोभ से आविष्ट है वह वहिरात्मा है। जो जिन प्ररूपित तत्त्वों के जानकार हैं, देह और जीव के भेद को जानते हैं, आठ प्रकार के मदों को जीतने वाले हैं, वे अन्तरात्मा कहलाते हैं । ऐसे ज्ञानी अन्तर आत्मा, उत्तम, मध्यम और जघन्य के भेद से तोन प्रकार हैं। इनमें चौदह प्रकार के अन्तरंग और दश प्रकार के वहिरंग परिग्रह से रहित हैं, और शुद्धोपयोगी हैं, आत्मा का निरन्तर ध्यान करने वाले हैं, ऐसे मुनिराज उत्तम अंतर आत्मा हैं । जो अनगारी या श्रावक व्रतिनों के धारण करने वाली आगारी गृहस्थ हैं, ग्यारह प्रतिमाओं के धारक हैं, वे मध्यम अंतर आत्मा हैं। जिनेन्द्र चरणों में अनुरक्त अविरत सम्यदृष्टि जघन्य अंतर आत्मा Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाला & है, ये तीनों हो प्रकार के अन्तर आत्मा मोक्ष मार्ग पर चलने वाले हैं । जो शुद्ध आत्म स्वरूप को प्राप्त कर चुके हैं, उन्हें परमात्मा कहते हैं । वे परमात्मा दो प्रकार के हैं एक सकल परमात्मा और 8 दूसरा निकल परमात्मा । जिन्होंने चार घातियां को को नाश कर दिया है और जो केवल ज्ञान को प्राप्त कर लोक और अलोक के समस्त पदार्थों के ज्ञाता दृष्टा हैं, ऐसे समवशरणादि बहिरंग लक्ष्मी ओर अन्तरंग अनन्त चतुष्टय रूप लक्ष्मी के धारक श्री अरहत भगवान् सकल परमात्मा हैं। जो ज्ञानावरणादि द्रव्य कार्य. जागोजाति मान कई नौर शरीरादि नो कर्म तव्य इन तीनों प्रकार के कर्मरूप मल से रहित है । ज्ञान स्वरूप शरीर को धारण करते हैं अथात् अशरीर हैं। लोकातिशायो महान् सिद्ध पत्र को प्राप्त कर चुके हैं ऐसे सिद्ध परमेष्ठी निकल परमात्मा हैं, जो अनन्तानन्त काल तक अनन्त सुख को भोगे है, इस प्रकार के जीवों के तीनों भेदों का वर्णन कर भव्य जीवों को तथा अपनो प्रात्मा को संबोधन करते हुए कहते हैं कि इनमें से वहिरात्मपने को हेय जान करके छोड़ दो। और 8 अन्तर आत्मा रूप होकर के निरंतर परमात्मा का ध्यान करो, जिससे निरंतर अविनाशी आनन्द की प्राप्ति हो। भावार्थ-मध्यम प्रात्मा के स्वरूप में देशवती अनगारी या देशव्रती आगारो इस प्रकार के दो पाठ मुद्रित व अमद्रित प्रतियों में दष्टिगोचर होते हैं । तथा जिन वचनों में अनुरक्त मंद कषायो और महापराक्रमी है, श्रावक के गुणों से संयुक्त है, ऐसे श्रावक और प्रमत्त विरत साधु रे मध्यम अन्तर आत्मा है । जो पंच महावतों से युक्त है, नित्य धर्म ध्यान में तप में और शुक्ल ध्यान में & विद्यमान है, और सकल प्रसादों के जीतने वाले, अष्टादश सहस्र शील के प्राचरण करने वाले, साढ़े 8. संतीस हजार प्रमाद के दोष से रहित, चौरासी लक्ष उत्तर गुण या अठाईस मूल गुरण के धारक निरंतर आत्म तत्त्व में लोन सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र की एकता करने वाले सदा 8 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छह ४ हाला & निजानन्द रस के पानी उत्कृष्ट अन्तर आत्मा ७ गुण स्थान से लेकर १२ गुण स्थान तक हैं। 8 दो प्रकार के संग बिन, शुद्ध उपयोगी मुनि उत्तम निज ध्यानी । इस वचन से यह सारांश निकलता है ले कि सातवें गुण स्थान से लेकर बारहवें पुरण स्थान तक के साधु तो उत्तम अन्तरात्मा की श्रेणी में 8 आते हैं और पांचवें गुण स्थानवी श्रावक तथा छठे प्रमत्त विरत गुणस्थान वाले मध्यम अन्तर आत्मा हैं । अब आगे अजीव तत्व लिखते हैं चेतनता बिन सो अजीव हैं, पंच भेद ताके हैं । पुद्गल पंच वरन, रसपन गंध दुफरस वसू जाके हैं । जिय पुद्गल को चलन सहाई, धर्मद्रव्य अनरूपी । तिष्ठत होय अधर्म सहाई, जिन, विन पूर्ति निरुती ॥७॥ सकल द्रव्य को वास जासमें, सो आकाश पिछानों । नियत वरतना निशिदिन सो व्यवहारकाल परिमानो ॥ अर्थ-जिस द्रष्य में चेतना नहीं पाई जाती हैं, उसे अजीब द्रव्य कहते हैं । उसके पांच भेद 8 हैं-पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । जिनमें पांच प्रकार का रूप, पांच प्रकार का रस, दो। & प्रकार की गंध और आठ प्रकार का स्पर्श, ये बीस गुण पाये जाते हैं, उसे पुद्गल द्रव्य कहते हैं । जो जीव और पुद्गलों के चलने में सहायक है, उसे धर्म द्रव्य कहते हैं । यह अमूर्तिक द्रव्य माना 8 & गया है । जो जीव और पुगलों के ठहरने में सहायक है, उसे अधर्म द्रव्य कहते हैं । यह भी अमू-8 & तिक कहा है । जिसमें समस्त द्रव्यों का निवास है, उसे आकाश द्रव्य जानना चाहिए । जो स्वयं ल & परिवतित होता है और अन्य परिवर्तन करते हुए द्रव्यों के सहायक होता है, उसे काल द्रव्य कहते हैं । ४ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 काल द्रध्य दो प्रकार का है एक निश्चय काल और दूसरा व्यवहार काल । वर्तना जिसका लक्षण है 8 & उसे निश्चय काल कहते हैं और घड़ी, घंटा, दिन, रात, पक्ष, मास, वर्ष, संख्य, असंख्य प्रादि को व्यवहार काल कहते हैं । ये पांचों ही द्रध्य अजीव हैं । इसलिए इन का अजीव तत्व के अन्तर्गत हाला वर्णन किया गया है । आगे प्रास्त्रवादि तत्त्वों का वर्णन लिखते हैं यों अजीव अब आस्व सनिये मन वच काय त्रियोगा । मिथ्या अविरत अरु कषाय परमाद सहित उपयोगा ॥८॥ ये ही आतष के दुख कारण, तातें इनको तजिये । जीव प्रदेश बंधे विधि सों, बंधन कबह न सजिये ॥ शम दमसों जो कर्म न आवै, सो संवर आदरिये । तय बल तै विधिझरन निर्जरा, ताहि सदा आचरिय ।।६।। सकल करमते रहित अवस्था, सो शिव थिर सुखकारी । इहिविधि जो सरधा तत्वन को, सो समकित्त व्योहारी । देव जिनेन्द्र गुरू परिग्रह बिन, धर्म दया जुत सारी । यह मान समकित को कारन, अष्ट अंग जत धारो॥१०॥ ____ अर्थ--मन, बचन और काय इन तीनों योगों के हलन चलन रूप क्रिया के द्वारा जो कर्मों का & आना होता है, इसे आस्रव तत्व कहते हैं, इस आम्रव के ५ भेद हैं-मिथ्या दर्शन, अविरति प्रमाद & कषाय और योग । ये पांचों ही कर्मों के कारण होने से आत्मा के दुःख के कारण हैं । इसलिए इन्हें छोड़ देना चाहिये । जीव के प्रदेशों को कर्म-परमाणुओं से बंधन को बंध कहते है, सो बंध भी नहीं Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 करना चाहिए । शम अर्थात् कषायों के शान्त करने से और दम अर्थात् इन्द्रिय विषयों के & जीतने से कर्मों का आना सकता है वही संवर कहलाता है । इसका सदा आदर करना चाहिए । तपो बल से जो कर्म झड़ते हैं उसे निर्जरा कहते हैं। उसका सदा माचरण करना चाहिए। समस्त कमों से रहित जो प्रात्मा को शुद्ध दशा प्रगट होती है उसे मोक्ष तत्व कहते हैं । वह स्थिर और अवि- 8 नाशी सुख को करने वाली है। इस प्रकार सातों तत्वों के यथार्थ श्रद्धान को व्यवहार सम्यग्दर्शन 8 कहते हैं । वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी जिन भगवान् हो सच्चे देव हैं। परिग्रह आरंभ से रहत ४ ज्ञान ध्यान में परायण पुरुष ही सच्चे गुरु हैं । और दयामय धर्म ही सच्चा धर्म है । इन तीनों को भी सम्यादर्शन का कारण जानना चाहिए, और आगे कहे जाने वाले आठ अंगों सहित इस सम्यग्दर्शन को धारण करना चाहिए । भावार्थ :-कर्मों के आने का मूल कारण यद्यपि तीनों योगों को चंचलता 8 है । जो योगों को चलता जिस परिणामों में अधिक होगी उसी परिणाम में कर्मों का आस्रव होगा 8 & तथापि जिस जीव के मिथ्यादर्शन अविरति प्रमाद आदि बंध के कारण जितने अधिक होंगे, उतनी हो अधिक कर्म प्रकृतियों का उसके आस्रव और बंध होगा। मिथ्यादृष्टि जीव के मिथ्या दर्शन आदि & पांचों हो बंध के कारण पाये जाते हैं, इसलिए उसके आठों कर्मों को बंध योग्य यथा संभव सब हो ११७ प्रकृतियों का आस्रब और बंध होता है । किन्तु जब जीव मिथ्यारष्टि से सम्यग्दृष्टि बन जाता है तब व्रतादिक को नही धारण करने पर भी उसके केवल ७७ प्रकृतियों का आस्त्रव और बंध रह जाता है। १ मिथ्यात्व, २ हंडक संस्थान, ३ नपुसकवेद, ४ नरक गति, ५ नरक गत्यानुपूर्वी, ६ नरक 0 आयु, ७ असंप्राप्तासृपटिका संहहन, ८ एकेन्द्रिय जाति, ६ द्वीन्द्रिय जाति, १० वीन्द्रिय जाति, ल ११ चतुइन्द्रिय जाति, १२ स्थावर नाम कर्म, १३ आताप, १४ सूक्ष्म, १५ अपर्याप्त, १६ साधारण Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 照 ढाला १७ अनन्तानुबंधों क्रोध, १८ मान, १६ माया, २० लोभ, २१ स्त्यानगृद्धि, २२ निद्रा निद्रा, २३ प्रचलाप्रचला, २४ दुर्भग, २५ वुस्वर २६ अनादेय, २७ न्यग्रोध संस्थान, २८ स्वाति संस्थान, २६ कुब्ज संस्थान, ३० वामन संस्थान, ३१ वज्र नाराच संहनन, ३२ नाराच संहनन, ३३ अर्द्ध नाराव संहनन, ३४ कोलक संहनन, ३५ अप्रशस्त विहायोगति, ३६ स्त्रीवेद, ३७ नीच गोत्र, ३८ तिर्यगत ३६ तिर्यग्गत्यानुपूर्वी ४० तिर्यगायु और ४१ उद्योत । इन ४१ इकतालीस पाप प्रकृतियों का उसके आस्त्रव और बंध रुक जाता है । अर्थात् व्रत रहित सम्यग्दर्शन होने मात्र से ही यह जीव नरक गति और तिथंच गति में उदय आने योग्य फल देने वाली किसी भी प्रकृति का बंध नहीं करता है । इन्हीं इकतालीस प्रकृतियों के बंध नहीं होने के कारण प्रभ्यग्दृष्टि जीव मर कर नरकगति और तियंच गति में उत्पन्न नहीं होता है । अहो, सम्यग्दर्शन का कितना बड़ा माहात्म्य है कि उसके प्राप्त होते ही यह जीव एकेन्द्रिय विकलेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होता, नारकी और कर्मभूमि के तिर्यंचों में नहीं पैदा होता । मनुष्य गति में जाने पर भी लूला, लंगड़ा, बहिरा, गंगा, होनांगी या अधिकांगी नहीं पैदा होता है । अल्प आयु का धारक नहीं पैदा होता । वीन, दरिद्री, रोगी, शोको और कुटुम्ब परिवार से होन नहीं होता, अभागी नहीं होता, नपुंसक या स्त्री नहीं बनता, कुबड़ा, बोना या इंडक संस्थान वाला और होन संहनन वाला नहीं होता, किन्तु वज्रवृषभ नाराच संहनन और समचतुरस्त्र संस्थान का धारक होता है । महान सौभाग्यशाली, विभव संपन्न, महा पुरषार्थी और कामदेव के समान सुन्दर शरीर का धारक मनुष्य होता है । यदि सम्यग्दृष्टि जीव देवगति में जावे तो वहां भी वह भवनवासी, व्यंतर और ज्यो िषी देवों में उत्पन्न नहीं होता, नियम से कल्पवासो देव ही उत्पन्न होता है, उनमें भी अभि कि आतिष जाति अबेब नहीं होता कि प्रत्येक सामानिक त्रायत्रश Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छह ढाला XXXXXx आवि महान् ऋद्धिधारी देयों में उत्पन्न होता है । इस सम्यग्दर्शन की महिमा में आचार्य ने बड़े बड़े ग्रन्थों की रचना की है। इसे धर्मरूप वृक्ष को जड़ कहा है। मोक्ष - महल को प्रथम सीढ़ी कहा है । इसे हो परम पुरुष, पुरुषार्थ, परमपद, मानव तिलक आदि अनेक नामों से स्तवन किया है। अक्षतीतं सुखं दधे । सम्यक्त्वं दुर्लभं लोके इस सम्यग्दर्शन को हो सर्भ इट अर्थको सिद्धि, अक्षातीत सुख, कल्याण का बीज माना गया है, इस सम्यग्दर्शन के धारण करने में कोई परिश्रम नहीं करना पड़ता है, न कोई कष्ट सहना पड़ता है । इसकी प्राप्त कितनी सीधी और सरल है कि जितना सरल और कोई लौकिक कार्य भी नहीं हो सकता । संसार के प्रत्येक कार्य के लिये महान् परिश्रम उठाना पड़ता है रात दिन एक करना पड़ता है, तब कहाँ कोई लौकिक कार्य सिद्ध होता है । परन्तु सम्यग्दर्शन की प्राप्ति को क्या चाहिए ? मिथ्यात्व और मूढ़ताओं को छोड़ दीजिए और अपनी तीव्र कषायों को मन्द कर लीजिए । शान्ति के साथ आत्म स्वरूप को समझ कर अन्तर दृष्टि दीजिए, यही बार बार कोशिश कीजिए, पर वस्तु से ममत्व तज दीजिए ये आत्म स्वभाव पर से भिन्न है ऐसा समझ लोजिए यही कल्याण का और सात तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त कीजिए कि यही हमारे हितैषी हैं। इनके बतलाए मार्ग पर चलने से ही आत्मा का कल्याण हित होता है। सम्यग्दृष्टि को आदरने योग्य निज स्वभाव है । त्यागने योग्य पर स्वभाव है, क्योंकि निज सहज स्वभाव मिटता नहीं, नियम भंग नही होता है। सहज सुख स्वतः हो प्राप्त हो जाता है, कोई रोके तो रुकता नहीं है । स्वतन्त्रता स्वतः ही प्राप्त होती है और परतन्त्रता छूट जाती है क्योंकि अनहोनी होती नहीं, होनी हो सो वलतो नहीं है । निश्चिय बिना व्यवहार कार्यकारी नहीं है व्यवहार बिन निश्चिय में नहीं पहुँच सकते हैं । समझिये अभेद बिना बीज है । 133333333333333 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छह ढाला भेद नहीं होता और भेद बिना अभेद नहीं है होता । नित्य बिना अनित्य नहीं और आता नहीं, शान में । अखंड बिना खंड नहीं और खंड बिना अखंड नहीं अनित्य बिना नित्य नहीं, यह मर्यादा है, क्योंकि ज्ञान ज्ञेय में को अपनाता नहीं और अज्ञानी पर को अपनाना छोड़ता नहीं, इसलिए पर अपना होता नहीं और स्व स्वरूप कहीं जाता नहीं है । इसलिए स्वद्रव्य निश्चय है और परिणमन व्यवहार है तब गुरण निश्चय और पर्याय व्यवहार है, इसी से स्वाश्रित निश्चय हुआ और पराश्रित व्यवहार हुआ, ऐसे हो अभेद, पूर्ण, ध ुव, सहज स्वभाव, साध्य, निर्पेक्ष सामान्य है, स्व, ये निश्चय वाचक है और भेद, अपूर्ण, अध्ध्र व क्रमवद्ध, साधन, सापेक्ष, विशेष, होना, पर को जानना, व्यवहार है। शुद्ध निश्चय नय से चेतना भाव का कर्ता है, अशुद्ध निश्चय नय रागादिक भावों का कर्ता है, व्यवहार नय से शरीर का कर्ता है, ऐसा समझना ही सम्यक्त्व है । सम्यक्त्व को पाना, ज्ञान को जानना और चरित्र की विशुद्धता, ये तीनों एकत्र होते ही मोक्ष मार्गानुसारी आत्मा हो जाता है। अन्य कुदेवादि हमारे हितैषी नहीं हो सकते, क्योंकि वे परागो हैं, वे राग, द्वेष, मोह, मद छल, प्रपंच और ईर्ष्या से परिपूर्ण हैं । इसलिये उनके कहे हुए वचन भी मानने के योग्य नहीं हैं, जो स्वयं असत्मार्ग पर चल रहे हैं ये कैसे औरों का उद्धार कर सकते हैं । ऐसा जानकर कुगुरु, कुदेव, कुशास्त्र और कुकार्य का सेवन छोड़ कर सच्चे देव, शास्त्र, गुरु और धर्म का विश्वास करना चाहिए और शक्ति के अनुसार उनके बतलाये मार्ग पर चलना चाहिये तथा प्रागे कहे जाने वाले आठ अंगों को अवश्य धारण करना चाहिए। तभी जाकर व्यवहार सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होगो । जब जीव के इस व्यवहार सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो जाती है तो निश्चय सम्यक् दर्शन की योग्यता उसमें सहज ही उत्पन्न हो जाती है, फिर उसके लिए पृथक् परिश्रम नहीं करना पड़ता है। जिस प्रकार एक सम्यग्दर्शन Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाद दूर होते हो. अप्रत्याख्यानावरण कोध मान माया लोभ अस्थिर अनुभ असाता वेदनो अपश छह 8 कीति अरति शोक इत्यादि प्रकृतियों का भी बंध छट जाता है । कहने का तात्पर्य यह है कि ज्यों ज्यों 8 कम बंध के कारण दूर होते है, त्यो त्यो आत्मा कर्म प्रकृतियों के बन्धनों से छूटता जाता है । इस प्रकार आगे आगे ज्यों ज्यों शम और दम भाव जागृत होते जाते हैं, त्यों त्यों को का आस्त्रव & रुकता जाता है और संवर प्रकट होता जाता है : इसी शम और दम के साथ जीव जब अपनो को 8 हुई पूर्व पाप प्रवृतियों को देखकर उनका पश्चात्ताप और प्रायश्चित करता है, उस पाप के शुद्ध करने ल 8 के लिये सप धारण करता है, तब उसके प्रति समय एक बहुत बड़े परिणाम में पूर्व वड संचित कर्म सड़ने लगते हैं अर्थात् आत्मा से दूर होने लगते हैं, इसो को निर्जरा तत्त्व कहते हैं । ज्यों ज्यों धीरे धीरे तपस्या बढ़ती जाती है, आत्म विवेक जागृत होता है, त्यों त्यों कर्मों को निर्जरा भी असं-- ख्यात गुणित क्रम से होने लगती है और कुछ काल के पश्चात् एक वह समय आता है जब आत्मा सर्व कर्मों से परिक्षीण हो जाता है, आत्मा के प्रदेशों पर कहीं भी एक कर्म-परिमाण बंधा नहीं रह जाता है तब वह इस पौगलिक शारीर को छोड़ कर सिद्धालय में जा विराजता है और यही मोक्ष कहलाता है । इस अवस्था के पा लेने पर जीव अजर-अमर हो जाता है । अक्षय, अन्याबाष और मनन्त सुख को प्राप्त कर लेता है और आगे अनन्त काल तक ज्यों का त्यों निर्विकार, शुद्ध चिदानन्द अवस्था में विद्यमान रहता है। इस कारण से सातों तत्वों के यथार्थ श्रद्धान को व्यवहार सम्यग्दर्शन कहते हैं । वेव शास्त्र गुरु और धर्म को श्रद्धा इस व्यवहार सम्यग्दर्शन का प्रधान कारण है और 8 उसकी प्राप्ति और पूर्णता के लिये आगे कहे जाने वाले आठ अंगों का धारण करना प्रावश्यक है। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 के प्रकट होते ही ऊपर बतलाई गई ४१ कर्म प्रकृतियों से छुटकारा मिल जाता है इसी प्रकार अविरत प्रमाद दूर होते ही अप्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ अस्थिर अशुभ असाता बेदनी अयशल कौति अरति शोक इत्यादि प्रकृतियों का भी बंध छट जाता है । कहने का तात्पर्य यह है कि ज्यों ज्यों ल लाल कर्म बंध के कारण दूर होते हैं, त्यों त्यों आत्मा कर्म प्रकृतियों के बन्धनों से छूटता जाता है । इस ४ प्रकार आगे आगे ज्यों ज्यों शम और बम भाव जागृत होते जाते हैं, त्यों त्यों कर्मों का मानव & रुकता जाता है और संवर प्रकट होता जाता है । इसी शम और दम के साथ जीव जब अपनी को छ हुई पूर्व पाप प्रवृत्तियों को देखकर उनका पश्चात्ताप और प्रायश्चित करता है, उस पाप के शुद्ध करने ४ के लिये तप धारण करता है, तब उसके प्रति समय एक बहुत बड़े परिणाम में पूर्व बद्ध संचित कर्म मड़ने लगते हैं अर्थात् आत्मा से दूर होने लगते हैं, इसी को निर्जरा तत्त्व कहते हैं । ज्यों ज्यों धीरे धीरे तपस्या बढ़ती जाती है, आत्म विवेक जागृत होता है, त्यों स्यों कर्मों को निर्जरा भी असं--8 ख्यात गुणस कम से होने लगती है और कुछ काल के पश्चात् एक वह समय आता है जब आत्मा & सर्व कर्मों से परिक्षीण हो जाता है, आत्मा के प्रवेशों पर कहीं भी एक कर्म-परिमाण बंधा नहीं रह जाता है तब वह इस पौद्गलिक शरीर को छोड़ कर सिद्धालय में जा विराजता है और यही मोक्ष कहलाता है । इस अवस्था के पा लेने पर जीव अजर-अमर हो जाता है । अक्षय, अध्यावाष और अनन्त सुख को प्राप्त कर लेता है और आगे अनन्त काल तक ज्यों का स्यों निर्विकार, शुद्ध चिदानन्द पृष् अवस्था में विद्यमान रहता है। इस कारण से सातों तत्त्वों के यथार्थ श्रद्धान को व्यवहार सम्यग्दर्शन कहते हैं । घेव शास्त्र गुरु और धर्म की श्रद्धा इस व्यवहार सम्यग्दर्शन का प्रधान कारण है और उसकी प्राप्ति और पूर्णता के लिये आगे कहे जाने वाले आठ अंगों का धारण करना प्रावश्यक है। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ & सम्यग्दर्शन को धारण करने के साथ हो उसे निर्दोष पालन करना चाहिए । जिन गेषों के कारण 8 सम्यग्दर्शन में निर्मलता नहीं आती है वे दोष २४ होते हैं उनका वर्णन लिखते हैं वसु मद टारि निवारि त्रिशठता, षट अनायतन त्यागो । शंकाविक वसु दोष बिना, संवगादिक चित पागो । अष्ट अंग अरु दोष पचीसों, अब संक्षेपहु कहिये । बिन जाने से दोषगुनन को, कैसे तजिये गहिये ॥१॥ अर्थ-सम्यग्दर्शन की निर्मलता के लिये जाति मव, कुल मद, रूप मद, शान मद, धन मद, 8 बल मद, तप मद और प्रभुता मव, इन आठ मदों को नहीं करना चाहिए । देव मू कृता, गुरु मूढ़ता 8 और लोक मूढ़ता इन तीनों मूढ़ताओं को दूर करना चाहिए । कुगुरु, कुदेव और कुधर्म इन तीनों के सेवन इन छहों के अनायतन अधर्म के स्थान कहते हैं । सन्यग्दर्शन को विशुद्धि के लिए इनका 8 मी त्याग आवश्यक है । उक्त छह अनायतनों की प्रशंसा स्तुति वर्गरह नहीं करनी चाहिए । आगे कहे जाने वाले आठ अंगों के विपरीत आचरण से शंका आदि आठ दोष उत्पन्न होते हैं, उनका भी त्याग करना चाहिए । इस प्रकार पच्चीस दोषों का त्याग कर, प्रशम, संवेग अनुकंपा और प्रास्तिक्य 8 इन गुणों को हृदय में धारण करना चाहिए । अब आठ अंग, और २५ दोषों के स्वरूप संक्षेप से 8 कथन करते हैं। भावार्थ – अहंकार करने को मद कहते हैं, अज्ञानता पूर्वक कार्य को मूढ़ता । मूर्खता) पर & कहते हैं । अधर्म के स्थान को अनायतन कहते हैं। जिन भगवान के वचनों में, उनके बतलाये तत्त्वों ५ में या धर्म में शंका करना कि यह सच है या झूठ है, इसके पालन करने से मुक्ति मिलेगी या नहीं, 8 & इस प्रकार का संकेत करना शंका दोष है । धर्म को धारण करके उसके फल से संसारिक सुखों को Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छह हाला इच्छा करना कांक्षा दोष है । धार्मिक जनों के शरीर को उनके मैले कुचले भेष भूषा को देख कर म्यानि कत्मा किसी अपंग लंगड़े लूले को देख कर घृणा करना विचिकित्सा दोष है । तत्य असत्य का निर्णय न करके यदा तदा विश्वास कर लेना मूढता दोष है । दूसरों के दोष और अपने गुण प्रकट करना अनुपन दोष है । लौकिक लालसा के वश होकर सत्य मार्ग से गिरते हुए लोगों को उनमें स्थिर नहीं करना या उनकी उपेक्षा करना अस्थितिकरण दोष है । गुणी और धर्मात्मा पुरुषों को देख कर भी प्रमुदित नहीं होना, आनन्दित या उल्लासित नहीं होना अवात्सल्य दोष है । सामर्थ्यवान् होकर भी सत्य मार्ग की संसार में प्रभावना नहीं करना, अज्ञान के नाश के लिए प्रयत्न नहीं करना अप्रभावना दोष है । सम्यग्दर्शन के धारकों का परम कर्तव्य है कि वे इन भ्रष्ठों दोषों को दूर करें। और सम्यग्दर्शन में निर्मलता बढ़ाने के लिए प्रशम, संवेग, अनुकंपा और अस्तिक्य इन चार गुणों को और भी धारण करना चाहिए. यहां राग द्वेष परिणामों की कमी को प्रदाम कहते हैं। यदि किसी ने बड़ा अपराध भी कर दिया है तो भी उससे बदला ले लेने का भाव नहीं होना प्रशम गुण है । इस गुण के प्रभाव से आत्मा में परम शान्ति जागृत होती है। यद्यपि सम्यग्दृष्टि जीव को भी आरंभादि के निमित्त से कभी कदाचित् उत्तेजना या कषायोद्रक हो जाता है, तथापि वह अल्पकाल स्थायी होता है, उसमें कषश्यों की तीव्र वासना नहीं होती है, इसलिए उसके प्रशम गुण का विनाश नहीं होता है । संसार में भयभीत रहना, उसमें आसक्त नहीं होना, सो संवेग कहलाता है, किसी आचार्य ने धर्म और धर्म के फल में परम उत्साह रखने को भी संवेग कहा है। जो साधर्मो जनों में अनुराग और पंच परमेष्ठी में भक्ति या प्रीत का भी संवेग माना है। इस गुण के हो कारण सम्यग्दृष्टि जीय में अनाशक्ति भाव जागृत होता है, और वह संसारिक कार्यों में उदासीन और पारमार्थिक कार्यों में वह उत्साह रखने Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हूँ लगता है । प्राणी मात्र पर मंत्री भाव जागृप्त होने को अनुकम्पा कहते हैं । इस गुग के प्रगट हो जाने से सम्यग्दृष्टि भोष को दूसरों के दुःख अपने ही प्रतीत होने लगते हैं, वह दूसरों के दुःख देख कर अनुकम्पित हो उठता है, और उन्हें दूर करने का शक्ति मूजब प्रयत्न करता है। इस गुण के प्रगट होने पर सम्यग्दर्शम पारी आत्मा का कोई शत्रु नहीं रहता, सब जीव मित्र बन जाते हैं और इसी कारण वह निःशल हो जाता है, इसी गुण के कारण सम्पष्टि जीव अन्याय और मांसादि अनक्य सेवन से विमुख हो जाता है । इहलोक, परलोक. पुण्य, पाप और जीवादि तत्त्वों के सद्भाव में अस्तित्व बुद्धि 6 का होना सो आस्तिक्य है। इस गुण के प्रगट होने से मनुष्य में नास्तिकपना नहीं रहता। इसो गुण के प्रभाव से सम्यग्दृष्टि सातों प्रकार के भयों से विमुक्त होकर निर्भय बन जाता है। उसे इस बात पर & र विश्वास हो जाता है कि मैं तो अजर अमर हूँ, म अस्त्र, वस्त्र और शस्त्रों से आच्छादित हो & सकता है, न छिन्न भिन्न किया जा सकता हूं, न अग्नि से जलाया जा सकता हूं, और न अन्य किसी रोगावि से मेरा विनाश हो सकता है, जो पाप कर्म मैंने पूर्व भव में नहीं किये हैं तो उन का फल मुझे नहीं मिल सकता है, और जो कर्म मैंने किये हैं तो उनका फल मिलने से छूट नहीं सकता । लिया हुआ कर्म रूपो कर्ज तो अवश्य हो चुकाना पड़ेगा। फिर कर्मों के फल को मोगने से मय क्यों ? इस प्रकार के विचार प्रगट हो जाने से सभ्यष्टि जीव बड़े से बड़ा उपद्रव, रोग, उपसर्ग और परिवह 8 आ जाने पर भी निर्भय रहता है । अब सम्यग्दर्शन के ८ अंगों को लिखते हैंजोगीरासा-जिन वच में शंका न धारि वृष, भव सुख वांछा मान । मुनि तन मलिन न देख घिनावै, तत्व कुतत्व पिछाने । निज गुण अरु पर औगण ढाकं वा जिन धर्म बढ़ावै । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कामादिक कर वृषतें चिगते, निज पर को सु दृढादै ॥१२॥ धर्मी सो गउबच्छ प्रीति सम, कर जिन धर्म दिपावै । इन गुणते विपरीत दोष बमु, तिनको सतत खिपावै ॥ अर्थ-जिन भगवान् के वचनों में शंका नहीं करना निःशंकित अंग है । धर्म को धारण ५ करके सुखों को इच्छा न करना निःकांक्षित अंग है । मुनि के शरीर को मैला देख कर के घृणा न करना निर्विचिकित्सा अंग है । सांचे और झूठे तत्त्व को पहिचान करना अमूढ़ दृष्टि अंग हैं । अपने गुणों को और पराये औगुणों को ढकना और अपने धर्म को बढ़ाये रहना सो उपगूहन अंग है । काम विकार आदि कारणों से धर्म से डिगते हुए अपने आपको और दूसरे जनों को पुनः उसमें दूर करना सो स्थितिकरण अंग है । साधर्मी जनों से बछड़े पर गाय के समान प्रेम करना सो वात्सल्य & अंग है । जैनधर्म का संसार में प्रकाश फैलाना सो प्रभावना अंग है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन के आठ & अंगों का संक्षेप में वर्णन किया। भावार्थ-धर्म का मूल आधार सम्यग्दर्शन है और इस सम्यग्दर्शन & का भी मूल आधार उसके पाठ अंगों का बतलाया गया है । जिस प्रकार किसो सुन्दर मकान के आधार भूत आठ खंभे होते हैं, अथवा शरीर के जैसे आठ अंग बतलाये गए हैं। उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के भी आठ अंग बतलाये गए हैं कि जिस प्रकार एक अक्षर से भी होन मंत्र विष को घेदना को दूर नहीं कर सकता, उसी प्रकार एक भी अंग से हीन सम्यग्दर्शन संसार का उच्छेद नहीं कर 8 सकता है। इसलिए सम्यग्दृष्टि को आठों अंगों का पालन करना आवश्यक है । उन अंगों का विशेष स्वरूप इस प्रकार है कि स्व पर विवेक पूर्णक जब हेय और उपादेय तत्त्वों का पूर्ण निश्चय हो जाता र है, तब सन्मार्ग पर जो निश्चयात्मक दृढ़ प्रतीति या श्रद्धा होती है उसे ही निःशंकित अंग कहते हैं। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छह तामा इस अंग के प्रभाव से सम्यग्दृष्टि जीव १ इहलोक भय, २ परलोक भय, ३ वेदना भय, ४ अन्त्रारण भय, इस ५ अगुप्ति भय, ६ मरण भय, ७ और आकस्मिक भय, इन सात भयों से विमुक्त हो जाता है । लोक संबंधी परिस्थितियों से घबड़ाने को इहलोक कहते हैं । मेरे इष्ट वस्तु का वियोग न होवे, और अधिक संगोष होये, देव कभी दरिद्र न बना देवे इत्यादि अनेक प्रकार को मानfor चिन्ताओं से जैसे मिथ्यादृष्टि जोव चिन्तित रहता है, उस प्रकार सम्वग्दृष्टि चिन्तित वहीं रहता परभव संबन्धी क्योंकि वह तो इस लोक संबन्धी समस्त वस्तुओं को पर और विनश्वर मारता है । पर्याय से भयभीत होने को परलोक भय कहते हैं इस भय के कारण जीव सदा उद्विग्न रहता हुआ सोचा करता है कि न मालूम में मर कर किस गति में जाऊँगा ? मेरा स्वरों में ही जन्म हो, नरकादि दुर्गति में मेरा जन्म न हो । परन्तु सम्यग्दृष्टि पुरुष इस भय से बिलकुल विमुक्त रहता है, क्योंकि वह जब मेरा जीवन पवित्र है तो मैं जानता है कि दुष्कर्म का फल परलोक में दुर्गति का कारण है । दुर्गति में क्यों जाऊँगा ? शरीर की पीड़ा रोग व्याधि और मानसिक चिन्ता आदि की पीड़ा से भय भीत होने को वेदना भय कहते हैं । इस भय के कारण जीव सोचा करता है कि में निरोग बना रहूं, मेरे कभी कोई वेदना न हो। पर सम्यग्दृष्टि तो अपनी आत्मा को सर्व प्रकार की आधि व्याधियों से रहित मानता है और इसलिए उसे वेदना भय नहीं होता । मेरा कोई रक्षक नहीं, मुझे इस आपत्ति अपने और से बचाने वाला कोई नहीं, इस प्रकार के अरक्षा संबन्धी भय को अत्राण भय करते हैं । अपने कुटुंब आदि की रक्षा के उपायभूत दुर्ग, गर्भालय, गढ़, कोट आदि के अभाव से उत्पन्न होने बिजली का गिरना, वाले भय को अगुप्ति भय कहते हैं। मौत से डरने को मरण भय कहते हैं । भूकंप का होना आदि आकस्मिक कारणों से जो भय होता है उसे आकस्मिक भय कहते हैं । सभ्य - Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 'दृष्टि जीव यथार्थ वस्तु स्वरूप को जानने के कारण इन सब भयों से मुक्त रहता है । २ निःकांक्षित & अंग- धर्म सेवन करते हुए उसके फल से इस जन्म में लौकिक विभव-संपत्ति आवि की इच्छा न छह & करना और परभव में नारायण, बलभद्र चक्रवर्ती, मंडलेश्वर, राजा आदि होने की इच्छा न करना, & भोगों को अभिलाषा न करना निःकांक्षित अंग है । सांसारिक सुख भोग आदि कर्म के परवश हैं, अन्त करके सहित हैं, सांसारिक और मानसिक दुःखों से जिसका उदय व्याप्त है, और पाप का बीज है, ऐसे सुख की इच्छा न करना हो श्रेष्ठ है । इस प्रकार के विचार जागृत हो जाने से सम्यादृष्टि इह लोक और परलोक संबन्धी भोगोपभोगों की आकांक्षा से दूर रहता है। ३ निविचिकित्सा अंगल यह है कि यह शरीर स्वभाव से ही अपवित्र है, किन्तु रत्नत्रय के धारण करने से पवित्र माना जाता & है. अतएव रत्नत्रय के धारक साधु-सन्तों के शरीर को मैला कुचला देखकर ग्लानि नहीं करना और उनके मुषों में प्रीति करा लिपिकिरपा कहलाती है । भूख, प्यास, शौत, उष्ण आदि नाना प्रकार के भावों के विकृतिकारक संयोगों के मिलने पर भी चित्त को खिन्न नहीं करना और मलमूत्रादि पदार्थों 8 में वस्तु स्वभाव को विचार कर ग्लानि नहीं करना भी निर्विचिकित्सा अंग हैं, सम्यग्दृष्टि पुरुष रोमी 8 शोको एवं मलीन पुरुषों को देखकर उससे घृणा नहीं करता है, बल्कि उसकी वयावृत्य करने को तैयार होता है । ४ अमूढ़ दृष्टि प्रग - लौकिक प्रपंच वर्धक रूढ़ियों में कुवेव, कुशास्त्र, कुगुरु और कुधर्म & में सपनी दृष्टि को मूढ़ता रहित करना कुमार्ग और कुमार्ग पर चलने वाले पुरुषों की मन वचन काय से अनुमोदना, प्रशंसा, सराहना न करना सो अमूढ़ दृष्टि अंग है । इस अंग के धारक सम्य© दृष्टि पुरुष को लोक मूढ़ता, देवमूढ़ता और गुरु मूढ़ता ये तोनों मूढ़ताएँ अवश्य छोड़नी चाहिएँ । धर्म मानकर नदी, समुद्र, गंगा, यमुना, गोदावरी आदि में स्नान करना, बालू पत्थर वगैरह के ढेर लगाना Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छह डालाई पर्वत से गिरना, अग्नि में प्रवेश करना, सूर्य को अर्ध देना, अग्नि की पूजा करना, अग्निहोत्र करना, गाय के मूत्र का सेवन करना, गोबर को पवित्र मानना, गोवर से प्रारती बनाना और करना, मकान की देहली पूजना, दवात कलम बही खाता गाड़ी बेल घोड़ा गाय आदि पूजना, रत्न रूपा गाय शस्त्र आदि की पूजा करना, मकर संक्रान्ति आदि के समय तिल के स्नान से उसके दान से पुण्य मानना, सूर्य चन्द्र आदि ग्रहण के समय दान देना. संध्या समय हो मौन धारण करने में धर्म मानना, ये सब लोक मूढ़ता ही | सम्यग्दृष्टि को इनका त्याग अवश्य ही करना चाहिए । किसी दर पाने की इच्छा से आशावान होकर राग द्वेष से मलीन देवताओं की पूजा उपासना करना सो देव मूढ़ता है | मोह रूपी मदिरा के पान करने से मत, नाना प्रकार के कुत्सित वेषों के धारण करने वाले और अन्य मतावलंबियों से परिकल्पित ब्रहमा, उपामति, गोविन्द शाक्य, चन्द्र, सूर्य प्रादिक में आप्त बुद्धि करना उन्हें अपनी आत्मा का सच्चा उद्धारक देव मानना, ये सब देव मूढ़ता ही है। आरंभी परिग्रहो और हिंसादि पापाचरण करने वाले, संसार रूप समुद्र की भवर में डुबकियां लेने वाले पाखंडी, ढोंगी और नाना वेष के धारक कुगुरुओं का आदर-सत्कार करना सो पाखण्डि मूढ़ता है । इसको गुरु मूढ़ता भी कहते हैं। चौथे अंग के कारण सम्यग्दष्टि को उक्त तीनों मूढ़ताओं को छोड़ देना चाहिए । किसी मनुष्य के बीमार होने पर बीमारी के अनुसार उसका इलाज न कराकर बीमारी को दूर करने के लिए शोलला को माता मानकर जल चढ़ाना, दुर्गा पाठ करना, मूर्तियों का चरणोदक सिर से लगाना पीना मन्त्र जाप करना आदि सब मूढ़ता ही हैं । फिर भले ही ये काम महावीर या पार्श्वनाथ को आधार बना कर किये जायें या बुद्ध, विष्णु, शिव, पार्वती, पद्मावती, चक्रेश्वरी, ज्वालामालिनी, काली, गौरो आदि किसी देवी देवता को आधार बनाकर किये जायें । कुछ लोग ऐसा समझते हैं कि रोग आदि. Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को दूर करने के लिए जिन भगवान् को या अपने इष्ट देव को पूजा अर्चाना आदि में कुछ दोष नहीं रु 8 है, किन्तु दूसरे देयों को या कुक्षेत्रों की पूजा उपासना में दोष है । परन्तु यह उनकी भूल है, रोगादि 8 छह 8 के दूर करने के लिए देव पुजा आदि को इस लिए मूढता कहा है. कि उन देवों का बोमारी के रहने डालाष्ट्र या जाने से कोई संबन्ध नहीं है । बीमारियां देवताओं के कोप से नहीं होती है, और न उसको प्रस & प्रता से जाती हैं । इसलिए बीमारी आदि को दूर करने के लिए देवताओं की पूजा करना मूहला हो © है'। जो कष्ट के समय प्रत्येक मनुष्य भगवान् का नाम स्मरण करता है, गुरुओं का या सुतीर्थ यात्रा & का, कृत्रिम अकृत्रिम चैत्यालय या अतिशय क्षेत्रों का नाम स्मरण करता है, यदि यह समर्थ होता 8 8 है तो विशेष रूप में धार्मिक क्रिया दान पूजा महोत्सव आदि भी करता है तो ये बुरा कार्य नहीं है। 8 आपत्ति को सहन करने की शक्ति प्रगट हो जाती है, इतना ही नहीं बल्कि अपत्ति में इस धार्मिक भावना से पुराने अपराधों का पश्चात्ताप होता है । और सब जीयों में प्रेम भाव जागृत हो जाता है । और समता की भावना भी उत्पन्न हो जाती हैं परन्तु उसे रोग दूर करने की औषधि समझना ये मूठता है । जो कोई जन पड़ौसी या परिचित जन मूढता वाले पुरुषों को बातों पर विश्वास करते हैं उनको 8 ये मूढता दुःखदाई है । इस प्रकार यह स्व पर दुःखवायो होने से अधर्मरूप मूढ़ता है, परन्तु देव पूजा मात्र जाप, दान आदि शुभ क्रिया से पुण्य बंध होता है । संचित कर्म का नाश नहीं, भविष्य में ऐसा दुःख फिर नहीं भोगना पड़े। इसके लिए पूजनादि शुभ क्रिया का उपयोग किसी तरह कहा 8 गया तो ठीक है, किन्तु उसका प्रभाव वर्तमान में फल देने वाले कर्म पर नहीं पड़ता। उसके लिए तो उचित तप की आवश्यकता है, तप से संचित कर्मों को निर्जरा होती है और रोग उपसर्ग आपत्ति आदि दूर होते हैं, इसलिए रोगादिक के समय पुण्यास्रव के कारण में न पड़कर कर्म निर्जरा के 8 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ & कारणां का आचरण करना लाभदायक है, देव पूजा दानादिक पुण्याव का कारण है और उसका ४ फल लौकिक पारलौकिक अभ्युदय को प्राप्ति है । अतएव रोगावि के समय पूजा पाठ करना अनिष्ट छह 8 ग्रहों की शान्ति के लिए मन्त्र जाप आदि करना मूढ़ता ही है । सम्यग्दृष्टि को सर्वत्र अमूढ़ दृष्टि होना चाहिए । ५ उपगुहन अंग-दूसरों के दोषों को और अपने गुणों को प्रकट न करना तथा अपने धर्म को बढ़ाना उपगृहन गुण अंग है । अपनी आत्म-शक्तियों को बढ़ाना उत्तम क्षमा आर्दव प्रादि भावों के द्वारा आत्मा के शुद्ध स्वभाव को बढ़ाना तथा संघ के दोषों को ढकना उपवहण अंग 8 है और जैन धर्म स्वयं शुद्ध है, पवित्र है, पर उसके धारण करने वालों में कोई अज्ञानो, आशक्त या मिथयात्वी हो और उसके द्वारा जैन धर्म को निन्दा होने लगे, अपवाद फैल जाय तो उस निन्दा अपवाद को दूर करना उपगूहन अंग है । ६ स्थितिकरण अंग-विषय-कषायावि निमित्त से सम्यग्दर्शन या सम्यक् चारित्र से निगते हुए पुरुषों को पुनः उसी में स्थिर करना सो स्थितिकरण अंग है । जो 8 धर्म से पतित हो चुका है या जो भ्रष्ट होने वाला है उसे जिस प्रकार बने उसी प्रकार से धर्म में दृढ़ ह & करना, स्थिर करना सम्यग्दर्शन का एक खास अंग है यह अंग व्यक्ति और समाज का महान् उप कारक है । सम्यग्दृष्टि का खास अंग है। धर्म और धर्मात्माओं को स्थिति इसी अंग पर अविलंबित & है। यह स्थितिकरण कहीं पर केवल वचन मात्र की सहायता से, कहीं सावधान कर देने मात्र से और & कहीं आर्थिक सहायता देने से संभव है । अनादिक के अकाल में कितने ही लोग , मांस और अभक्ष्य और निध पदार्थों को खाकर चारित्र से पतित हो जाते हैं । कितने ही लोग अन्न के अत्यन्त महंगे 8 हो जाने से अर्थाभाव के कारण उसे खरीदने में असमर्थ हो जाते हैं । ऐसे समय केवल फजूल 8 83 सहायता से काम नहीं चलते हैं, किन्न धन व्यय कर जहां से मिले वष्ठां से अन्न को मंगा फर स्वयं Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ & हानि उठाते हुए भी सस्ते भाव पर बेचकर गरीब और असमर्थ व्यक्तियों के लिए अन्न सुलभ कर ले & देना चाहिए जिससे कि वे अखाद्य के खाने से बच सके । इसी प्रकार कितने ही गरीब नय युवक 8 छह & शादी न होने से चारित्रभ्रष्ट होने लगते हैं । उनको रक्षा के लिए आवश्यक है कि सर्वसाधारण लोग ल लाल अपनी बहन बेटियों को सुशिक्षित करके उन्हें विवाहें, समाज उनके विवाह आदि को चिन्ता करे ४ और उन कारणों को रोके जिनके कारण समाज के गरीब नवयुवकों को कन्याएँ नहीं मिलती हैं। इसी प्रकार आजीविका के अभाव में कितने ही परिवार विधर्मी बन जाते हैं, उनके स्थितिकरण के लिये यह आवश्यक है कि समाज के दानवीर श्रीमान् पुरुष अपने दान का उपयोग उन गरीब परिवारों को ल आजीविका के स्थिर करने में करें । धर्माचरण के क्रम और रहस्य को न जानने के कारण धनवान लोग प्रभावना अंग के नाम पर लाखों रुपया पूजा प्रतिष्ठा आदि में खर्च कर देते हैं, उन्हें ज्ञान होना चाहिए कि आचार्यों ने पहले स्थितिकरण अंग, उसके पश्चात् वात्सल्य अंग और उसके पश्चात् प्रभा- 8 वना अंग का क्रम रखा है, जिसका अर्थ यह होता है कि पहले अपनी लक्ष्मी का उपयोग धर्म से 3 & गिरते हुए व्यक्तियों के उत्थान में खर्च करो, इसके पश्चात् यदि धन बचता है तो अहिंसा की रक्षा & 8 और हिंसा के दूर करने में व्यय फरो, प्राणी मात्र पर वात्सल्य भाव की वृद्धि तब ही होगी, इसके भी & पश्चात् यदि धन बचता है तो प्रभावना के कार्यों में व्यय करो, यही सनातन नियम है । और यही धर्म का क्रम और उनका यथार्थ रहस्य है, ऐसा जानकर हे मुमुक्षु जनों, : अपनी चंचला चपला लक्ष्मी पृच & को स्थिति करण अंग में लगाकर उसे स्थिर करने का सत्प्रयत्न करो । ७ वात्सल्यग्नंग-धर्म और ६१ & धर्मात्मा पुरुषों से गौ-वच्छ के समान प्रीति करने को वात्सल्य कहते हैं । जिस प्रकार गाय बछड़े 8 & के प्रेम से खिचकर अपने प्राणों का भी मोह त्याग कर बछड़े को रक्षा के लिये शेर के सामने चली ४ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढालाल 8 जाती है और ऐसा विचार करती है कि यदि मुझे खाकर भी सिंह मेरे बछड़े को छोड़ दे तो अच्छा ४ है । ठीक उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि पुरुष धर्म और धर्मात्मा से ऐसी ही प्रीति करता है और आपत्ति के समय अपना सर्वस्व न्योछावर करके भी आपत्ति से छुड़ा कर धर्म और धर्मात्मा के साथ बात्सल्य भाव का पालन करता है, जो कि सिद्ध प्रतिमा, अर्हत बिम्ब, जिनालय, चतुर्विध संघ और शास्त्रों में सेवक के समान उत्तम सेवा के भाव रखने को भी वात्सल्य अंग कहा है तथा अहंत बिम्ब 4 जिन-8 मन्दिर आदि पर घोर उमार्ग प्राटि गाने पर उसके दूर करने के लिये सदा तत्पर रहना चाहिए। क्योंकि सम्यग्दृष्टि पुरुष अपनो आत्मिक, शारीरिक, सैनिक आर्थिक और मन्त्र सम्बन्धी शक्ति के रहते हुए जिन बिम्बादिक पर आई हुई आपत्ति उपसर्ग वाधादिक को सह नहीं सकता, न देख सकता है और न सुन सकता है अर्थात् अपनी जैन समाज के प्रति निश्चल भाव रखकर उससे परम स्नेह करना, अपने पत्र के अनुसार तथा योग्य प्रादर सत्कार पूजा प्रशंसा प्रादि करना वात्सल्य अंग है। यानि जिन शासन में सदा अनुराग प्रीति रखना वात्सल्य अंग है । सम्यग्दृष्टि को अपनो समाज के 8 & साथ, अपने धर्म के साथ और चतुर्विध संघ के साथ परम वात्सल्य रखना चाहिए, इन पर किसी & प्रकार को आपत्ति आदि आने पर तन, मन, धन से उसे दूर करने के लिये सदा उद्यत रहना चाहिए । अपने जीते जी अपने धर्म समाज और संघ का किसी प्रकार का अपमान तिरस्कार या विनाश न होने देना चाहिए । ८ प्रभावना अंग--संसार में फैले हुए अज्ञान के प्रसार को मद्ज्ञान के प्रचार व द्वारा दूर कर सदाचार का आचरण मन्त्र और विद्या आदि के प्रभाव द्वारा जिस प्रकार बने उस प्रकार ४६ 8 से जैन शासन का महात्म्य संसार में प्रकट करना प्रभाषना अंग है । वह आत्म प्रभावना और वाह्य Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ जाती है और ऐसा विचार करती है कि यदि मुझे खाकर भी सिंह मेरे बछड़े को छोड़ दे तो अच्छा टू है । ठीक उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि पुरुष धर्म और धर्मात्मा से ऐसी ही प्रीति करता है और आपत्ति ल के समय अपना सर्वस्व गोजिर करतो भी आपति से जुड़ा कर धर्म और धर्मात्मा के साथ वात्सल्य भाव का पालन करता है, जो कि सिद्ध प्रतिमा, अहंत बिम्ब, जिनालय, चतुर्विध संघ और शास्त्रों में सेवक के समान उत्तम सेवा के भाव रखने को भी वात्सल्य अंग कहा है तथा अहंत बिम्ब व जिनद्वालाल मन्दिर आदि पर घोर उपसर्ग प्रादि प्राने पर उसके दूर करने के लिये सदा तत्पर रहना चाहिए। क्योंकि सम्यग्दृष्टि पुरुष अपनी आत्मिक, शारीरिक, सैनिक आर्थिक और मन्त्र सम्बन्धी शक्ति के & रहते हुए जिन बिम्बादिक पर आई हुई आपत्ति उपसर्ग वाधादिक को सह नहीं सकता, न देख सकता है और न सुन सकता है अर्थात् अपनी जैन समाज के प्रति निश्चल भाव रखकर उससे परम स्नेह & करना, अपने पद के अनुसार या योग्य प्रावर मत्कार पूजा प्रशंसा प्रादि करना वात्शल्य अंग है । यानि जिन शासन में सदा अनुराग प्रीति रखना वात्सल्य अंग है । सम्यग्दृष्टि को अपनी समाज के & साथ, अपने धर्म के साथ और चतुर्विध संघ के साथ परम वात्सल्य रखना चाहिए, इन पर किसी & प्रकार को आपत्ति आवि आने पर तन, मन, धन से उसे दूर करने के लिये सदा उद्यत रहना चाहिए । & अपने जीते जी अपने धर्म समाज और संघ का किसी प्रकार का अपमान तिरस्कार या विनाश न होने देना चाहिए । ८ प्रभावना अंग--संसार में फैले हुए अज्ञान के प्रसार को सद्ज्ञान के प्रचार द्वारा दूर कर सदाचार का आचरण मन्त्र और विद्या आदि के प्रभाव द्वारा जिस प्रकार बने उस प्रकार से जैन शासन का महात्म्य संसार में प्रकट करना प्रभावना अंग है । वह आत्म प्रभावना और वाह्य Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनाना आत्म प्रभावना है । और विद्या बल से, मंत्र बल से, तप तथा दान प्रावि से श्री जनधर्म का उत्कर्ष करना, बढ़ावना वाह्य प्रभावना है। या कोई चमत्कार दिखाकर मिथ्या मार्ग का प्रभाव घटाना भी प्रभावना अंग में शामिल है। और रश पाषा, देदी प्रतिष्ठा, बिंब प्रतिष्ठा आदि भी प्रभावना अंग हाला में गर्भित है । अथ सम्यग्दर्शन के मद नामक आठ दोषों को लिखते हैं-- पिता भूप वा मातुल नप जो, होय तो न मद ठाने । मद न रूप को मदन ज्ञान को, धन बलको मद भान ॥१३॥ तपको मद न मद जु प्रभुताको, करै न सी निज जाने । मद धारै तौ येहि दोष वस, समकित को मल ठाने । अर्थ--पिता के राजा होने का, अथवा अपने कुल के ऊँचे होने का अभिमान करना कुल मद है । मामा के राजा होने का, मा के वंश के उच्च होने का अहंकार करता जाति मद है । शरीर की सुन्दरता का अभिमान करना रूप मव है । अपनो विद्या, कला, कौशल का मान करना ज्ञान मद है । अपने धन वैभव का घमंड करना धन मद है । अपनी शक्ति का गर्व करना बल मद है । अपने सपश्चरण, उपवासादि का मद करना तप मद है। अपनी प्रभुता वा ऐश्वर्य का अहंकार करना प्रभुता मद है। ये मद नाम के दोष हैं। जो इन मदों को नहीं करता है, वही जीव अपनी आत्मा को © जान पाता है। जो जोव इन मदों को धारण करते हैं, उनके सम्यग्दर्शन को निर्मलता नहीं रहती है पर & क्योंकि वह आठों मव सम्यग्दर्शन को मलीन कर देते हैं। इसलिये मद नहीं करना चाहिए। भावार्थ-- 8६ अज्ञानी और मिथ्यादृष्टि जीव को जाति, कुल, बल, वैभवादि का मद करते हैं । ज्ञानी और सम्य- ४ महष्टि जीव मब नहीं करते, क्योंकि वे जानते हैं कि जो वस्तु शरीर के आश्रित है, उन का विनाश Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छह ढालाई शरीर के विनाश के साथ ही हो जाना निश्चित है, फिर मैं पर संयोग से उत्पन्न हुई क्षण भंगुर वस्तुओं का क्या अभिमान करूँ ? इन वस्तुओं को मैंने पूर्व भावों में अनन्त वार पाया है और उनका अहंकार कर करके श्राज फिर परिभ्रमण कर रहा है। जिस बल, वैभव और ऐश्वर्य आदि के मद से प्रेरित होकर मैंने बड़े बड़े युद्ध किये, दूसरों को नीचा दिखाया और स्वयं अभिमान के शिखर पर चढ़ा उन बल वैभवों का आज पता तक नहीं है, फिर इस भव में कर्मोदय से प्राप्त इस आकिंचन क्षणभंगुर और तुच्छ संपदा को पाकर क्या गर्व करूँ ? जाति और कुल के भवों से प्रेरित होकर आज मैं जिन्हें नीच और अछूत कहता हूँ, कौन जानता है कि कल मुझे स्वयं उनमें जन्म लेकर बैसा न बन जाना पड़े, अथवा इससे पहले अनेकों बार मैं स्वयं नीच योनियों में उत्पन्न हुआ हूँ । स्वर्ग का महद्धिक देव भी मर कर क्षण में एकेन्द्रिय जीवों में आकर उत्पन्न हो जाते हैं । फिर मैं जाति और कुल का मदं क्यों करूँ ? ऐसे विचारों के कारण सम्यग्दृष्टि जीव आठों मदों में से किसी का भी मद नहीं करता है । जो जीव गर्ग से युक्त होकर अपने अहंकार से अन्य धर्मात्मा जनों का तिरस्कार या अपमान करता है, यह उस व्यक्ति का अपमान नहीं करता है, किन्तु धर्म का अपमान करता है । क्योंकि धर्नात्माओं के बिना धर्म ठहर नहीं सकता। इसलिए ज्ञानी पुरुष को किसी प्रकार अहंकार नहीं करना च. हिए। आगे छह अनायतनों और तीन मूढ़ताओं का वर्णन करते हैंकुगुरु कुदेव कुबुषसेवक की नह, प्रशंसा उचरे है । जिनमुनि जिनश्र ुत विन कुगुराविक, तिन्हें न नमन करें है ।। १४ ।। अर्थ – कुगुरु, कुदेव, कुधर्म, कुगुरु क्षेत्रक, कुदेव सेवक और कुधर्म सेवक इन छहों की स्तुति प्रशंसा आदि करने से छह अनायतन नामक दोष उत्पन्न होते हैं। इसलिये सम्यष्टि पुरुष इन को Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ & प्रशंसा आदि नहीं करता है। इसी प्रकार वह जिन मुनि, जिन शास्त्र और जिनदेव के सिवाय अन्य ४ 8 कुगुरु आवि को भय, आशा, स्नेह, लोभ, आदि किसी भी निमित्त से नमस्कार विनय आदि नहीं & करता है । यहां तीनों मूढ़ताओं का विस्तृत वर्णन पहिले अमूढ दृष्टि अंग में कर ही आये हैं । अब 8 ला. सभ्यग्दर्शन का माहात्म्य बतलाते हुए लिखते हैं दोषरहित गुनसहित सुधो जे, सम्यकदरश सजे हैं। चरितमोहवश लेश न संयम, पै सुरनाथ जज हैं । गेही पै गृह में न रचे ज्यों, जलमें भिन्न कमल है । नगरनारिको प्यार यथा, कादे में हेम अमल है ॥१५॥ अर्थ-जो बुद्धिमान पुरुष २५ दोषों से रहित और आठ अंगों से सहित सम्यग्दर्शन को धारण करते हैं उनके चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से लेशमात्र भी संयम न हो तो भी देवों का स्वामी इन्द्र उनकी पूजा करते हैं। इस प्रकार के प्रति सम्यग्दृष्टि जीव गृहस्थ घर में रहते हैं तो भी ॐ & उसमें लिप्त नहीं होते, अनासक्त होकर ही घर गृहस्थी का सब कार्य करते हैं। जैसे कमल जल में 3 & रहता हुआ भी उसमें लिप्त नहीं होता, किन्तु भिन्न हो रहता है, जैसे वैश्या का प्यार आगन्तुक पर 8 ऊपरी ही रहता है, भीतरी नहीं तथा जिस प्रकार कीचड़ में पड़ा हुआ सोना ऊपर से ही मैला होता & है पर भीतर तो निर्मल रहता है। इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव घर में रहते और भौगोपभोग को भोगते हुए भी उन सब से अलिप्त रहता है । आगे सम्यग्दर्शन को और भी महिमा लिखते हैं प्रथम नरक विन षट भू ज्योतिष, वान भवन षंढ नारी । थावर विकलत्रय पशुमें नहि, उपजत साप कित-धारी ॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छह ढाला तीनलोक तिहुंकाल माहिं नहि, दर्शनसम सुखकारी । सकलधरमको मूल यही इस बिन करनी दुखकारी ॥ १६ ॥ अर्थ- सम्यग्दृष्टि जीव प्रथम नरक के बिना नीचे के छह नरकों में उत्पन्न नहीं होता है। भवन वासो, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में भी उत्पन्न नहीं होता है तथा सब प्रकार की स्त्रियों में अर्थात् तिर्यंचनौ, मनुष्यनी और देवांगनाओं में भी उत्पन्न नहीं होता है, स्थावर, विकलत्रय और पंचेन्द्रिय पशुओं में भी उत्पन्न नहीं होता है, तीन लोक और तीनों कालों में सम्यग्दर्शन के समान सुखकारी वस्तु नहीं है । समस्त धर्म का मूल यह सम्यग्दर्शन ही है। इस सम्यग्दर्शन के बिना समस्त क्रियाओं का करना केवल दुःखदायक हो है । भावार्थ - यदि सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के पश्चात् जीव के परभव संबन्धी आयु का बंध होता है तो मनुष्य और देवायु का ही बन्ध होता है । इसलिए वह न किसी नरक में जाता है और न किसी प्रकार के तिर्यंचों में ही पैदा होता है, किन्तु जिस जीव के सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होने के पूर्व ही नरक तिर्यच आयु का बंध हो जाता है तो उसे उस गति में तो नियम से जाना ही पड़ता है । परन्तु नरक में वह प्रथम नरक से नीचे नहीं जाता है और तियंचों में भी वह भोग भूमि के असंख्यात वर्ष की आयु वाले पुरुष वेदी तिथंचों में ही जन्म लेता है, एकेन्द्रिय विकलत्रय कर्म भूमि के पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में नहीं । मनुष्य गति में यदि वह उत्पन्न हो तो या तो भोग भूमि का पुरुष वेदी मनुष्य ही होगा या कर्मभूमिका महान् पराक्रमी, लोकातिज्ञायो, बल वीर्य का धारक मानव तिलक होगा, किन्तु दरिद्री, होनांगी, विकलांगी, रोगी, शोको और अल्पायु का धारक नहीं होगा । इसी प्रकार देवगति में भी भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और हीन जाति के कल्पवासियों में उत्पन्न नहीं होगा । और इसके प्रभाव से नौ और चौदह रत्नों का स्वामी चक्रवतिपद प्राप्त होता १ पृष्ठ (६६ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .2 है । तथा लोक्य का स्वामित्व रूप महान् तीर्थकर पर भी इसी निर्मल सम्यग्दर्शन के प्रभाव से 8 मिलता है। ऐसा जानकर सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का उणय करना चाहिए । आगे सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान और चारित्र' यथार्थता को प्राप्त नहीं होता है। मोक्षमहल की परथम सीढ़ी, या विन ज्ञान चरिता । सम्यकता न लहै सो दर्शन, धारों भव्य पवित्र ॥ 'दौल' समझ सुन चेत सयाने, काल वृथा मत खोवै । यह नरभव फिर मिलन कठिा है, जो सम्यक नहिं होवे ।।१७॥ अर्थ-- यह सम्यग्दर्शन मोक्षरूपो महल में जाने के लिए पहली सीढ़ी है । इसके बिना ज्ञान 8 और चारित्र सम्यक् पना नहीं पाते, अर्थात् जब तक जीव के सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं हो जाता है, तब तक उसका ज्ञान मिथ्या और चारित्र मिथ्या चारित्र कहलाते हैं। क्योंकि ग्रंथकर्ता ने इसे मोक्ष मार्ग में कर्ण धार के समान कहा है। हे भव्य जीवों ! हे समझदार सयानो ! ऐसे पवित्र और महान 8 सम्यग्दर्शन को अवश्य धारण करो और सुनो, समझो और खेतो, सावधान हो जायो और अपने समय को व्यर्थ बर्बाद मत करो, देखो यषि इस जन्म में भी सम्यग्दर्शन को प्राप्त नहीं कर सका तो फिर इस मनुष्य भव का मिलना अत्यन्त कठिन हो जायगा । यह जीव अनादि काल से संसार में परिभ्रमण करने वाला यह मिथ्यात्व कर्म के उदय से द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव रूप पंच परावर्तन मय संसार में परिचमण करता हुआ आया है परन्तु इस जीव को अनन्त काल में भी अब तक सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं हुई । क्योंकि सम्यग्दर्शन के प्राप्त होने से फिर यह जीव पंच परावर्तन रूप संसार में 8 परिममण नहीं करता । परन्तु यह जीव संसार में परिभ्रमण कर रहा है, इससे सिद्ध होता है कि इस Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . अभी तक सयदशम को प्राप्ति नहीं हुई । इसलिए भव्यात्मा को सब से पहले सम्यग्दर्शन धारण ४ करने का प्रयत्न करना चाहिए । इस जीव को जब शुद्ध सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाता है तभी से यह आरमा अंतर आत्मा हो जाता है और परम सुखी हो जाता है, तथा जब तक इस जीव को सम्यग्वशन की प्राप्ति नहीं होती है तब तक यह जीव महातुखी रहता है। इसलिए सम्यग्दर्शन समस्त सुखों का कारण है। भावार्थ-यदि कोई जीव प्रमाण नय निक्षेप का स्वरूप अच्छी तरह जानता हो छंद शब्दालंकार अर्थालंकार नाटक काव्य चरित्र पुराण न्यायालंकार तर्क व्याकरण का अच्छी तरह जानफार हो तथा लौकिक अन्य कार्य में कितना हो निपुण हो तथापि बिना सभ्यग्दर्शन के उसे दीर्घ संसार हो समझना चाहिये, चाहे जैसा विद्वान् क्यों न हो । इसलिए संसार सागर को पार करने वाला एक सम्यग्दर्शन ही है । सम्यग्दर्शन के सिवाय अन्य किसी से भी मोक्ष सुख की प्राप्ति नहीं होती है । इस प्रकार सम्यग्दर्शन का वर्णन किया। तीसरी ढाल समाप्त । चौथी बाल में ग्रन्थकार सम्यकज्ञान के धारण करने का उपदेश देते हैं । दोहा-सम्यक् धद्धा धारि पुनि, सेवहु सम्यकज्ञान । स्व-पर अर्थ बहु धर्म जुत, जो प्रकटावन भान ॥१॥ अर्थ-सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर फिर सम्यग्जान धारण करना चाहिए । यह सम्यग्ज्ञान अनेक धर्मों से युक्त स्व और पर को और पर पदार्थों को जान कराने के लिए सूर्य के समान प्रकाशदायक है आत्मा को आत्मा से ही आत्मा का ज्ञान करा देता है। जैसे सूर्य अपने आपको प्रकाशित करते हुए अपने से भिन्न अन्य समस्त पदार्थों को प्रकाशित करता है इसी प्रकार सम्यग्ज्ञान भी अपनी आत्मा को और शेष समस्त पदार्थों को प्रकाशित करता है। ये सम्यग्दर्शन और सम्यग्जान एक साथ उत्पन्न Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .8 होने पर भी भिन्न-२ हैं एक नहीं जब तक अपनी आत्मा का जानकार नहीं है तब तक शुद्ध स्वरूप & की प्राप्ति नहीं होती है। क्योंकि कर्मों का नाश दुःख की निवृति और सुख की प्राप्ति आत्मा स्वरूप छह 8 में परिणति होने से होती है । को अपनो आत्मा को नहीं देखता और नहीं जानता है, न आत्मा के स्वरूप को अपने भावों में लगाता है, न अचान करता है और न पह आत्मा अपनी आत्मा परिणति में लवलीन तल्लीन होता है, तो फिर वह अनन्त संसार का हो पात्र है । उसको अनन्त सुख की प्राप्ति भी नहीं होती है । अति गदा आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप टकोत्कीर्ण ज्ञायक 8 स्वभाव आत्मा को जान लेता है, अपने शुद्ध चिदानन्द स्वरूप को प्राप्त हो जाता है, उसी समय अनन्त मुख स्वयमेव प्राप्त हो जाता है, ऐसा ज्ञानराज का स्वराज है, वहीं निवास करो । रोला छन्द २४ मात्रा-सम्यक साथ ज्ञान होय, पै भिन्न आराधो । लक्षण श्रद्धा जान, दुहमें भेद अवाधौ ॥ सम्यककारण जान, ज्ञान कारज है सोई ।। युगपद होते ह, प्रकाश दीपकतै होई ॥१॥ अर्थ – यद्यपि सम्यग्दर्शन के साथ ही सम्याज्ञान उत्पन्न होता है तथापि उन दोनों का भिन्न भिन्न ही आराधन करना चाहिए । क्योंकि सम्यग्दर्शन का लक्षण यथार्थ श्रद्धान करना है और सम्यग्ज्ञान का लक्षण यथार्थ जानना है, इस प्रकार दोनों में अवाधित भेव है। सम्यग्दर्शन कारण है और सम्यग्ज्ञान उसका कार्य जानना चाहिए । इन दोनों के एक साथ उत्पन्न होने पर भी बीपक और प्रकाश के समान उनमें कार्य कारण भाव है जिस प्रकार बीपक का जलना और उसका प्रकाश एक 3 ही समय में प्रकट होता है तो भी वोपक का जलना कारण है और प्रकाश उसका कार्य है । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . भावार्थ-पदार्य के स्वरूप को यथार्थ जानने को समयाज्ञान कहते हैं । यह सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन 8 8 के समान ही आत्मा का निज स्वरूप है, इसलिए अब आत्मा में सम्यादर्शन गुण प्रकट होता है तभी सम्यग्ज्ञान भी प्रकट हो जाता है । अर्थात् मिथ्यात्व दशा में जो मति, श्रुत आदि ज्ञान थे और सम्यग्दर्शन न प्रकट होने से अभी तक मिथ्या ज्ञान कहलाते थे वे ही सभ्यग्दर्शन प्रकट होने के प्रभाव से सम्यकज्ञान कहलाने लगते हैं । अन्य कोई भेद नहीं जानना चाहिए । अर्थात् सम्यग्रष्टि जीव प्रयोजन भूत जीवादि तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप का जानकार होता है, इसलिए अन्य पदार्थ जो उसके जानने में आते हैं वह उन सबका यथार्थ रूप ही श्रदान करता है, अतएव उसका ज्ञान सच्चा कहलाता & है। किन्तु मिथ्यादृष्टि जीव जीवावि मूल-तत्त्वों के पथार्थ ज्ञान से रहित होता है, इसलिए अन्य अप्रयोजनीय जो पदार्थ उसके जानने में आते हैं, यह उनको भी अयथायं ही जानता है । इसी कारण उसका ज्ञान मिथ्या कहलाता है । मिथ्या दृष्टि का जान अनिश्चित होता है, सम्यग्दृष्टि के समान पदार्थों को जानते हुए भी उसके ज्ञान में पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को जानने की कमी रहती 8 0 है । मिथ्या दृष्टि का ज्ञान कारण विपर्यास, भेरा-भेद विपर्यास और स्वरूप-विपर्यास रूप होने के ल कारण मिथ्याज्ञान कहलाता है । इन तीनों का संक्षिप्त स्वरूप क्रमशः इस प्रकार आनना चाहिए:कारण विपर्यास-पदार्थों को अवस्थाएँ प्रतिक्षण बदसती रहती हैं । उनका यथार्थ कारण क्या है ? 8 इस बार के यथार्थ ज्ञान न होने को या उसके अन्य मतावलम्बियों द्वारा माने गये विपरीत कारणों को मानना सो कारण विपर्यास है। जैसे--रूपी जड़ पदार्थों का भी मूल कारण एक अमूर्तिक नित्य-28 ब्रह्म को मानना, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु के शरीराकार परिणत परमाणुओं को भिन्न-भिन्न मानना 8 समस्त संसारो जीवों को एक परमात्मा के अंश मानना, चेतन को अपरिणमनशील मानना । क्रोध, Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लमसूर......... j n द्वाला मान मायादि को जीव के वभाविक भाव न मानकर प्रकृति के विकार मानना आदि । भेदा भेद विपर्यास के कारण से कारण को सर्वथा भिन्न या सर्वथा अभि न मानना, यह भेदा-भेद विपर्यास है। क्योंकि यथार्थ में उपादानरूप से कारण के समान ही कार्य होता है, इस अपेक्षा तो कारण से कार्य & अभिन्न है किन्तु पर्याय के बदलने की अपेक्षा कारण से कार्य भिन्न है । इस प्रकार अनेकान्तवाद को 2 दृष्टि से, कारण से कार्ग में कांचित् भेवा-भेद है। सर्वथा नहीं । स्वरूप विपर्यास-रूप रस आदि को & निर्विकल्प या ब्रहम रूप समझना या उन्हें ज्ञान स्वरूप पर्याय मात्र समझना स्वरूप विपर्यास है । मिथ्या दृष्टि जोव कदाचित् शास्त्रों के विशेष अभ्यास से पदार्थों का स्वरूप यथार्थ जान भी ले तो भी उन से सांसारिक बन्ध रूप अभिप्राय की ही सिद्धि करता है, मोक्षरूप साधन की सिद्धि नहीं करता। इसलिए मिथ्यादृष्टि का ज्ञान मिथ्याज्ञान ही कहलाता है, सम्पज्ञान नहीं । सम्यग्दर्शन और सम्यकशान इनकी आराधना भिन्न भिन्न करनी चाहिए। क्योंकि दोनों स्वतन्त्र गुण हैं । सम्यग्दर्शन को आराधना से उसमें उत्तरोत्तर शुद्धि होगी और सम्पज्ञान को आराधना से उत्तरोत्तर ज्ञान को शुद्धि होगी । इसलिए है सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो जाने के पश्चात् सम्यक ज्ञान को प्राराधना करनी चाहिए । सम्यक ज्ञान को ४ शास्त्राभ्यास आदि के द्वारा उसे निरंतर बढ़ाते रहना चाहिये, ऐसा उपदेश दिया है। अब सम्यक् ६ ज्ञान के भेदों का वर्णन करते हैं। तास भेद दो हैं परोक्ष परतछि तिन मांही, मतिश्रु त दोय परोक्ष अक्ष मनतें उपजांही । अवधि ज्ञान मनपर्यय दो हैं देश प्रतच्छा, द्रव्य क्षेत्र परिमाण लिए जाने जिय स्वच्छा ॥२॥ Marwwwwwwwwwwwwwwwwwwcom Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ अयं उस सम्यग्ज्ञान के दो भेव हैं । एक परोक्ष दूसरा प्रत्यक्ष । इनमें मति ज्ञान और श्रुत है ज्ञान, ये बो परोक्ष शान कहलाते हैं, यह ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता से उत्पन्न होते हैं । अवधि है ज्ञान और मनःपर्यय ज्ञान ये दो देश प्रत्यक्ष ज्ञान हैं क्योंकि इनके द्वारा जीव द्रव्य, क्षेत्र, काल और है भाव का परिमाण लिए हुए रूपी पदार्थों को स्पष्ट जानता है । सकल द्रव्य के गुण अनन्त परजाय अनन्ता, जानै एकै काल प्रगट केवलि भगवन्ता । ज्ञान समान न आन जगत में सुख का कारण, यह परमामृत जन्म जरामत रोग निवारण ॥३॥ अर्थ-केवलो भगवान अपने केवलनान के द्वारा समस्त द्रव्यों के त्रिकालती अनन्त गुणों है और अनन्त पर्यायों को एक समय में एक साथ प्रत्यक्ष जानते हैं। संसार में जान समान मुख का अन्य कोई कारण नहीं है। यह सम्यग्ज्ञान जन्म, जरा और मरण रूपी रोग के निवारण करने के है & लिए परम अमृत के समान है । भावार्थ-सम्यक ज्ञान के मूल दो भेद हैं-१ परोक्ष ज्ञान और २६ प्रत्यक्ष ज्ञान । जो ज्ञान पांच इन्द्रिय और मन की सहायता से पदार्थों को जानता है, उसे परोक्षज्ञान कहते हैं। इस परोक्ष ज्ञान के दो भेद हैं-१ मति ज्ञान और २ श्रत ज्ञान । पाँच इन्द्रिय और मन इन छहों में किसी एक के द्वारा एक समय में किसी पदार्थ का जानना मति ज्ञान है। जैसे इन्द्रिय से शीत, उष्ण, स्निग्ध, रुक्ष आदि पदार्थो का जानना, रसना इन्द्रिय से खट बट्टे, मोठे, तोखे, & चरपरे आदि पदार्थों का मानना, घाण इन्द्रिय से सुगन्ध, दुर्गन्ध को जानना, चक्षु इन्द्रिय से काले, X पीले, नीले, लाल आदि को जानना और कण इन्द्रिय से नाना प्रकार के शम्मों को सीधा मानना तथा Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन से एकाएक किसी पदार्थ को जान लेना मति ज्ञान है । मति ज्ञान के द्वारा जाने हुए पदार्थों के सम्बन्ध से तत्सम्बन्धी विशेष को या पदार्थांतर को जानना श्रुत ज्ञान है । जैसे किसी ने एक व्यक्ति को लाठी मारी, पहाँ पर लाठी को कठोरता ज्ञान तो मति ज्ञान है और उसके प्रहार से दुःख का अनुभव करना श्रुत ज्ञान है इस अनक्षरात्मक भूत ज्ञान कहते हैं । कर्ण इन्द्रिय से शब्द को सुनकर अर्थ को समझना अक्षरात्मक भुत ज्ञान है । जैसे जोष शब्द सुनकर जीव द्रव्य का ज्ञान कर लेना। यह सैनी पंचेन्द्रिय जीवों के ही होता है, किन्तु अनक्षरात्मक श्रत ज्ञान सब जीवों के होता है । इन्द्रिय 8 & आदि की सहायता के बिना पदार्थो के स्पष्ट जानने को प्रत्यक्ष कहते हैं. इस प्रत्यक्ष ज्ञान के दो भेद 8 हैं, देश प्रत्यक्ष और सकल प्रत्यक्ष । अवधि ज्ञान और मनः पर्यप ज्ञान को देश प्रत्यक्ष कहा है, क्यों कि यह दोनों जान अपने विषयभूत पगों के एक देश को हो स्पष्ट जानते हैं, सब देश को नहीं। केवल ज्ञान सकल प्रत्यक्ष है, क्योंकि त्रिलोक और त्रिकालवी ऐसा कोई पदार्थ नहीं, जिसे यह हाथ में रखे हुए आँधले के समान स्पष्ट न जानता हो । इन तीनों प्रत्यक्ष का स्वरूप इस प्रकार है । अवधि ज्ञान--द्रध्य, क्षेत्र, काल और भाव को अपेक्षा पूर्वक रूपी पदार्थो के स्पष्ट जानने को अवधि ज्ञान & कहते हैं। पुद्गल द्रव्य को रूपो पदार्थ कहते हैं। अतः यह अवधि ज्ञान स्थूल पुद्गलों से लेकर सूक्ष्म पुद्गल परमाणु तक को प्रत्यक्ष जान सकता है। यही अवधि ज्ञान पुद्गल के निमित्त से होने ५ & बाली जीव को मनुष्य, तिथंच आदि त्रिकालवति पर्यायों को अपनी शक्ति के अनुसार जान लेता है, शक्ति के अनुसार कहने का अभिप्राय यह है कि जिन जीवों की अवधि ज्ञान होता है, उन सब के एक & सा नहीं होता है। किन्तु विशुद्धि और संयम की अपेक्षा हीन या अधिक होता है । जीव के ज्यों ज्यों परिणामों में विशुद्धि बढ़ती जाती है, त्यों त्यों अवधि ज्ञान के द्वारा जानने की शक्ति भी बढ़ती जाती Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छह ॐ है। देव और नारकियों के जो अवधि ज्ञान होता है उसे भव प्रत्यय अवधि कहते है । क्योंकि, वह देवल 8 या नरक पर्याय के निमित्त से उत्पन्न होता है । नारकी के सबसे छोटा भवप्रत्यय अवधिज्ञान होता है और देवों के सबसे बड़ा भवप्रत्यय होता है। मनुष्य और तिर्धचों के जो अवधिज्ञान होता है उसे क्षयोपशमिक अवधि ज्ञान कहते हैं । यह अवधि ज्ञान तीन प्रकार का है । देवावधि, परमावधि और सर्वावधि देव, नारको और तिर्यचों के देशावधि ज्ञान होता है, किन्तु मनुष्यों के तीनों प्रकार का अवधि ज्ञान हो सकता है उसमें भी परमावधि और सविधि तो तद्भव मोक्षगामी संयमी मनुष्य के ही होता है । & इस मिलान के द्वारा पिटले ना अपामो भवों का वर्णन जीवों के पारस्परिक खोई, गुमी या चुराई गई वस्तुओं का परिज्ञान, गढ़े हुए और नष्ट हुए धन आदि का बोध होता है । मनःपर्यय ज्ञान द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव को मर्यादा लिए हए दूसरों के मन की बातों को जानने वाले जन को मनःपर्यय ज्ञान कहते हैं। इस मनःपर्यय ज्ञान के दो भेद है--ऋजमति मन:पर्यय ज्ञान और विपुलमति मनः 3. पर्यय ज्ञान । जो दूसरे के मन को सीधी या सरलता से सोची गयी बात को जाने वह ऋजुमति मनःपर्यय शान है. और जो कुटिलता पूर्वक चिन्तन की गई या न को गई मनकी बात को जाने उसे विपुलमति मनःपर्यय ज्ञान कहते हैं । ऋजुमति मनःपर्यय वाला अपने या दूसरों के साथ आठ भवों तक के मन की बात को जान सकता है, किन्तु विपुलमति बाला असंख्यात भवों तक को सोचो अर्ध विचारो आदि मनकी बातों को जान सकता है । ये दोनों शान महान संयमी साल के हो होते है । इनमें विपुलमति मनःपर्यय ज्ञान तद्भव मोक्षगामी महान संयमी पुरुष के होता है और केवल झान जो त्रिकालवों समस्त द्रव्यों को और उसके अन-त गुणों और अनन्त पर्यायों को एक साथ हस्ताग्रमा- & वत् जाने उसे केवलशान कहते हैं। चार घातिया कर्मों के, तीन आयु कर्म के, तेरह नाम कर्म प्रकृति Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 के भय होने से हो यह ज्ञान प्रकट होता है, अतएव यह क्षायिक ज्ञान कहलाता है इसके द्वारा पदार्थों को जानने के लिये इन्द्रियों को आवश्यकता नहीं होती, अतएव इसे अतीन्द्रिय ज्ञान कहते हैं। 8 छह ४ इसके प्रकट होने पर मतिश न आदि चारों क्षयोपशमिक ज्ञान नष्ट हो जाता है, केवल एक मात्र ये हो ढाला शान रह जाता है. इसी लिए इसको केवलनान कहते हैं । अरहन्त और सिद्ध भगवान् के यह कान होता है, अन्य के नहीं । छहढालाकार कहते हैं कि ज्ञान के समान अन्य कोई पदार्थ सुख का कारण नहीं है । यथा में सुख का सम्बन्ध या उसका अाधार मान हो है । यथार्थ में सुख की प्राप्ति न से ही है, जिसको जितना यथार्थ ज्ञान होता जाता है, उसे उतने ही परिमाण में सुख भी बढ़ता जाता है । जो कोई एक भी शास्त्र को अच्छी तरह से जानने वाला मनुष्य अत्यन्त सन्तोष या परम & आनन्द का अनुभव करता है तो जो संसार के समस्त पदार्थों को प्रत्यक्ष जान और देख रहा है वह कितना अधिक अानन्द और सुख का अनुभव नहीं करेगा ? कह्न का सारांश यह है कि जिसके अनन्त ज्ञान होता है उसी को अनन्त सुख भी होता है । अब शान को महत्ता वाले मनुष्य को कहते हैं । जो मनुष्य देव मूढ़ता, गुरु मूदता, और लोक मढ़ता, माया, मिथ्या, निवान, शल्य, राग, द्वेष, मोहः मन, वचन, काय तीन दण्ड, तीन गर्व से रहित और रत्नत्रय, अधःकरण, अपूर्व करण, अनिवृत्तकरण से सुशोभित है और मन, बचन, काय शुद्ध है, तथा शुद्ध रोति से तीतों गुप्तियों का पालन करता है, अठाइस मूल गुरण, चौरासी लक्ष उत्तर गुण, दशलक्षण धर्मयुक्त, सम्यग्दर्शन, सम्यशान, सम्यक्-- चारित्रयुक्त, ममता परिणामी, शान्त स्वभावी, संयम साधन में उद्यमी, क्षायक श्रेणी में चढ़ने को उद्यमी, दयावन्त, संसार शरीर के भोग के विषय से उदासीन, पंचेन्द्रियों के विषय भोगों से परान्मुख, यहा दिनय-- वान, धर्म के धारी, देशावधि, परमावधि, सर्बावधि ऋजुमति मनःपर्यय ज्ञानो, विपुलमति मनःपर्यय Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानी, महाक्षमावात, अष्ट महारिद्धिधारी, मुनिराज ही केवल ज्ञान वस्तु के पात्र होते हैं । अव ज्ञान की महत्ता सलाते ए आत्मज्ञान को सर्वश्रेष्ठता सिद्ध करते हैं । कोटि जनम तप तपैं, ज्ञान बिन कम झरै जे । ज्ञानी के छिन मांहि निगप्ति ते सहज टरै जे । मनि प्रत धार अनन्त वार ग्रीवक उपजायो । पै निज आतम ज्ञान बिना सख लेश न पायो ॥४॥ ___ अर्थ--अज्ञानी जीव आत्म ज्ञान के बिना करोड़ों जन्मों में तप करके जितने कर्मों को निर्जरा करता है, उतने कर्मों की निर्जरा ज्ञानी पुरुष के मन वचन काय को वश में करने से एक भला भर में अनायास सहज ही हो जाती है। यह जीव मुनिव्रत को धारण कर अनन्त वार नव वेयक तक उत्पन्न हो चुका है, तथापि अपनी आत्मा के यथार्थ ज्ञान के बिना इसने लेशमात्र भी यथार्थ सुख नहीं पाया। तातें जिनवर कथित, तत्व अभ्यास करीजै । संशय विनम मोह, त्याग आपो लख लीजै । यह मानुष पर्याय सकल सनिवो जिन वानी । इह विधि गये न मिले, समणि ज्यों उदधि समानि ॥५॥ अर्थ-इसलिये जिन भगवान के द्वारा कहे गये तत्त्वों का अभ्यास करना चाहिए। और 8 संशय, विभ्रम तथा अनधयवसाय का स्याग कर आत्मा के स्वरूप का अनुभव करना चाहिए। यह मनुष्य पर्याय, उत्तम कुल, जिन वाणी का सुनना, ये सब सुयोग यदि यो हो वृथा चले गये तो वे 8 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुद्र में समा गए हुए उसम रत्न के समान फिर नहीं मिल सकेंगे । भावार्थ---ग्रन्थकार यहाँ सम्यक् ज्ञान को अराधना के लिए उपदेश देते हैं कि सम्यक् ज्ञान को प्राप्ति के लिये जिन भगवान द्वारा उपदृष्टि सात तत्त्वों का संशय विभ्रम और मोह को त्याग कर अभ्यास करना चाहिए, क्योंकि यह सात तत्त्व ही प्रयोजनभूत हैं, प्रात्मा के इष्ट सिद्धि के साधक है। संशय आदि का स्वरूप इस प्रकार जानना चाहिए । परस्पर विरोधी अनेक कोटि के स्पर्श करने ल वाले ज्ञान को संशय कहते हैं। जैसे दूर पड़े हुए किसी चमकीले पदार्थों को देखकर संदेह करनाल कि यह सीप हैं या चांदी । विपरीत एक कोटि के निश्चय करने वाले ज्ञान को विभ्रम कहते हैं । जैसे सोप को चांदी समझ लेना इसी का दूसरा नाम विपर्यय या विपरीत ज्ञान है । वस्तु सम्बन्धी पथार्थ ज्ञान के प्रभाव को मोह या विमोह कहते हैं । जैसे मार्ग में चलते समय किसी वस्तु का स्पर्श होने पर उसका यर्थाथ निर्णय न कर, सोचना कि कुछ होगा । इसको अनध्यवसाय भी कहते हैं। ले ये तीनों मिथ्याजान कहलाते हैं, क्योंकि वे वस्तु के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान नहीं कराते । सब साधारण लोगों को प्रवृत्ति प्रायः इन तीनों मिथ्या ज्ञानों के अनुरूप पाई जाती है । इसीलिये ग्रन्थकार कहते हैं कि इन तीनों अज्ञानों को दूरकर और यह निश्चय कर कि जिनोपदृष्टि तत्व हो सत्य है । उसका अभ्यास करके अपने पाप को लखना चाहिए कि मैं कौन हूँ मेरा क्या स्वरूप है और मुझे क्या प्राप्त करना है। यहां पर एक बात खास तौर पर ध्यान रखने को है कि तत्व ज्ञान के साधक शास्त्रों का अभ्यास सम्पज्ञान के आठ अंगो के धारण करने के साथ ही करना चाहिए, तभी स्थाई और, यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति होती है । सभ्यज्ञान के ये आठ अंग इस प्रकार हैं--१ प्रन्थाचार-व्याकरण के अनुसार अक्षर, पद, मात्रादि का शुद्धत्ता पूर्वक पठन-पाठन करना । छन्द शास्त्र के अनुसार Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 विविक्षत पद्य को उसी छन्द के राग से पढ़ना ग्रन्थाचार है । २ अर्थाचार--ग्रंथ के यथार्थ शुद्ध अर्थ ४ के निश्चय करने को अर्थाचार कहते हैं। ३ उभयाचार - मूल ग्रंथ और उसका अर्थ इन दोनों के 8 शुद्ध पठन पाठन और अभ्यास या धारण करने को उभयाचार कहते हैं । ४ कालाचार-अध्ययन के लिए जिस समय को शास्त्रकारों ने अकाल कहा है उस समय को छोड़कर उत्तम योग्य काल में पठन पाठन कर ज्ञान के विचार करने को कालाचार कहते हैं । ५ विनयाचार--शुद्ध जल से हाथ पांव भोकर निर्जन्तु स्वच्छ एवं निरूपद्रव स्थान में पद्मासन बैठकर विनयपूर्वक शास्त्राभ्यास तत्त्व चिन्तवत आदि करने को विनयाचार कहते हैं । ६ उपधानाचार:-धारणा सहित ज्ञान को आराधना करने को उपधानाचार कहते हैं । अर्थात् जो कुछ पढ़े उसे भूल न जावे याद रखे । ७ बहुमानाचार.. ज्ञान और ज्ञान के साधन शास्त्र पुस्तक गुरु आदि का पूर्ण सम्मान करना बहुमानाचार है । ८ अन्हिनवाचार-जिस गुरु से या जिस शास्त्र से ज्ञान प्राप्त करे उसके नाम को न छिपाने को अन्हि-- नवाचार कहते हैं। इन पाठों को धारण कर उनका अच्छी तरह पालन करते हुए हो सम्यक्-- ज्ञान की आराधना करनी चाहिए, तभी वह स्थिर रहता है और वास्तविक फल को देता है । यह ल जीव चतुर्गति में एकन्द्रिय पर्याय से निकल कर अधिक से अधिक दो हजार मागर तक पर्याप्त ४ अवस्था में रहता है इतने समय के भीतर यदि वह संसार परिभ्रमण से छूटकर सिद्ध हो गया तब तो ठीक है अन्यथा फिर नियम से एन्द्रिय पर्याय निगोद में चला जाना होगा और वहां असंख्यात लेप & काल तक फिर जन्म मरण करता हुआ पड़ा रहना होगा, जो कि त्रस पर्याय को दो हजार सागर की काय स्थिति बतलाई है । उसमें से बहु भाग समय तो द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, आदि क्षुद्र जोव जन्तुओं ४ & की पर्यायों के भीतर घूमने में ही चला जाता है । पंचेन्द्रिय पर्याय के लिये बहुत कम समय बतलाया ४ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ & है। फिर उस अवशिष्ट समय में भी नरकपति और पंचेन्द्रिय पशुगति के भीतर परिभ्रमण करने में 9 3 बहु भाग समय चला जाता है । अवशिष्ट जितना समय बचा उसके भीतर वह मनुष्य और देव गति में जन्म लेता है। मनुष्य होकर भी बहु भाग पर्याय तो नोच कुल में उत्पन्न होने, रोगी, शोकी, होनांग, विकलांग, गूगे, बहरे, अन्ये, लंगड़े आदि होने के रूप में ही निकल जाती है, उत्तम कुल में जन्म लेना अत्यन्त कठिन बतलाया गया है । यदि भाग्योदय वश उत्तम कुल में जन्म भी हो गया तो निरोग शरीर का मिलना अत्यन्त कठिन है पदि वह भी मिल गया तो धर्म बुद्धि का होना बहुत दुर्लभ है, क्योंकि यह जीव अनादि काल के संस्कार वश प्रकृति स्वभाव से विषय-- भोगों की ओर रहता है । यदि किसी सुयोग से धर्म बुद्धि भी जागृत हुई तो वह संसार में फंसे हुए नाना मत मतान्तरों में उलझकर मिथ्यात्व का ही पोषरण करके संसार वास के बढ़ाने में ही लगा रहता है या लग जाता है, अतः सच्चे धर्म की प्राप्ति का होना अत्यन्त कठिन माना गया है । इसी समझ8 को ध्यान में रखकर मनुष्य पर्याय, उसमें भी उत्तम कुल जो श्रावक कुल, और उसमें भी जिनवाणी & का सुनना उत्तरोत्तर अत्यन्त दुर्लभ है । इन्हें पाकर भी जो कि आज कर्मवश से प्राप्त हुई है, यदि हमने उनसे लाभ नहीं उठाया, सरचे मोक्ष मार्ग में गमन नहीं किया, तत्त्वों का अभ्यास कर क्षत्रिय 8 धर्म को धारण नहीं किया और यह नर भव पाकर स्यर्थ यों ही खो दिया फिर उसका पाना ही ध्यर्थ 8 हुआ। फिर पाना भी कठिन है, जैसे की समुद्र में गिरे हुए महामणि का पुनः मिलना अत्यन्त कठिन होता है । जैसे मरुस्थल के कूप में रस्सी से बालटी गिर जाना, फिर मिलना कठिन है सौ हाथ कूप 8 में डोरी लोटा चला गया है और हाथ में अन्त की गांठ रह गई है जो चली गई तो मिलना कठिन & है । इस सब के कहने का सारांश यही है कि मनुष्य जीवन के एक एक समय क्षण को अत्यन्त साप Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धानी पूर्वक रक्षा करनी चाहिए और उसे रत्नत्रय की आराधना में लगाकर नर भव सफल करना & चाहिए । इस संसार में जो कोई भी वस्तु आत्मा के काम आने वाली नहीं है। एक सच्चा सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान ही काम आयगा । अतः उसे पाने के लिये जैसे बने तैसे प्रयत्न करो । संसार से पार 8 लाल करने वाला सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के सिवाय अन्य किसी से भी मोक्ष सुख की प्राप्ति नहीं होतो & है। जो जीव सवन, धन, धान्य, जाति, कुल, पुत्र, पौत्रादिक, वनिता, माता, पिता, वस्त्र, मन्त्रो, & मालिक, शिष्य, प्रशिष्य आदि में ममत्व करता है, या ममत्व करने का कारण आतं रौद्र ध्यान करता & है, तब क्या वह, उत्तम सुख पा सकता है ? नहीं पाता है । जो मोक्ष मार्ग में गमन करना चाहता है ले 8 तो रत्नत्रय का पूर्ण तौर से साधन कर और किसी से भी ममत्व नहीं कर । सुनिये ग्रन्थकार कहते हैं धन समाज गज बाज, राज तो काज न आवै । ज्ञान आपको रूप भये, फिर अचल रहावै ॥ तास ज्ञान को कारन, स्वपरविवेक बखान्यो । कोटि उपाय बनाय, भव्य ताको उर आन्यो ॥६॥ अर्थ-रात दिन अनेक कष्ट उठाकर उपजित किया हुआ यह धन, यह जन, समाज, हाथी, यह राज-पाट आदि कोई भी लौकिक संपवा आत्मा में किसी भी काम में आने वाली नहीं है। सब यहां के यहां ही रह जाने वाली है। मरने पर कोई भी पदार्थ प्रात्मा के साथ चलने वाला नहीं है । एक सच्चा सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान ही साथ चलता है। जिन्हें इनको प्राप्ति हो जाय तो . वह अचल रहता है, कभी नहीं छूटता है, परभव में भी साथ चलता है, क्योंकि ज्ञान दर्शन आत्मा 8 का स्वरूप है । जो ऐसे आत्म ज्ञान से परिपूर्ण है और परम वैराग्य को धारण करता है, जिम का 8 Bur Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हालाले ४ सम्यग्दर्शन अत्यन्त शुद्ध है और राग, द्वेष. मोह से सर्वथा दूर है, और परम वीतराग भाव को सच्चे मन से धारण करता है, ऐसा मुनि मोक्ष का स्वामी होता है । अर्थात् सम्यग्ज्ञान को प्राप्त कर वैराग्य & उत्पन्न करता है, तपश्चरण को वृद्धि करता है, सब तरह से इच्छारहित वीतराग चारित्र को बढ़ाता है वह शीधा हो मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। इसलिए आपापरका भेद ज्ञान बतलाया गया है इसलिए हे भव्य जीवों ! कोटि उपाय बनाकर जैसे बने उस प्रकार से प्रयत्न कर उस स्व-पर विवेक को अपने हृदय से मिलाओ ! आगे और भी ज्ञान की महिमा बतलाते हैं जै पूरव शिव गये, जाँय अब आगै जै हैं । सो सब महिमा ज्ञानतनी, मुनिनाथ कहै हैं । विषयचाह-दव-दाह, जगत जन अरनि दझावै । तासु उपाय न आन ज्ञान धनधान बुझावै ॥७॥ अर्थ-आज से पहले भूतकाल में जितने अनन्त जीव मोक्ष को गए हैं. आज वर्तमान में 8 विवेह क्षेत्रों में जा रहे हैं और आगे भविष्य काल में जितने अनन्तानन्त जीव मोक्ष को जायेंगे सो 8 यह संम सम्यग्ज्ञान की महिमा है । ऐसा मुनियों के स्वामी जिनेन्द्र भगवान ने कहा है । पाँचों & इन्द्रियों के विषय-भोगों को चाह रूपी जंगल को प्राग दावानल जगतजन रूपी जंगल वन राय को ले अला रहा है । समस्त संसार भस्म-खाक कर रहा है । इस भयंकर विषय 'चाह रूप दावानल को टूथ & बुझाने के लिए संसार कोई भी वस्तु समर्थ नहीं है । एकमात्र सम्यग्ज्ञान रूपो मेघ मंडल हो & उसके दुझाने में समर्थ है । इसलिए रातदिन बढ़ती हुई उस विषय तृष्णारूपी अग्नि को शान्त 28 करने के लिए सम्यग्ज्ञान के पाने का पूर्ण प्रयत्न करना चाहिए। . Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यपाप-फल माहि, हरष विलखौ मत भाई । यह पुद्गल परजाय, उपजि विनसे थिर थाई ॥ लाख बात की बात, यह निश्चय उर लावो । तोरि सकल जगदंवफंद, निज आतम ध्यावो ॥८॥ ___ अर्थ --हे भाई ! तुम पुण्य का फल मिलने पर हर्ण मत करो और पाप का फल मिलने पर विषाद मत करो, क्यों यह सब कर्म रूपी पुद्गल को पर्याय है, जो सवा उपजतो और विनशती रहती है । संसार का ये हो स्वभाव है कि सदा कोई न कोई आपत्ति बनी ही रहती है। इसलिए & इन झंझटों के चक्कर में न फंसो, उनमें आसक्त होकर आत्म कल्याण से विमुख न रहो, सच्ची और लाख बातों की बात यही है और इसे ही निश्चय से हृदय में लाओ कि संसार के समस्त दंद-फंचों को तोड़ कर नित्य अपनो आत्मा का ध्यान करो । यदि संसारिक झंझटों के जंजाल में उलझे रहे & जो कि सुलझने वाले नहीं हैं, तो तुम त्रिकाल में भी अपना कल्याण नहीं कर सकोगे । भावार्थ-- & समझदार लोगों का कहना सच्च है, सच ही समझते हैं और हम भी समझते हैं कि संसार की कोई ४ धन, धान्य, सम्पदा इस जीव के साथ जाने वाली नहीं है, और विषय - बासना रूप महान चाह को रोकने के लिए सम्यग्ज्ञान ही एक मात्र उपाय है । परन्तु क्या करें आज यह आपत्ति आगई तो कल ४ वह आपदा आ गई, कभी किसी का मरण हो गया, ऐसे अनेक झंझटों से छुटकारा नहीं पाता है । 8 किन्तु उससे बढ़कर दूसरी नई मशीन सामने तैयार रहती है ऐसी अवस्था में उनकी चिन्ताओं के कारण हमें चाहते हुए भी अवकाश नहीं मिलता, फिर आप बतलाइये कि हम कैसे आत्म कल्याण के मार्ग में लगें । इस अवस्था में इस समय बड़ी त्राहि-त्राहि मची हुई है और न तो तन को लंगोटी 8 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ & है और न पेट को रोटी है, सभी बड़े से बड़े छोटे से छोटे, मनुष्य पा तिर्यच दुखो क्या महान दुखी है, 8 'यथा राजा तथा प्रजा' खेत का रक्षक ही खेत की साख खाने लगे तो खेत को रक्षा कौन करेगा ? बिचारे क पा सन्दर, कुता, गाय, बैल, बकरी, बकरा, सूअर, भेड़ इत्यादि जलचर निरअपराधी 8 छह 8 हाला प्रतिदिन असंख्यात जीवों का सवेरे सूर्य की किरण निकलने से पूर्ण ही संहार हो जाता है । थलचर पृथ्वी पर चलने वाले और मुर्गा-मुर्गे अनेक जाति के पक्षी आकाश में उड़ने वाले तथा मछली इत्यादि जलचर निरअपराधियों का हर रोज वध हो जाता है । रक्षक ही भक्षक हो रहे हैं । कहां अहिंसाधर्म 8 रहा ? कहां सच्चा ज्ञान रहा ? समय का परिवर्तन ही अशुद्ध हो गया-ऐसा भोले मानव कहते है । & जो यह कहते हैं वे आत्मज्ञान से हीन हैं, शून्य हैं । अब आगे सम्यक् ज्ञान को धारण करें । सम्यकज्ञानी होइ, बहरि दढ़ चारित लीजै । एक देश अरु शकलदेश, तस भेद कहीजै ।। नसहिंसा को त्याग वथा, थावर न संघारै । पर वधकार कठोर निंद्य नहिं वयन उचारै।।६।। जल मतिका विन और नाहिं कछ गहै अदत्ता। निज वनिता बिन सकल, नारिसौं रहे विरत्ता ।। अपनी शक्ति विचार परिग्रह थोरो राखे । दश दिशि गमनप्रमान, ठान तसु सीम न नाखे ॥१०॥ ताह में फिर ग्राम गली गह बाग बजारा । गमनागमन प्रमान ठान अन सकल निवारा ।। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काहूके धनहानि, किसी जय हार न चीते । देय न सो उपदेश, होय अघ बनिज कृषीत ॥११॥ कर प्रमाद जल भूमि, वृक्ष पावक न विराधै। असि धनु हल हिंसोपकर, नहिं दे जस लाधै ॥ रागरोष करतार कथा, कबहुं न सुनोज । और हु अनरथदंड, हेतु अघ तिन्हैं न कीजै ॥१२॥ धर उर समता भाव सदा, सामायिक करिये । पर्व चतुष्टय माहिं पाप तजि प्रोषध धरिये ॥ भोग और उपभोग नियम करि ममतु निवारै । मुनि को भोजन देय फेर, निज करहि अहार ॥१३॥ ___ अर्थ-उपर्युक्त प्रकार से सम्यग्दर्शन पूर्वक सम्यग्ज्ञान को धारण कर पश्चात् सम्यक् बारित्र & को दृढ़ता पूर्वक धारण करे । सम्यक् चारित्र के दो भेव कहे गये है-एक देश चारित्र और दूसरा ४ & सकल चारित्र । पापास्रव के कारणभूत हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पांचों पापों के एक देश या स्थूल त्याग को देश चारित्र कहते हैं । इस व्रत के धारक श्रावक कहलाते हैं । मन, वचन, & काय, कृत, कारित और अनुमोदना से उन पापों को सर्वथा त्याग महावत कहते हैं। इस धारक - & मुनि कहे जाते हैं । दश चारित्र के मूल में तीन भेद हैं-अणुधत, गुगनत और शिक्षाप्रत । इनमें अणुयत के पांच भेव, गुणपत के तीन भेद और शिक्षावत के चार भेद होते हैं। इस प्रकार ये सब मिलकर श्रावक के बारह रात कहलाते हैं । अब इनका कम से स्वरूप वर्णण करते हैं । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाइ प्रथम पांच अणुव्रत-१ अहिंसा अणुव्रत-मन, वचन, काय और कृत, कारित अनुमोदना 8 8 से संकल्प पूर्वक त्रस जीवों को हिंसा का त्याग करना और बिना प्रयोजन के स्थावर जीवों का भी 28 घात नहीं करना, सो अहिसा अणुव्रत है। इस बात के धारक श्रावक गृहस्थी के आरम्म आदि से होने वाली हिंसा का त्याग नहीं होता । इसी प्रकार व्यापार आदि के करने में जो आने जाने आदि 8 के निमित्त से हिसा होतो है. गृहस्थ उसका भी त्यागी नहीं होता । शत्रुओं या विपक्षियों के द्वारा 8 अपने या अपने परिवार पर, जिन मन्दिरों पर, असहाय लोगों पर या धर्मात्माओं या धर्मायतनों पर 0 किए गये आक्रमणों को रोकने के लिए, अपना बचाव करते समय, जो विपक्षियों को अपने द्वारा लू हिंसा होती है, गृहस्थ उसका भी त्यागी नहीं होता, क्योंकि गृहस्थ जीवन के निर्वाह के लिए तथा ४ अपनी और अपने धर्म, समाज, पड़ोसो, गांव, देश आदि की रक्षा के लिए उक्त हिसा उसे विवशतापूर्वक करनी पड़ती है। २ सत्याणुव्रत-दूसरे के प्राण घातक, कठोर और निंद्य वचन नहीं बोलना, सो सत्यःणुव्रत 3 है । इस व्रत का धारी मोटी झूट बोलने का त्यागी होता है, इसलिए यह ऐसा बचन नहीं बोलेगा, & न दूसरे को बुलवायेगा, जिससे कि किसी प्राणी का घात हो, धर्म का घात हो व अपमान हो, कोई समाज या देश बदनाम हो । ये ही एक बात ध्यान में रखने को है कि इस व्रत का धारी श्रापक सत्याणुव्रत की ओट में ऐसा सत्य भी नहीं कहेगा कि जिससे किसी प्राणी की हिंसा हो जाय, धर्म पर बेश पर या समाज पर कोई महान् संकट या आपत्ति आ जाय । ३ प्रचौर्याणुव्रत-दूसरे की वस्तु को बिना दिये हुए ग्रहण नहीं करना अचौर्याणुव्रत है । 8 इस व्रतका धारी श्रावक बिमा मालिक को प्राज्ञा के कुए से पानी और जमीन से मिट्टो तक भी न Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ? ला लेगा, जिस पर कि feat एक ही अधिकार या प्रतिबन्ध हो । इसी प्रकार वह किसी की गिरी, पड़ी, भूली या रखी हुई वस्तु को भी न स्वयं लेगा न उठाकर दूसरे किसी को देगा । ४ ब्रहमचर्याणुव्रत - प्रपनी स्त्री के सिवाय संसार की समस्त स्त्रियों से विरक्त रहना, उनसे किसी प्रकार के विषय भोग की इच्छा नहीं करना, न हँसी मजाक करना, सो ब्रहमचर्य अणुव्रत है। इस व्रत का धारक धावक परस्त्री सेवन में महापाप और घोर अन्याय समझता है । अतएव यह न तो स्वयं किसी अन्य स्त्री के पास जाता है और न किसी दूसरे पुरुष को भिजवाता है। नाम स्वदार सन्तोष भी है । इस व्रत का दूसरा ५ परिग्रह परिमाणानुवत — अपनी श्रावश्यकता और सामर्थ्य को देखकर धन धान्य आदि परिग्रह का परिमाण करके अल्प परिग्रह रखना और उस के सिवाय शेष परिग्रह में निस्पृहता रखना, अपनी इच्छाओं को अपने आधीन करना, उसे परिग्रह परिमाण प्रणुव्रत कहते हैं । इस प्रकार पांच अणुब्रतों का स्वरूप कहा । अब गुरबतों का वर्णन करते हैं--जो अणुव्रतों का उपकार करे उनकी रक्षा वृद्धि करे उन्हें गुणवत कहते हैं। गुणव्रत के तीन भेद होते हैं-- दिग्बत, देश व्रत, और अनर्थदंड व्रत । १ पृष्ठ १ दिग्बत -- दशों दिशाओं में जाने आने का जीवन पर्यन्त के लिए नियम करके फिर उस को मर्यादा का उल्लंघन नहीं करना, सो दिग्वत कहलाता है। इस दिग्वत के धारण करने वाले पुरुष के अणुव्रत विरत की सीमा के बाहर वाले क्षेत्र में स्थूल वा सूक्ष्म सर्व प्रकार के पापों की निवृत्ति हो जाने के कारण महाव्रत की परिणति को प्राप्त हो जाते हैं । अर्थात् मर्यादा के बाहर वाले क्षेत्र में जाने आने का अभाव हो जाने से इस व्रत वाले पुरुष को यहां किसी प्रकार का पाप नहीं लगता । ५ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 मनुष्य इस शारीर से त्रैलोक्य में जो भी वस्तुएँ हैं उन्हें नहीं ले सकता, फिर क्यों न आवश्यकता के 8 अनुसार दशों दिशाओं का परिमाण करके वहां के पाप से बचने का प्रयत्न करे । २ देशनत--जीवन पर्यन्त के लिए की हुई विखत की सीमा के भीतर भी प्रति दिन काल को मर्यादा के साप प्राम, नली, गृह, बाग बाजार आदि के प्राश्रय से जाने आने का प्रमाण कर के उसके बाहर नहीं जाना आना, ये देशवत नाम का दूसरा गुणनत है । इस व्रत के धारण करने से यह लाभ है कि प्रति दिन जितनी दूर जाने आने का नियम लिया है उस के बाहर की जितनी समस्त दिग्यत को सीमा हैं वहां नहीं जाने आने के कारण पांचों पापों का सर्वथा त्याग हो जाता है ! और 8 इस प्रकार उतने क्षेत्र में सहज महाबतों को साधना श्रावक के हो जाती है । ३ अनर्थ दंड प्रत-जिन कार्यों के करने से श्रावक को कोई आत्मिक लाभ नहीं है ऐसे व्यर्थ 8 के पापों के त्याग करने को अनर्थ वंड आत कहते हैं। ये अनर्थ वंड पांच प्रकार शास्त्रकारों ने अतलाये हैं:-१ अपध्यान, २ पापोपदेश, ३ प्रमायचर्या, ४ हिसा दान, ५ दुःश्रुति । १ अपध्यान-अनर्थदंड-वेष से किसी के धन की हानि सोचना, राग से किसी के धन का & लाम सोचना, किसी को जीत और किसी को हार विचारना, सो प्रथम अपध्यान नामक अनर्थ वंड & है । अमुक पुरुष की स्त्री बहुत सुन्दर है, अमुक बहुत बदमाश है इत्यादि। इस प्रकार राग-द्वेषमयो & बुरे विचार इसी अनर्थदंड के अन्तर्गत जानना चाहिए । २ पापोपदेश-खेती व्यापार आदि आरम्म समारम्भवर्णक पाप कार्यों का उपदेश देना, पायोपदेश नाम का अनर्थ दंड है। ३ प्रमावर्या-बेकार & पृथ्वी खोदना, पानी ढोलना, प्राग जलाना, पंखा चलाना, वृक्ष बेल प्रादि काटना, कटवाना और निष्प्रयोजन इधर उधर दौड़ना, घूमते फिरना, सो प्रमादचर्या नामका अनर्यवंश है। ४ हिंसा दान ७ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढालाल 8 हिंसा के साधनभूत फरसा, कृपाण, तलवार धनुष, हल, अग्नि आदि दूसरों को स्वयं या मांगने से ४ ४ देना, हिंसा दान का अनर्थदंड है। ५ दुःश्र ति--राग-द्वेष को बढ़ाने वाली और चित्त को ले छह कलुषित करने वाली, आरम्भ, परिग्रह, मिथ्यात्व युद्ध राग--रंग भृगार प्रावि को कथाओं को सुनना सो दुःश्रुति नामका पांचवां अनर्थ वंर है। इस प्रकार के अन्य भी अनर्थयों का त्याग 8 & करना सो अनर्थदंड त्याग नामका तीसरा गुणवत है। अब चार शिक्षाबतों का वर्णन करते हैं । जिन के परिपालन से मुनिबत के धारण करने को ले शिक्षा मिले उन्हें शिक्षाबत कहते हैं । वे चार हैं-१ सामायिक शिक्षाप्रत २ प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत, & ३ भोगोपभोग परिमाण शिक्षाबत, ४ अतिथि संविभाग शिक्षाप्रत । १ सामायिक शिक्षाव्रत-हृदय गर्भ में समता भाव धारण करके प्रातः काल, मध्यान्ह और & सायंकाल इन तीनों समय में स्वस्वरूप को चितवन रूप सामायिक करना, सो मामायिक नाम का & & शिक्षाप्रत है । सामायिक का उत्कृष्ट काल ६ घड़ी, मध्यम ४ घड़ो और जघन्य २ घड़ी माना गया 8 8 है। जो जिसको जैसी शक्ति हो उतने समय के लिए पांचों पापों का मन वचन काय से बिल्कुल त्याग करके प्राणीमात्र पर समता और मित्रताका भाव रखते हुए प्रात्म स्वरूप का चिन्तवन करते हुए प्रात्मा लवलीन होना चाहिए। सामायिक के काल में जो मन नहीं ठहरे तो *, सिद्ध, अहंन्त, ४ नवकार मन्त्र, चौबीस तीर्थंकरों के नाम, मूल मन्त्राक्षरों का जाप देना, स्तोत्र पाठ पढ़ना, सिद्ध भक्ति आदि दश भक्ति पाठ पढ़ना, परन्तु वह परम शान्ति से करना । सामायिक समता रस पान एकान्त शांत और उपद्रव रहित स्थान में करना चाहिए । इसी को ध्यानाध्यन भी कहते हैं यही करने योग्य है। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ प्रषोधोपवास शिक्षाव त-दिन में एक बार भोजन करने को प्रोषध कहते हैं। एक मास में 8 वो अष्टमी और दो चतुर्थशी होती हैं इन्हें पर्व माना गया है । इन चारों हो पर्वो के दिन सर्व पाप आरम्भ छोड़कर एकाशनपूर्वक उपवास करने को प्रोषधापवास कहते हैं । यह प्रोषधोपचास उत्तम १६ पहर का, समान १२ बहर का और गधन्य ८ पहर का कहा गया है । उत्तम प्रोषधोपवास में उपवास के पहिले और पिछले दिन एक एक एकासन करना पड़ता है। मध्यम प्रोषधोपवास में उपवास के पहिले दिन एकाशन करना आवश्यक है और जघन्य प्रोषधोपवास में पर्व के दिन ही उपवास करने का विधान है । उपवास के दिन स्नान तल मर्दन अलङ्कार धारण आदि का त्याग आवश्यक बताया ४ गया है। जिन पूजा के निमित्त प्राशुफ जल से स्नान कर सकता है । ३ भोगोपभोग परिणाम शिक्षावत-जो भोजनादि पदार्थ एक बार सेवन करने में आते हैं 8 उन्हें भोग कहते हैं। जो वस्त्रादि पदार्थ बार बार उपयोग आते हैं उन्हें उपभोग में कहते हैं। भोग और उपभोग की वस्तुओं का आवश्यकतानुसार नियम करके शेष से ममता भाव को दूर करना, सो भोगोपभोग परिमाण निक्षाव्रत है। इन्द्रिय विषय भोग को बढ़ती हुई तृष्णा को निवारण करने के लिये इस शिक्षाप्रत का पालन करना अत्यन्त आवश्यक है। अभक्ष्य प्रादि पदार्थों का जीवन पर्यंत के लिये जो त्याग किया जाता है, उसे यम कहते हैं, और भक्ष्य वस्तुओं का कुछ समय के लिये जो त्याग किया जाता है, उसे नियम कहते हैं। इन दोनों का धारण करना इस शिक्षावतधारी को प्रावल श्यक है। इसी प्रकार श्रावकों के जो १७ नियम अन्य शास्त्रकारों ने बतलाये हैं, वे भी इसी शिक्षात के अन्तर्गत जानना चाहिए । ४ अतिथि संविभाग शिक्षाद्रत-मुनि आदि अतिथि के लिए आहार. औषधि आदि के से Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ दान देने को अतिथि संविभाग शिक्षाणात कहते हैं । जिसके तिथि का विचार नहीं, जो सबा काल लू प्रतो है, शान ध्यान तप में लीन हैं, ऐसे मुनि को अतिथि कहते है, अपने भोजन आदि में से दान देने को संविभाग पाहते हैं। इस काम के साए द सो गये हैं:-आहार दान, प्रौषधि दान, शास्त्र दान और अभयदान । शरीर के निर्वाह के लिए तथा निराकुलता पूर्वक धर्म साधन के लिए आहार और औषधि दान देने की आवश्यकता है, आरम ज्ञान की प्राप्ति के लिए शास्त्र दान की और आरम स्वरुप को प्राप्ति के लिये अभयदान को आवश्यकता है । अतएव श्रावकों को चारों प्रकार का दान विधि पूर्वक भक्ति के साथ पुण्योदय से उपलब्ध उत्तम, मध्यम और जघन्य पात्र को प्रतिदिन अवश्य देना चाहिये। इस प्रकार धावक के बारह धत कहकर, उनके अतिचारों को छोड़ने और मरते समय सनयास धारण करने का विधान करते हुए श्रावक के ब्रतों का फल कहते हैं: बारह मत के अंतीचार, पन पन न लगावै । मरन समय सन्यास धारि तसु दोष नशावै ॥ यौ श्रावक व्रत पाल स्वर्ग, सोलम उपजावै । तहत चय नरजन्म पाय मुनि हव शिव जावै ॥ १५ ॥ अर्थ-पहले कहे हुए अहिंसाणुप्रत आदि प्रत्येक व्रत के पांच पाँच अतिचार शास्त्रों में बतलाये गये हैं। उन्हें नहीं लगने देना चाहिए और मरण के समय सन्यास को धारण करके उसके भी दोषों को दूर करना चाहिए । इस प्रकार जो मनुष्य श्रावक के व्रतों को पालता है, वह मर कर के सोलहवं स्वर्ग तक उत्पन्न हो सकता है । और वहाँ से आय करके मनुष्य जन्म पाकर फिर मुनि धर्म को 8 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ & धारण करके कर्मों का नाश करके मोक्ष पा जाता है । भावार्थ-अत भंग न हो जाय, इस प्रकार ४ को सावधानी रखते हुए भी विषयों को उद्यम प्रवृत्ति या कषायों के आवेश से व्रत के एकदेश भंग @ हो जाने को अतिचार कहते हैं । ऊपर जो श्रावक के बारह मत बतलाये गये हैं, उनमें से प्रत्येक के पांच पांच अतिचार कहे गये हैं । अब यहां पर क्रम से उनका वर्णन करते हैं। उनमें प्रथम श्रावक 8 के ८४ गुण होते हैं तहां आठ मूल गुण और बारह उत्तर गुण, प्रतिपालन, सात घ्यसन और पच्चीस सम्यक्त्व के दोषों का परित्याग, बारह वैराग्य भावना का चिन्तवन, सम्यग्दर्शन के पांच अतिचारों का त्याग, प्रशम, संवेग, अनुकंपा, आस्तिक्य भावना का स्मरण तथा मंत्री, प्रमोद, कारुण्य, माध्यस्थ भाव विचार, तोन शल्य का त्याग, भक्ति भावना रत्नत्रय युक्त ऐसे ८४ गुण युक्त होते हैं। (१) अहिमाणुनत के अतिचार-१. किसी जीव के हाथ पांव नाक कान आदि अंग उपांग का छेदना काटना, उन्हें छेव कर दुःख पहुंचाते हैं, यह छेदन नाम का अतिचार है । २. गाय भैस & घोड़ा हाथो आदि को संकल या रस्मो आवि से बांध कर रोके रखना, बंधन नाम का अतिचार है । 8 ३. जीवों को लकड़ी कोड़ा चाबुक आदि से मारना पीड़ना पौटना, ये पीड़न नामक अतिचार है। ४. जो पशु वा मनुष्य बिना किसी कष्ट का अनुभव किये जितना बोझा लादकर ले जा सकता है, ४ उससे अधिक भार का लादना, अत्ति भारारोपण नामक अतिचार है । ५. अपने आधीन नौकर चाकर ४ और गाय भैस आदि को समय पर खाना पीना न बेफर भूखा प्यासा रखना, अन्न पान निरोध नाम & का अतिचार है। यहां इतना विशेष जानना कि प्रमाद व कषाय के थश होकर जो मारपोट आवि & की जाती है, उससे हो व्रत में अतिचार लगता है । अंतरंग में सुधार की भावना से किसी अपराधी को दंड देने पर अतिचार नहीं लगता है । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाला. (२) सत्यायुक्त के अतिचार-शास्त्रों के विरुद्ध कुछ का कुछ झूटा उपदेश देना, मिथ्यो8 पदेश नाम का अतिचार है, इसे परिवार भी कहते हैं। १. स्त्री पुरुष की या अन्य की गुप्त बातचीत को या गुप्त आचरण को बाहर प्रगट कर देता, रहोम्यादा का असिचार है : २. किसी के मुख & विकार आदि की चेष्टा से उसके मन का गुप्त अभिप्राय जानकर ईर्ष्या से दूसरे को कह देना, किसी की 8 गुप्त मंत्ररणा को प्रकट कर उसका भंडा फोड़कर देना, पैशून्य नाम का अतिचार है । उसे हो साकार मंत्र भेद कहते हैं । ३. दूसरे को ठगने के अभिप्राय से झूठे बही खाते बनाना, नकली चिट्ठो स्टाम्प आदि लिखना, जाली दस्तावेज तैयार करना इत्यादि प्रकार के कार्यों को कूट लेख क्रिया नाम का अतिचार कहते हैं । ४. किसी को धरोहर को भूल से कम मांगने पर हड़प जाना, न्यासापहार नाम ४ का अतिचार है । जैसे कोई पुरुष रुपया जेवर आदि द्रव्य को धरोहर रख गया, कुछ समय पोछे 8. अपने द्रश्य को उठाने आया और भूलकर कुछ कम मांगने लगा तो उससे इस प्रकार भोले बन कर & कहना कि भाई जितना तुम्हारा द्रध्य हो सो ले जाओ, इस प्रकार जान बूझकर दूसरे के कुछ द्रव्य को रख लेना, न्यासापहार नाम का सत्याणुव्रत का अतिचार है । ऐसा भाव अतिचार न होकर अनाचार चोरी हो जाता है। (३) अचौर्याणुव्रत के अतिचार - स्वयं चोरी के लिए जाते हुए वा चोरी करते हुए पुरुष को चोरी के लिए प्रेरणा करना, दूसरे से प्रेरणा कराना या अनुमोदना करना, सो चोर प्रयोग नाम का अतिचार है । १. जिस पुरुष को हमने चोरी के लिये मन, वचन और काय से किसी भी प्रकार प्रेरित हो नहीं किया है, वह यदि चुरा कर कुछ द्रष्य लाया है सो उसे अल्प मूल्य आवि देकर लेना, चोरार्थी दान नाम का अतिचार कहलाता है। २. जो राजा के मर जाने पर या राज्य में उपद्रव वंगा फिसाद Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल होने पर बहुमूल्य वस्तुओं को अल्प मूल्य में लेने का प्रयत्न करना, अपने आधोन जमीन की सीमा & बढ़ा लेना, किसी के भाग जाने या दंगा आदि में मारे जाने पर उसके मकान आदि पर काजा कर लेना, सो विरुद्ध राज्य तिक्रम नाम का अतिचार है । क्योंकि शान्ति काल के जितने नियम कानून हैं उन सब का राज्य क्रान्ति वंगा युद्ध आदि होने पर लोप हो जाता है । असली सोने में तांबा मिला देना, चांदी में रांग मिला देना, घी में तत्सम वाला तेल मिला देना, इस प्रकार अधिक मूल्य को ४ ॐ वस्तु में कम मूल्य को समान वस्तु को मिला देना, सदृश सन्मित्र नाम का अतिचार है । यथार्थ में & सदृश सन्मिश्र करते हुए चोरी की भावना पाई जाती है इसलिए अतिचार है। दुकान या घर श्रादि & पर लेने के लिए बांटों को अधिक वजन या नाप के रखना, सो होनाधिक विनिमान नाम का अति चार है । नाप तोल में ईमानदारी रखनी चाहिए और जहां चोरी के द्रव्य की शंका हो उस वस्तु को हाथ ही नहीं लगाना चाहिए अतिचार को आड़ में अनाचार नहीं करना चाहिए । ब्रहमचर्याणुयत के अतिचार-पराये लड़के और लड़कियों के विवाह कराना पर विवाहकरण नाम का अतिचार है । ब्रह्मचर्याणुयती अपने और अपने सम्बन्धियों के पुत्रादिकों का तो विवाह कर & सकता है, परन्तु जो परवर्ग के पुरुष हैं जिनसे कोई सम्बन्ध या रिश्तेदारी नहीं है उनके पुत्रादिकों के & विवाह न करे, न करावे और न अनुमोदना करे । १-काम क्रीड़ा के अंगों को छोड़ कर अन्य अंगों से काम क्रीड़ा करना सो अनगं कोड़ा नाम का अतिचार है । २-राग से हँसी मिश्रित भण्ड वचन बोलना, काय से कुचेष्टा करना सो विटत्व नाम का अतिचार है । ३-काम सेवन को अत्यन्त अभिलाषा रखना या काम कोड़ा में अधिक मग्न रहना सो काम तीब्राभिनिवेश नाम का अतिचार है। ४-व्यभिधारणी स्त्रियों के घर आना जाना, उनसे हँसी मजाक आदि करना, सो इत्वरिका गमन 8 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम का अतिचार है। ५) परिग्रह परिमारण अणुवत के अतिचार - घोड़ा बल आदि जितनी दूर आराम से जा सकते हैं उससे भी अधिक दूर तक लोभ के वश होकर जोतना सो अतिवाहन नाम का पहला अतिचार है। १-लोभ के घशीभूत होकर मुनाफा कमाने को गर्ज से धन धान्यादिक का अधिक संग्रह करना सो अति संग्रह नाम का दूसरा अतिचार है, व्यायार के निमित्त जितना धान्य आदि खरीद कर रखा था, उसके बेचने से अधिक मुनाफा मिलने पर यह सोचकर पश्चाताप करना कि यदि हमने & इतना अधिक और खरीद कर रख लिया होता तो आज खूब लाभ होता, यह विस्मय नाम का 0 तोसरा अतिचार है संग्रहीत वस्तु के बेचने पर काफी मुनाफा मिलते हुए उसे इस भावना से नहीं & बेचना कि अभी तो और भी भाव चढ़ेगा और खूब मुनाफा मिलेगा। यह अति लोभ नाम का अति& चार है । बेल घोड़ा आदि अपने आधीन पशुओं, मजदूरों और नौकर चाकरों पर लोभ के वश से अधिक भार लादना सो अति भारारोपण न म का पांचवां अतिचार है । अब गुणवत के अतिवार कहते हैं- १) दिग्वत के अतिचार :-जीवन पर्यन्त के लिए जो ऊपर जाने की सोमा निश्चित को यो आवश्कता पड़ने पर उसे बढ़ा लेना सो ऊर्धातिक्रम है। इभी प्रकार नीचे जाने की सीमा को बढ़ा लेना अधो व्यतिक्रम है, और पूर्व पश्चिम आदि दिशाओं में तिरछे आने जाने को मर्यादा को बढ़ा लेना, सो तिर्यग् व्यतिक्कम नाम का तीसरा अतिचार है। जो कि अज्ञान से प्रमाद से या भूल से आवश्यकता की विवशता से किसी एक विशा की मर्यादा घटाकर दूसरी ओर की दिशा-सम्बन्धी मर्यादा को बढ़ा लेना, सो क्षेत्र वृद्धि नाम का चौथा अतिचार है । दिग्वत के धारण करते समय जो दिशात्रों की मर्यादा को थी उसे भूल जाना सो सीमा विस्मृति 8 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 नाम का पांचवां अतिचार है । (२) देशव्रतों के अतिचार-वर्ष, मश, पक्ष आधि के लिये देश में जितने क्षेत्र का परिमारण कर लिया है उससे बाहर किसी व्यक्ति को या नौकर आदि को भेजना प्रेषण नाम का पहिला अतिचार है । मर्यादा के बाहर स्थित पुरुष को शब्द सुनाकर अपना अभिप्राय प्रकट करना शब्द-श्रवण नाम का दूसरा अतिचार है । मर्यादा से बाहर वाले क्षेत्र से किसी को बुलाना या कोई वस्तु मंगवाना & सो आनयन नाम का अतिकार है । मर्यादा से क्षेत्र के बाहर काम करने वाले पुरुष को हाथ आदि 8 से संकेत करना रूपाभि व्यक्ति नाम का चौथा अतिचार है। इसी प्रकार मर्यादा से बाहर वाले पुरुष को कंकर पत्थर आदि फेंककर इशारा करना मुलाना सो पुद्गलक्षेप नामका पांचवां अतिचार है ।। (३) अनर्थ वंडवत के अतिचार-राग भाव को अधिकता से हंसी मजाक के साथ अशिष्ट और भंड वचन बोलना कन्दर्प नामका अतिचार है । हंसी मजाक करते हुए काम की कुचेष्टा करना कौत्कुच्य नाम का अतिचार है । धृष्टता पूर्वक बहुत बकवाद करना, अनर्थक बातचीत करना, प्रलाप करना सो मोखर्य नाम का अतिचार है । भोग और उपभोग को वस्तुओं को आवश्यकता से अधिक रखना सो अति प्रसाधन या भोगानर्थक्य नाम का चौथा अतिचार है । प्रयोजक को बिना बिचारे आवश्यकता से अधिक किसी काम को करना या कराना सो असमीक्ष्याधिकरण नामका पांचवां अतिचार है । जैसे भोजन करते समय यदि एक लोटा जल की आवश्यकता है तो हांडी जल भर बैठना। अब चार शिक्षाब्रतों के अतिचार कहते हैं । (१) प्रथम सामायिक शिक्षाबत के अतिचारसामायिक को करते समय मन को इधर उधर चलायमान करना, स्थिर नहीं रखना, मनो दुःप्रणिधान नाम का अतिचार है। सामायिक के समय सामायिक पाठ को जल्दो कुछ का कुछ बोलने लगना, X Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढालाल * किसी से कुछ पूछने पर हां हूँ नादि करना सो वचन दुःप्रणिधान नाम का दूसरा अतिचार है। में सामायिक करते समय हम पांब आदि को हिलाना, शिर घुमाना, लोक आसन नहीं मांउना, हाय के इशारे से किसी को बुलाना, संकेत करना प्रादि काय दुःप्रणिधान नाम का अतिचार है । सामायिक करने में आदर और उत्साह नहीं रखना, नियत समय पर सामायिक नहीं करना, जिस किसी प्रकार से & यवा तदा पाठ आदि पढ़के समय पूरा कर देना। यह अनावर नामका चौथा अतिचार है। सामा-8 & यिक करना ही भूल जाना या सामाधिक पाठ को पढ़ते हुए चित्त का अन्यत्र चला जाना और सामायिक की क्रियाओं को भूल जाना अस्मरण नाम का पांचवां अतिचार है। (२) प्रोषधोपवास शिक्षावत के अतिचार-उपवास के दिन बिना देखे बिना शोधे पूजा के उपकरण शास्त्र वगैरह को घसीट कर उठाना अदृष्ट मृष्ट ग्रहण न.मका पहला अतिचार है । इसी प्रकार उपवास के दिन बिना देखी बिना शोधी भूमि पर मल मूत्रादि . करना सो अदृष्ट मष्ट विसर्ग नामका दूसरा अतिचार है । उपवास के दिन बिना देखी, बिना शोधी, बिना साफ की हुई भूमि पर बैठना, बिस्तर अटाई आदि बिछा देना सो प्रदृष्टमष्टास्तरण नाम का तीसरा अतिचार है। उपवास के दिन & भूख आदि से पीड़ित होने के कारण आवर और उत्साह नहीं रखना सो अनादर नामका चौथा अतिचार है । उपवास के दिन जिन क्रियाओं को अत्यन्त आवश्यकता है उन्हें प्रसाद कषाया वेष भूषादि किसी कारण से भूल जाना सो स्मरण नामका पांचवां प्रतिघार है। तथा वास में रहने आदि किसी अन्य कारण से अष्टमी चतुर्दशी प्रावि तिथि को ही भूल जाना सो भी इसी अतिचार ले के अन्तर्गत जानना चाहिए । (३) भोगोपभोग परिमाणधत के प्रतिचार-पंचेन्द्रियों के विषय रूपी विष से उदासीन न हो X Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ & कर उनमें आदर बना रहना सो अनुपेक्षा नामक पहला अतिचार है। विषयभोग कर लेने के पश्चात् & भो पुनः उसको याद अाना, किसी नयीन मिष्टान्न आदि के खा लेने के बाद भी बार बार उसको याद आना सो अनुस्मृति नाम का अतिचार है । वर्तमान कालमें उपलब्ध भोग उपभोग के साधनों में हाला अत्यन्त वृद्धि रखना सो अतिलौलुल्य नाम का तीसरा अतिचार है । भविष्य काल में हमें अमुक भोग उपभोम को प्राप्ति होती रहे इस प्रकार की आकांक्षा करना सो अति तष्णा नाम का चौथा अतिचार & है । असीत काल में सेवन किये हुए भोग-उपभोग का वर्तमान में उपभोग नहीं करते हुए भी उपभोग & करते हुए समान अनुभव करना सो अत्यनुभव नाम का पांचवां अतिवार है । अतिथिसंविभाग शिक्षावत के अतिचार–साधु आदि अतिथिजनों के देने योग्य आहार ४ को सचित हरे कमल पत्र पर आदि से ढंक कर देना सो हरित निधान अतिचार है । दान के योग्य & अन्न, औषधि, चटनी आदि को सचित्त पते प्रादि पर रख देना सो हरितनिधान अतिचार है । अतिथिजनों को भक्ति के साथ कर्तव्य बुद्धि से दान न देकर लोक लिहाज से दान देना, दान में आदर भाव नहीं रखना सो अनावर नाम का तीसरा अतिचार है । कभी कभी दान देना भी भूल & जाना, नियत समय पर दान नहीं देना, आगे पीछे देना सो अस्मरण नाम का चौथा अतिचार है । इसको कालातिकम नाम का अतिचार भी कहते हैं। दूसरे दाता के दान को नहीं देख सकना, अपने दिये दान का गर्व करना कि अमुक पुरुष हमारे दान को क्या बराबरी कर सकता है । इत्यादि प्रकार पर से ईर्ष्या भाव रखना सो मात्सर्य नाम का अतिचार है। इन पांच प्रतिचारों को टालकर द ब्रहम, उपवास, अनेक प्रकार के व्रत सम्यग्दर्शनपूर्वक मोक्षमार्ग के कारण भूत धारण कर अपनी ४ & शक्ति के अनुसार प्रतिदिन देव शास्त्र गुरु की पूजा करता है और सुपात्रों के लिए चार प्रकार का Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छह हाला दान देता है, वही सम्महृष्टि श्रावक है । आहार दान मात्र देने से ही श्रावक धन्य कहलाता है और देवताओं से पंचाश्चर्य को प्राप्त होता है देवताओं से पूज्य होता है। फिर वह बान के फल से त्रिलोक में सार भूत उत्तम सुखों को भोगता है । सुपात्र जिन लिंग को देखकर उसको पात्र समझ कर भक्ति भाव और श्रद्धा पूर्वक नवधा भक्ति से आहाराविक दान को देना श्रावक का धर्म है इन सुपात्रों को दान प्रदान करने से नियम से भोग भूमि तथा स्वर्ग के सर्वोत्तम सुख की प्राप्ति होती है और अनुक्रम से मोक्ष सुख की प्राप्ति होती है। ऐसा श्री जिनेन्द्र भगवान् ने परमागम में कहा है। जो मनुष्य उत्तम बीज को बोता है तो उसका फल मन वांच्छित पूर्ण रूप से प्राप्त होता है । भावार्थ - उत्तम कुल, सुन्दर स्वरूप, शुभलक्षण, श्रेष्ठबुद्धि, उत्तम निर्दोष शिक्षा उत्तम शील राजा प्रजा मान्य उत्कृष्ट गुण, अच्छा सम्यक् चारित शान्त स्वभाव, उत्तम शुभ लेश्या शुभ नाम और समस्त पुत्र पौत्रावि परिवार शुभ लक्षण समस्त प्रकार के भोगोपभोग की सामग्री सुख के सब साधन सुपात्र दान के फल से प्राप्त होता है । आगे ग्रन्थकार ने अन्त में जिस समाधिमरण की ओर संकेत किया है उसका यहाँ संकेत में वर्णन किया है । जीवन का अन्त श्रा जाने पर या महान heatre रोग उत्पन्न होने पर या उपसर्ग, बुढ़ापा आदि आ जाने पर धर्म की रक्षा के लिए अपने शरीर के त्याग करने को सन्यास कहते हैं । समाधिमरण और सल्लेखना भी इसके नाम हैं । सम्यक् प्रकार शरीर के व्यास (त्याग) को सन्यास कहते हैं । सावधानीपूर्वक मरना सो समाधिमरण है । काय और कषाय को भले प्रकार से कुश करना सल्लेखना कहलाता है । इसे सल्लेखना या समाधिमरण की विधि यह है कि जब अपना मरण निश्चित जानले तब अपने सब कुटुम्ब परिवार और बन्धु वर्ग स्वजन परिजनों से स्नेह छोड़ दे, शत्रुओं से वैर भाव छोड़ दे और अत्यन्त विनम्र Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ & भाव से सब प्रिय बचनों द्वारा क्षमा करा कर स्वयं भी सब जनों को क्षमा करे । तत्पश्चात् & किसी योग्य निर्यापकाचायं (समाधिमरण कराने में अत्यन्त कुशल महासावु या श्रायक) के पास जाकर समस्त परिग्रह को छोड़ कर शुद्ध और प्रसन्न चित्त होकर अपने इस जीवन सम्बन्धी सर्व पापों को द्वालाल निश्चल भाव से आलोचना करे तथा मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना से जोवन पर्यन्त के लिए पांचों पापों का सर्वथा त्याग करे और महावतों को निर्पेक्ष धारण करे और क्रोध, मान, माया, लोभ, कषाय, शोक, भय, विधाद, स्नेह, कालुष्य और रागद्वेष को छोड़कर अमृतमय शास्त्र वचनों से आत्मा को तृप्त करे । और अपने बल बोर्य को प्रगट कर उत्साहित होकर आत्म ज्ञान से ध्यान की सिद्धि करे जो आत्मा का स्वरूप जानने में कुशल है, तपश्चरण करने में निपुण है खेगा पाला दारणा नको जग हालता है । तब हो वैराग्य की वृद्धि कर पहिले आहार का त्याग करे । कमसे त्याग कर दुग्धआदि स्निग्ध पान करे । तदनन्तर स्निग्ध पान को भी त्याग कर कांजी गरम पानी प्रादि वर पान पर रहे तत्पश्चात् कम से खर पान भी त्याग कर और कुछ दिनों तक शक्ति के अनुसार निर्जल उपवास करे । जब देखे कि अन्तिम समय आ गया है, तो आत्मध्यान पूर्वक पंच परमेष्ठि, पंच नमस्कार मंत्र का स्मरण करते हुए पूरी सावधानी के साथ शरीर त्याग करे। * यह समाधिमरण की विधि है । आत्म कल्याण के इच्छुक पुरुषों का कर्तव्य है कि जीवन के अन्त में * इस सन्यास को अवश्य धारण करे, ग्रन्थकार ने इस सन्यास मरण को जोवन भर की तपस्या का & फल कहा है, इसलिए जब तक शरीर में शक्ति रहे, होश हवाशादि व्यवस्था ठिकाने रहे, तब तक समाधिमरण में पूरा प्रयत्न करना चाहिए । श्रावक के बारह व्रतों के समान समाधिमरण के भी पांच 8 अतिवार बतलाए गए हैं. समाधिभरण करने वाले भव्य जीव को उनका त्याग करना चाहिए । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिमरण के अतिचार-समाधिमरण स्वीकार कर लेने के पश्चात् शरीर को स्वस्थ होता ४ हुआ देखकर जीने को इच्छा करना सो जीवतशंसा नाम का पहला अतिचार है। सन्यास धारण करने के पीछे शरीर में रोगादि उपद्रव बढ़ जाने के कारण उनका कष्ट न सह सकने से अधीर हो जल्दो मरने की आकांक्षा करना, सो मरण शंसा नाम का दूसरा अतिचार है । समाधिमरण धारण करने के पोछे भूख प्यास आदि को पीड़ा से डरना इहलोक भय है । इस प्रकार की दुद्धर कठिन तपस्या का & फल मुझे परलोक में मिलेगा कि नहीं, ऐसा विचार करना सो परलोक भय है । इस प्रकार के सातो भयों & से व्याकुल होना सो भय नाम का तीसरा अतिचार है । बचपन से लेकर आज तक जिन लोगों के साथ मित्रता का स्नेह सम्बन्ध स्थापित था समा शय्या पर पड़े हुए उनकी याद करना सो मित्रास्मृति नाम का चौथा अतिचार है । समाधिमरण धारण करने के फल से आगामी भव में भोगादि को आकांक्षा करना निदान नाम का अतिचार है । समाधिमरण को धारण कर इन पांचों दोषों से बचना चाहिए । इस प्रकार निर्दोष श्रावक व्रतों को पालन करने वाला व्यक्ति नियम से सोलहवें स्वर्ग तक यथायोग्य देवेन्द्रादिके उत्कृष्ट पद पाता है और वहां से चपकर मनुष्य भव पाकर उसी भव में या सात आठ भव के पश्चात् नियम से मोक्ष जाता है । इसलिये सम्यग्दर्शन पूर्वक श्रावक व्रत अंगीकार कर पालन करेगा तो तुम्हारा अवश्य कल्याण होगा । चौथो ढाल समाप्तम् । अब पांचवीं ढाल लिखते हैं । ग्रंथकार इस ढाल में बारह भावनाओं का चिन्तवन करना वर्णन करते हैंचाल छंद-मुनि सकल प्रती बड़भागी, भव भोगन तै वैरागी । ___ . वैराग्य उपावन माई, चिन्तो अनुप्रेक्षा माई ॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन चितत समरस जागे, जिमि ज्वलन पवन के लागे । जब ही जिय आतम जान, तब हो जिय शिवसुख टाने ॥२॥ अर्थ-बड़े ही भाग्यवान और सकल चारित्र के धारक मुनिराज संसार और इन्द्रिय भोगों से दिरागो रहते हैं । इसलिए हे भाई तुम्हें भी वैराग्य उत्पन्न करने के लिए बारह भावनाओं का निरंतर चिन्तवन करना चाहिए, क्योंकि इन बारह भावनाओं के चिन्तवन करने से समता रूपी सुख प्रकट होता है जैसे कि पवन के लगने से अग्नि की ज्वाला प्रकट होती है । जब यह जीव आत्मा के स्वरूप को पहिचान लेता है तब ही वह मोक्ष सुख अनुभव कर पाता है, कहने का मारांश यह है कि समता भाव को जागृत करने के लिए बारह भावनाओं का चिन्तवन करना अत्यन्त आवश्यक है । अतएव ल इन बारह भावनाओं को निरंतर भावे । अब अनित्य भावना का स्वरूप लिखते हैं जोबन गृह गोधन नारी, हय गय जन आज्ञा कारी । इन्द्रिय भोग छिन थाई, सर धन चपला चपलाई ॥३॥ अर्थ-युवावस्था, सदन, बैल, भैस, धन, धान्य, दासी, दास, हाथी, घोड़ा, स्त्री, पुत्र, 8 पौत्रादि, प्राज्ञाकारी परिवार के लौकिक लोग और नौकर चाकर तथा इन्द्रियों के भोग, ये सब को ल संब वस्तु क्षण भर स्थिर रहने वाली हैं, सदा सास्वति नहीं । जैसे कि इन्द्र धनुष और बिजली का 8 चमकना । अर्थात् इन्द्र धनुष को तरह, ग्राम, स्थान, आसन, देवेन्द्र, असुर, विद्याधर, राजा, इन की हाथी, घोड़ा आदि विभुत इन्द्रिय सुख, माता पिता भाई बन्धु आदि से प्रीति, ये सब अनित्य हैं । राज्य पाठ सेठ साहूकार का विभव, क्षेत्र, वस्तु, हिरण्य, सुवर्ण, गाय, भैंस, नेत्रादि इन्द्रिय गोरा काला वर्ण, बुद्धि, बल, युवा अवस्था, कान्ति, प्रताप, पुत्र, पौत्रावि, जीवन, धर्मपत्नी, घर बार महल Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www 8 मकान, शय्या, सिंहासन, वस्त्र, बर्तन, भावि सभी अनित्य हैं । ऐसा चिन्तयन करें । भावार्थ-ऐसा चिन्तवन करना कि संसार में जितनी वस्तुएं उत्पन्न हुई हैं उनका नियम से ६ बिनाश होगा क्योंकि पर्याय रूप से कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है सबका परिवर्तन होता रहता है। फिर इन उत्पाद व्यय-शील पर्यायों में क्यों राग द्वेष करू ? देखो इस जगत में जन्म तो मरण से सम्बर, जवानी वृद्धा अवस्था से लगी हुई है और लक्ष्मो विनाश सहित है, जो भी वस्तु नेत्रगोचर ] है वह सब ही क्षणभंगुर हैं। ये स्वजन, परिजन, परिवारजन, स्त्री, पुत्र, मित्र, भ्रात, तात, मात ल 3 तन धन गृहादि स्पर्श आदि इन्द्रियों के विषय नौकर चाकर, हाथी, घोड़े, रथ, गाय, भैस आदि समस्त वैभव इन्द्र धनुष, नवमेघ, शरद के महल और बिजली के समान चंचल है। देखते देखते ही नष्ट हो जाने वाला है जैसे सूर्य का उदय कुछ काल तक ही रहता है वैसे ही प्राणी चारों गतियों में 8 & किसी काल की मर्यादा को लेकर उत्पन्न होता है जैसे पका हुआ फल वृक्ष से अलग होता है और भूमि में गिर पड़ता है। वैसे ही संसारी प्राणी आयु के क्षय से अवश्य मर जाते हैं। इस लोक में प्राणी का जीवन जल के बुबबुबे के समान चंचल है । भोग रोग सहित है, जवानी जर। सहित है, सुन्दरता क्षण में बिगड़ जाती है । सम्पत्तियां विपत्ति में बदल जाती हैं नाशवान हैं । संसारी सुख मधु को बूद के स्वाद के समान हैं । परम्परा दुःख का कारण है इन्द्रियों के विषय और शरीर का बल मेघ पटल समान विनाशवाम है, राज पाट आदि इन्द्रजाल के समान सी जाने वाली है । स्त्री पुत्र पौत्रादि सब बिजली की चमक के समान चंचल देखते देखते क्षणमात्र में पलाय हो जाने 8 वाले हैं । जैसे मार्ग में नाना दिग्देश न्तरों का संयोग एक क्षणभर के लिए किसो वृक्ष के नीचे हो जाता है और फिर सब अपने अपने रास्ते जाते हैं । इसी प्रकार इस मनुष्य भवरूपी वृक्ष को Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छह में माता-पिता, भाई-बहिन, पुत्र मित्र आदि नाना बन्धुजनों का संयोग हो गया है सो थोड़े 8 8 समय के पश्चात् रहने वाला नहीं है। फिर इनके वियोग में शोक क्यों करना चहिए ? ये तो पक्षी को तरह एक वृक्ष पर निवास करते हुए रात्रि का समय बिताकर प्रभात होने से दो दिशा पलायमान हो जाते हैं। देखो अत्यन्त लाड़ प्यार से पोपा हुआ, नाना प्रकार के सुगन्धित वस्तुओं से मर्दन उबटन, उत्तमोत्तम सुस्वाद भोज्य पदार्थों से संतृप्त किया हुआ भी यह देह एक क्षणमात्र में & नष्ट हो जाता है। जैसे कि मिट्टी का कच्चा कलस पानी मरते हो विघट जाता है फिर शरीर के & रागादिक से आक्रान्त होने पर शोक क्यों करना चाहिए ? देखो जो लक्ष्मी बड़े पुण्यशालो चक्रवर्ती 8 आदि महापुरुषों के भी शास्वत नहीं ठहरती है स्थिर रह नहीं सकेगी। इसलिये सम्पत्ति के वियोग 8 में खेव क्यों करना ? इस मोह के महात्मय पर आश्चर्य है कि यह जीव संसार को सभी कुछ वस्तुओं को धन योवन जोवन तक को जल के बुलबुले के समान क्षणभंगुर देखते हुए भी उन्हें नित्य मानकर © उनमें मोहित हो रहा है इसलिए हे भव्य जीयो ! अपने विभावभाव जो महामोह है उसको छोड़कर & संसार के समस्त संयोग को वियोग संयुक्त हो निश्चय करो ! संसार को कोई वस्तु स्थिर या नित्य & नहीं है जैसे मेला लगने से नाना देश का मानव आकर इकट्ठा होता है और फिर मेला खत्म होने से नाना देश का माना नाना वेश में चला जाता है ऐसा समझना चाहिए । अतएव स्थायो आत्म पद में ही अपनी बुद्धि को लगाओ ! ऐसा विचार करना सो अनित्य भावना है । इस प्रकार के विचार करने से संसार के किसी भी पदार्थ में भोग कर छोड़े हुए उच्छिष्ट पदार्थों के समान राग भाव नहीं रहता प्रतएव उसका वियोग होने पर शोक और विषाद भी नहीं उत्पन्न होता । इस तरह सर्व & प्रकार को जगत को रचना को अनित्य समझ कर सत्पुरुषों को निरन्तर अपने आत्मा को नित्य का 8 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनातन अनुभव करना परम कल्याण है । अब अशारण भावना लिखते है सुर असुर खगाधिप जेते । मग ज्यों हरि काल कले ते । मणि मंत्र तंत्र बहु होई, मरते न बचावै कोई ॥४॥ अर्थ संसार में जिनको शरण देने वाला मानता है ऐसे सुराधिप (इन्द्र), असुराधिप (भागेन्द्र) और खगाधिप (विद्यासागर) और चक्रवता भी जब स्वयं काल के द्वारा वल-मल जाते हैं, तब वे औरों को क्या रक्षा कर सकते हैं, और किसको शरण दे सकते हैं ? किसी को नहीं । जैसे सिंह के 8 मुंह में से मृग को बचाने के लिये कोई समर्थ नहीं है, इसी प्रकार संसारी प्राणी को मणि मंत्र तन्त्र 8 आदि कोई भी मरने से नहीं बचा सकता अर्थात् हाथी, घोड़ा, रथ, पयावे, बलवान् सामन्त, पालकी सवारी, मोटर, रेल, मंत्र, तंत्र, जंत्र, रस, औषधि, प्रज्ञप्ति प्रादि विद्या; चाणिक्य नीति आदि १४ विद्या और माता पिता; भाई बहिन कुटुम्बी जन; नगर जन ये सब मरण भय के निकट आने पर या जन्म मरण बाल वृद्ध अवस्था को हटाने में जैन धर्म के सिवाय और इन्द्र धरनेन्द्र महेन्द्र; नरेन्द्रः खगेन्द्र; सुरेन्द्र भो रक्षा नहीं कर सकते । एक जैनधर्म ही रक्षक, प्राश्रय या श्रेष्ठ गति का देने वाला है; ऐसा अशरण भावना का चिन्तन करो। भावार्थ--संसार में शरण देने वाले पदार्थ दो प्रकार के माने जाते हैं। लौकिक और लोकोतर। ये दोनों ही जीव अजीव और मिश्र के भेद से तीन तीन प्रकार के होते हैं । इनमें से राजा देवता; माता पिता आदि लौकिक शरण हैं । दुर्ग स्थान गुप्त स्थान महल मणि आदि अजीव शरण हैं। ग्राम नगर प्रावि लौकिक मिश्र धारण हैं। पंच परमेष्ठी लोकोस र जीव शरण हैं। पंच परमेष्ठी प्रतिबिम्ब आदि लोकोत्तर अजीव शरण है । ज्ञान संयम के साधन उपकरण युक्त साधु वर्ग Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल 8 अध्यापक के युक्त विद्यालय आदि लोकोत्तर मिश्रशारण है किन्तु जब जीव के जन्म, जरा, मृत्यु, व्याधि इष्ट वियोग अनिष्ट संयोग अलाभ, दरिद्रता आदि कारणों से दुःख उपस्थित होता है तब कोई भी शरण देने वाला नहीं होता है । समुद्र में जहाज के डूब जाने पर उस में बैठे हुए पक्षी का जैसे कोई भी सहायक (शरण) नहीं है इसी प्रकार विनाश काल आने पर हे जीव ! तेरा भी कोई & शरण सहाई नहीं है। जब तक तेरे कुशल क्षेम है तब हो तक तुझे सभी शरण सहाई दिखते हैं। 8 जब जीव का मरण काल आता है तब उसे चारों ओर से घेरकर बड़े-२ सैनिक शस्त्रों से सुसज्जित । होकर क्यों ना खड़े हो जाय, अत्यन्त स्नेह करने वाले बन्धुजन भी क्यों ना घेरे हुए बैठे रहें ? 8 बड़े-२ डाक्टर; वैद्य, हकीम और लुकमान क्यों ना अमोघ औषधि रामबाण, चन्द्रोदय रस आदिल 0 से रक्षा कर रहे हों, परन्तु यह प्रात्मा राम तो सब के देखते देखते हो उड़ जाता है। लोग सम& झते हैं कि शास्त्रों में बड़े बड़े मंत्र यंत्राविक बतलाये गये हैं वे भी पया हमारी रक्षा न करेंगे ? 8 आचार्ग उन्हें उत्तर देते हैं कि हे भच्यात्मन् ! मंत्र आदि भी तेरे स्वतंत्र शरण नहीं हैं, ये सब पुण्य के वास हैं; जब तक तेरे पुण्य का उदय बना रहेगा तब तक ही वे शरण हैं, अन्यथा आज तक अगणित 8 प्राणी अजर अमर पद प्राप्त हुए विखलाई देते। ऐसा जानकर हे आत्मन् ! संसार में तू किसी को & भी शरण मत समन्स और व्यर्थ से पर को शरण मान आकुलता रूप मत हों, यथार्थ में तेरे दर्शन & 8 ज्ञान और चारित्र ही शरण हैं. ये रत्नत्रय आत्मा को सदा काल रक्षा करने वाला है। इसलिए परम ४ श्रद्धा रूप पूर्ण भक्ति के साथ उन्हीं को सेवा और आराधना कर । इस प्रकार का चिन्तयन करने से & जोब फे संसारी पदार्थों में ममता भाव नष्ट हो जाता है और अर्हत्सर्वज्ञ के वचनों में दृढ़श्रद्वान विश्वास & हो जाता है । आगे संसार भावना कहते हैं Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चहुंगति दुख जीव भरे हैं, परिवर्तन पंच कर हैं । सब विधि संसार असार, यामैं सुख नाहिं लगारा ॥५॥ अर्थ-यह जीव चारों गतियों में परिभमण करता हुआ कैसे कैसे दुःख उठाता है, कष्ट सहन करता है और संसार चक्र में पांच परिवर्तन किया करता है। यह संसार सब प्रकार से असार है इसमें सुख का लेश मात्र भी नहीं है । अर्थात् अश्रद्धान रूप मिथ्यात्व अंधकार से सब जगह घिरा हुआ यह जोव जिनदेव कर उपदेश किये गये मोक्ष मार्ग को नहीं देखता संता भयानक अत्यंत गहन संसार रूप बन में ही भ्रमण करेगा, तहाँ, तथ्य, क्षेत्र, काल, भव और नाव रूप पंच परावर्तन संसार जानना, वह नरकादि गतियों में भ्रमण के लिये कारण हैं और वह बहुत प्रकार का है, प्रश्न-कौन संसार है ? किस भाव से संसार है ? किसके संसार है ? कहाँ संसार है ? कितने काल तक संसार है? कितने प्रकार का संसार है ? उत्तर-इस संसार में जन्म जरा मरण का भय, मन वचन काय का दुःख, इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग से उत्पन्न दुःख, श्वास खांसी आदि रोग से पीड़ित होने पर दुःख प्राप्त होता है तथा जलचर, स्थल चर, नभचर, तियंच योनि में, नरक में, मनुष्य गति में और देव गति में हजारों तरह के दुःख पाता है, लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, पूजा-तिरस्कार इन सब को अनेक बार भोगा, & ऐसे संसार को जानकर शीघ हो निस्सार चिन्तयन करना । भावार्थ-~-यह जीव चारों गति में परिभ्रमण करता हुआ कष्ट सहन करता है, यह प्रथम हाल में अच्छी तरह बतलाया गया है । संसार में घूमते हुए यह जीव पांच परिवर्तनों को किया करता है। ये पांच परिवर्तन ये हैं--१ द्रव्य परिवर्तन, २ क्षेत्र परिवर्तन, ३ काल परिवर्तन, ४ भव परिवर्तन और ५ भाव परिवर्तन । इनका स्वरूप संक्षेप से इस प्रकार जानना चाहिए : Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) द्रव्य परिवर्तन–ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के रूप परिणत होने वाले पुद्गल द्रव्य को कर्म द्रव्य कहते हैं, और औदारिकादि तोन शरीर और छह पर्याप्तियों के रूप परिणत होने वाले पुद्-है गल द्रव्य को नो कर्म द्रव्य कहते हैं । इन दोनों प्रकार के पुद्गल का प्रमाण अनन्त है । इनमें से ऐसा एक भी पुद्गल नहीं बचा है, जिसे इस जोब ने क्रम से भोग भोगकर अनन्तबार न छोड़ दिया हो इसी का नाम द्रव्य परिवर्तन है ।। (२) क्षेत्र परिवर्तन-इस त्रिलोक व्यापी लोकाकाश के असंख्यात प्रदेशों में से ऐसा एक भी प्रदेश बाकी नहीं रहा जहाँ यह जीव अनन्त बार न उत्पन्न हुआ हो और अनन्त बार नहीं मरा हो X इसी का नाम क्षेत्र परिवर्तन है। काल परिवर्तन... कोका कोड़ी सागरों का एक उत्सपिरणी काल होता है, और इतने हो समय का एक अवसपिणी काल होता है । इन दोनों कालों के समय में ऐसा एक भी समय बाकी नहीं बचा है जिनमें यह जीव क्रम से अनन्त बार जन्मा और अनन्त बार न मरा हो इस प्रकार काल के आश्रय जो परिवर्तन होता है उसे काल परिवर्तन कहते हैं । (४) भव परिवर्तन-नरक भव को सब से जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है और सब से उत्कष्ट स्थिति तेतीस सागर की है। तहां सबसे प्रथम जघन्य स्थिति उत्पन्न होकर प्रथम नर्क के प्रथम प्रस्तार में दश हजार वर्ष को स्थिति भोगकर मरा और अन्य गति में जन्म लिया फिर प्रथम अवस्था नरक ही प्राप्त हुआ ऐसे दश हजार वर्ष के समय तो वहां ही भवान्तर लेता रहा फिर दश हजार वर्ष एक समय में नर्क भोगा फिर अनेक योनियों में उपजा और मरा--या अन्य नरक में दो स्थिति 8 पाकर मरा ये भव को संख्या में नहीं हैं, फिर दश हजार वर्ष दो समय को प्रायु पाई यह संख्या में है। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल ऐसे नरफ भोगते हुए एक एक समय बढ़ाते हुए सातवें नकं को उत्कृष्ट आयु तेतीस सागर के दुःख ४ भोगे इन्हीं को नकं भव परावर्तन कहते हैं । इसी प्रकार तियंच और मनुष्यों की सर्व जघन्य स्थिति 8 अन्तर्मुहूर्त को बतलाई है उस स्थिति का धारक मनुष्य और तिर्यच होकर क्रमश: एक एक समय बालाल बढ़ते हुए तिर्यचों में या चहुँगति में जन्मा और मरा फिर अनुक्रम से मनुष्य या तिर्यचों को उत्कृष्ट 8 हँ स्थिति तीन पल्प को भोगता हुमा परावर्तन करता है । देवों में इसी प्रकार जघन्य दस हजार वर्ष को 8 स्थिति से लगाकर उत्कृष्ट मिण्यादृष्टि देवों को इकतीस सागर को स्थिति तक एक एक समय बढ़ते हुए समस्त स्थिति का ,धारक देव हुमा इस प्रकार चारों गतियों को जान्य स्थिति से लेकर उत्कृष्ट स्थिति तक की समस्त पर्यायों के धारण करने को भव परिवर्तन इस जीव ने इस प्रकार के अनन्त भव परिवर्तन आज तक किये हैं । (५) भाव परिवर्तन-प्रकृति मन्ध, स्थिति बन्ध अनुभाग बन्ध और प्रदेश बन्ध, इन चार ४ 3 प्रकार फर्म बन्ध के कारणभूत जो भाव होते हैं, उन्हें अध्यवसाय स्थान कहते हैं। वे प्रत्येक असंख्यात लोकों के जितने प्रवेश है तरप्रमाण होते हैं । इन समस्त अध्यवसाय स्थानों के द्वारा मिथ्यात्वी जीवों 8 के सम्भव कर्मों को जघन्य स्थिति से लेकर उत्कृष्ट स्थिति तक के बन्ध करने को एक भाव परिवर्तन कहते हैं । इस प्रकार के अनन्त भाष परिवर्तन जीव ने आज तक किये हैं। यह जीव इन पांचों हो परिवर्तनों को सदा काल करता हुआ संसार चक्र में परिभ्रमण करता रहता है और नाना प्रकार के दुःख भोगता फिरता है। इस प्रकार संसार असार खार का विचार करना सो संसार भावना है जिससे कि वह संसार से छूटने के लिए प्रयत्न करता है । अब आगे एकत्त्व भावना का वर्णन लिखते हैं । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभ अशुभ करम फल जेते, भोग जिय एकहि तेते । सुत दारा होय न सीरी, सब स्वारथके हैं भीरी ॥६॥ अर्थ-शुभ और अशुभ कर्म का जितना भी फल प्राप्त होता है, उसे यह जीव अकेला ही भोगता है । पुत्र मित्रादि कोई भी दुख का भागी नहीं होता, ये सब स्वार्थ के ही साथी हैं। अर्थात् ४ 0 बहिन भाई काका भतीजा मामा नाना माता पिता पुत्र पौत्र स्वजन परिजन दासी दास राजा राणा मंत्री पुरोहित सेठ साहूकार, इनके मध्य में यह जीव अकेला हो रोगी-दुःखो हुआ मृत्यु के वश में पड़ा & परलोक को गमन करता है, इसके साथ कोई भी मनुष्य नहीं जाता है, क्योंकि यह जीव अकेला ही & शुभ अशुभ कर्म करता है, उस कर्म का फल अकेला ही दीर्घ संसार में अनन्त काल तक भुगतता है, अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही मरता है, इस तरह एकत्व भावना का चिन्तयन करो। भावार्थयह जीव अकेला ही गर्भ में आता है और अकेला ही सन्मूर्छन, गर्भ, उपपाद में जन्म लेता है, अकेला ही बाल और युवा आदि अवस्था चारों गतियों में धारण करता है, अकेला & ही मनुष्य और तिर्यचों में जरा से जर्जरित वृद्ध रोगी शोको, होता है, और यह जी० अकेला ही नकं तिथंच आदि को महान् वेदना को सहता है, संसार में सब प्राणी स्वारथ के साथी हैं, जब इस जीव के बिमारी आदि के होने पर स्वजन कुटुम्बी जन सब के सब प्रांखों से दुःखों को देखते हुए भी लेश मात्र भी कष्ट वेदना. को बांट नहीं सकते । यह जीव ऐसा जानते हुए भी आश्चर्य है कि संसार क कुटुम्ब आदि के जीव ममता को नहीं छोड़ता है और समता को नहीं ग्रहण करता है, यह मेरा और यह मेरा करता हुआ रात दिन कुटुम्ब परिवार के निमित्त पाप-भार को सञ्चित किया करता है परन्तु 8 जिन वस्तुओं का संग्रह बन्धुजनों के लिए करता है और दीर्घ पाप उपार्जन करता है वे अधिक Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 से अधिक श्मसान (मघंट) तक साथ जाते हैं, और जलाने के लिए काष्ठादिक को मदद करते हैं ४ & अधिक नहीं और जिस लक्ष्मी के सञ्चय करने में रात दिन लगा रहता है, वह धन घर में पड़ा रहता 8 छह ल है एक उग मात्र भी साथ नहीं चलता और सिर्फ शरीर हो भस्म हो जाता है । इसलिए है आत्मन् ! डाला एक निजानन्द स्वरूप तेरा आत्म धर्म हो ऐसा है जो तेरा कभी साथ नहीं छोड़ता। वह पर भव में & भी साथ जाता है और अंत में संसार के दुःखों से छुड़ा देता है, अतएब प्रथम मन के द्वारा पांचों इन्द्रियों से परोपदेश से, क्षयोपशम से पर्व के अभ्यास से या मर्यादिक के प्रकाश से अयोपशम ज्ञान को उत्पन्न कर फिर जो कुछ कर्म जनित सामग्नी है वह सब पर द्रव्य रूप है उसे निवृत्ति रूप होकर 8 निज द्रव्य में ही प्रवृत्ति करता है, वही भेद विज्ञान पैदा करने का कारण है क्योंकि जो कुछ कर्मल जनित बामग्री है वह सब पर द्रव्यरूप है इसलिये उससे निवृत्ति होकर निजद्रव्य आत्मधर्म उसमें ही 8 & प्रवृत्ति करनी चाहिए । स्वद्रव्य में प्रवृत्ति करने से अवश्य भेद विज्ञान प्राप्त होता है वह परभव में भी साथ जाता है और अंत में संसार के दुखों से भी छुड़ा देता है इसीलिए उसीका शरण लेना चाहिए । ऐसा विचार करने से न तो स्वजनों में मोह उत्पन्न होता है और न परजनों में द्वेष भाव 0 जागृत होता है किन्तु निःसंगता या एकाकी पना प्रगट होता है जिससे कि यह प्रात्मा आत्म कल्याण के ही लिए प्रयत्न करता है । ऐसा बार बार चिन्तवन करना सो एकत्व भावना है। आगे अन्यत्व भावना का वर्णन करते हैं। जलपय ज्यों जियतन मेला, पै भिन्न भिन्न नहि भेला । तो प्रकट जुदे धन धामा, क्यों बैइक मिलि सुत रामा॥७॥ अर्थ-जैसे जल और दूध मिलकर एक से दिखने लगते हैं, परन्तु पदार्थ में एक नहीं है Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वाला & होते । इसी प्रकार मिले हुए यह जीव और देह भी यथार्थ में एक नहीं हैं, भिन्न भिन्न ही हैं, जब 8 स मिले हुये वेह और जीव भी एक नहीं हैं तम प्रत्यक्ष दो भिन्म तिहाई देनेवाले ये भन्न पुत्र स्त्री प्रावि छह 8 कैसे अपने हो सकते हैं ? कदापि नहीं । अर्थात् संसार में माता, पिता, कुटुम्बी, परिवार जन, राजा, 8 मंत्री, सेठ, साहूकार, नौकर, चाकर, नानी, मामी, दासो, दास, स्त्री, ये सभी अपने आत्मा से न्यारे 8 है । वे सब इस लोक में अन्न पान वस्त्र देने में सहायक हैं, परन्तु परलोक में इस जीव के साथ नहीं & जा सकते । वेखो तो सभी जीव यह विचार करता है कि मेरा स्वामी आज मर गया, ऐसा मानता हुआ & अन्य कोई दूसरे जीवों की तो चिन्ता सोच करता है, परन्तु आप संसार रूपो भव समुद्र में डूबते हुये & अपने आत्मा का सोच चिंता कुछ भी नहीं करता । देखो तो सहो, यह शरीर आदि भो अन्य है तो बाह्म द्रश्य अन्य क्यों नहीं होंगे । इस लिये ज्ञान दर्शन गुण हो अपने आत्मा के हैं इस तरह अन्यत्व भावना का चिन्तवन करो। भावार्थ-सदा साथ रहने वाले शरीर से भी प्रात्मा भिन्न है, ऐसा विचार करना सो अन्यत्व __ भावना है, क्योंकि शरीर ऐन्द्रियिक है आत्म अतीन्द्रिय है। शरीर जड़ है, आत्मा ज्ञाता दृष्टा है, शरीर अनित्य है, आत्मा नित्य है, शरीर अपवित्र है, आत्मा पवित्र है, कर्मों से और शरीर से आत्मा सदा भिन्न चैतन्य स्वरूप है, जैसे म्यान से तलवार भिन्न होती है । ऐसा जानकर हे आत्मन् ! शरीर से ममता भाव विसार दे-छोड़दे, उसे अपना मत जान । किन्तु जो ज्ञाता दृष्टा प्रात्मा है, उसे ही अपना स्व स्वरूप समझकर उसको प्राप्ति का प्रयत्न कर । इस प्रकार आत्मा को बार बार चिन्तवन करने को 8 अन्यत्व भावना कहते हैं । इस भावना का चिन्तवन करने से शरीर आदि में निःस्पृहता पैदा होती है उससे आत्म तत्त्व ज्ञान जागृत होता है और फिर वह आत्मा मोक्ष की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करता 8 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है । ये आत्मा अपने चेतना स्वरूप परिमाणों का कर्ता हुआ, अपने चेतना स्वरूप भाव का करने वाला 8 & निश्चय से होता है जैसे कि अग्नि स्वभाव से लोहे के पिंड को ग्रहण करती हुई आप मय स्वरूप बना 8 8 देती है । जो जीव मुनिपद को धारण कर बोक्षित हुआ और संयम. तपस्या भी करता है लेकिन जो 8 गोह की अधिकता से शुद्ध मा राबहार को शिथिल करता है, अभिमान में मग्न हो घूम रहा है, 0 और संसारी कर्म-ज्योतिष, वैद्यक, मंत्र, यंत्रादिकों पर प्रवृत्तता है तो वह मुनि संयम तपस्या कर ४ 6 सहित हुआ भी भ्रष्ट लोकिक मुनि कहलाता है, ऐसे मुनि की संगति त्यागने योग्य है । इसलिए जो 8 उत्तम मुनि दुख से मुक्त होना चाहता है तो उस को चाहिये कि या तो गुणों में अपने समान हो या अधिक हो ऐसे दोनों को संगति करे, अन्य की नहीं करे । जैसे शीतल घर में शीतल जल को रखने से शीतल गुण की रक्षा होती है । यह अति शीतल हो जाता है। उसी तरह गुणाधिक पुरुष को 8 संगति से गुण अधिक बढ़ते हैं । इसलिये उत्तम संगति करना योग्य है। मुनि को चाहिए कि पहली 8 अवस्था में तो पूर्व कही हुई शुभोपयोग से उत्पन्न प्रवृत्ति को स्वीकार करे, पीछे क्रम से संयम को उत्कृ8 ष्टता से परम दशा को धारण करे और विपरीताभाष को सर्व प्रकार से त्याग कर अन्यत्व भावना भावे । पर को अपना घातक जानकर भेद विज्ञान द्वारा अपने से जुदा करके केवल आत्म स्वरूप को भावना से निश्चल स्थिर होकर अपने स्वरूप में निरंतर समुद्र की तरह निष्कंप हुआ तिष्ठे। अपनी ४ ज्ञान शक्तियों कर बाह्य रूप ज्ञेय पदार्थों में मंत्री भाव नहीं करे तो निश्चल आत्म ज्ञान के प्रभाव पर से अत्यन्त निज स्वरूप में सन्मुख होता तथा ज्ञानानन्द परम ब्रहम स्व स्वरूप को पाता है। और पुद् ४१ 8 गल कर्म, राम, द्वेष, मोह बंध के कारण द्विविधा से दूर रहता है, यह आप ही साधक है, पाप हो । & साध्य है, और यह सम्पूर्ण जगत के प्राणो भी ज्ञानानन्द स्वरूप परमात्म भाव को प्राप्त होगी अर्थात् ४ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छह ढाला इस आत्मज्ञान कला के परमात्म प्रकाश से श्रनेकान्त महा विद्या को निश्चय से धारण करके एक तत्व को पाकर परम आनन्द होओ ! यह परमात्मतत्व वचन से नहीं कहा जाता है केवल अनुभव अपने अंतरंग में प्रकाश करो! जो यह धारा को धारण बहती हुई इस आत्म गम्य है इसलिये इस चिदानन्द परमात्म तत्व को हमेशा श्रानन्द स्वरूप आत्मराम प्रमृतरूपी जल के प्रभावरूप पूर्ण करते हैं वही आत्मा श्रन्यत्व भावना को बार बार स्मरण करते हैं। वही अनेकान्तरूप प्रमाद से अनंत धर्म युक्त शुद्ध चिन्मात्र वस्तु तत्त्व उनका साक्षात् अनुभवी होते हैं, क्योंकि यह आत्मा अनादि काल से लेकर अब तक पुद्गलोक परवस्तु कर्म के निमित्त से मोहरूपी मदिरापान से मदोन्मत हुआ ससार चक्र में घूमता हुवा भव भ्रमण करता है । जैसे समुद्र अपने विकल्प तरंगों से सदा महा क्षोभित हुआ क्रम से परिवर्तन करता है। ऐसे ही यह आत्म प्रज्ञान भाव से परस्वरूप बाह्य पदार्थों में आत्म बुद्धि मानता हुवा मैत्री भाव करता है । अर्थात् आत्मबोध की शिथिलता से सर्व प्रकार बहिर्मुखं हुआ बार बार पुद्गलीक कर्म को पैदा करने वाला रागद्वेष मोह भावों में फँसा रहता है। इसलिये इस आत्मा को शुद्ध चिदानन्द परमात्मा की प्राप्ति कहाँ से हो सकती है ? यदि यही आत्मा अखंड ज्ञान के अभ्यास से अनादि पुद्गलोक कर्म से उत्पन्न हुषा जो मिथ्या राग द्वेष मोह है उसको त्याग कर रत्नत्रय की एकता से निज एकाग्रतारूप मोक्षमार्ग का सेवने वाला सुपात्र बन जाता है तो वही मुनि श्रन्यत्य भावना भाने से समर्थ होता है, वही भव्य उत्तम पात्र बनकर उत्तम फल का देने वाला जीवों का उद्धार करने में समर्थ होता है । अब प्रशुचि भावना लिखते हैं पल रुधिर राध मल थैली, कोकस वसादि तें मैली । नव द्वार बहे घिनकारी, अस देह करें किम यारी ॥ ८ ॥ ५ xxxxxxxxxxxxx Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-यह देह रक्त, मांस, पोप, विष्टा, मल मूत्रादि को अली है और हउडी; चर्बी, रोम कूपाधि से बनी होने के कारण अपवित्र है। इस देह के दो कानों के छेद, दो आंख, दो नाक के ल छेव; एक मुंह, दो मल मूत्र द्वार, इन नौ द्वारों से निशि दिन घिनायनी वस्तुएं बहा करती हैं, फिर हे आत्मन् ! ऐसे अपवित्र देह से क्यों यारी-प्रीति करता है ? अर्थात् यह जीव मल मूत्र युक्त गर्भवास बसता जरायु पर लिपटा हुवा माता के भक्षण से उत्पन्न श्लेष्म लार कर सहित तीन दुर्गध रस को पोता है, मांस, हाड, कफ, मेव, खून, चाम, पित, आंत, मल, मूत्र इनका धर, बहुत दुःख और सैकड़ों 8 रोगों का पात्र ऐस शरीर को तुम अनुचि जानो, स्त्री, वस्त्र, धन, मैथुन, शरीरादि यह सब अशुभ हैं ऐसा जानकर वैराग्य को प्राप्त कर, स्वभाव में रम, इस तरह वैराग्य भाव धारण कर प्रात्म ध्यान में 8. लीन हो जिससे प्रशुचि अपवत्रि इस शरीर का सम्बन्ध छूट जाय, ये भावना उत्तम है। भावार्थ-यह समस्त शरीर निध और अपवित्र वस्तुओं का पिंड है, नाना प्रकार के कमि कुल से भरा हुवा है, अत्यन्त दुर्गन्धित है, मल मूत्र को खान है, मशार है, इस अपवित्र शरीर के 8 संबंध और संपर्क से अति पवित्र पुष्प मालादि सरस सुगंधित और मनोहर पदार्थ भी प्रति अपवित्र और घिनावने हो जाते हैं। इस प्रकार देह को देखते हुये भी बड़ा भारी आश्चर्य है कि तू उसो में अनुरक्त रागो हो रहा है और आसक्ति से सेवन कर रहा है । हे आत्मन् ! इस शरीर के भीतरी 8 स्वरूप का विचार करे तो इस के भीतर हाड मांस रुधिर नसा जाल मद मूत्रादि अपवित्र वस्तुओं के पष्ट & सिवाय और क्या भरा है, जो ये वेह इस चमड़ी के ढके रहने के कारण ऊपर से बड़ी सुन्दर रमणीक ११ दिखती है यदि देवयोग से उसके भीतर को कोई वस्तु बाहर आ जाय तो उसके सेवन की बात तो * दूर रही उसे कोई देखना भी नहीं चाहता है । इस लिए इस मांस के पिड को अपवित्र और विनश्वर Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 समझ कर उसमें अनुराग मत कर, किन्तु इससे जो एक महान लाभ यह हो सकता है, उसे प्राप्त करने 8 का प्रयत्न कर । जो अक्षय अव्यायाध सुख को प्राप्ति के साधनभूत रत्नत्रय सार भूत सम्यक् चारित्र को पूर्ति, उत्कृष्ट तपादिक की साधना इस शरीर से ही संभव है अतः उत्तम तपश्चरणावि कर के इस & असार संसार शरीर से संवेग वैराग्य की वृद्धि कर सम्यक चारित्र रूपो सार को खींच ले। फिर रसहीन हुए इक्षु दंड के समान इस शरीर के विनाश होने पर भी कोई खेव नहीं होयगा । इस प्रकार के चिन्त& वन करने से शरीर को निर्वेद होता है जिससे यह जीव संसार समुद्र से पार होने का प्रयत्न करता है & अब आसब भावना का स्वरूप लिखते हैं जो जोगन की चपलाई, तातें हवं आशव भाई । आस्तव दुखकार घनेरे, बधिवंत तिन्हें निरवेरे ॥४॥ अर्थ-हे भ्रात ! मन वचन और काप इन तीनों योगों में जो पता होती है, उसी से 8 6 कर्मों का आसव होता है। यह प्रासव अति दुख देने वाला है, इसलिए बुद्धिमान लोग उसे रोकने 8 का प्रयत्न करते हैं । अर्थात् जिसमें दुःख भय रूपी बहुते मत्स्य हैं ऐसे महा भयंकर संसार समुद्र में यह प्राणी जिस कारण से डूबता है वही सब कासव का कारण है, जो कि राग, द्वेष, मोह, पाचल इन्द्रिय, प्राहारावि संज्ञा, ऋद्धि प्रावि गौरव, क्रोधादि कषाय, मिथ्यावावि शत्रु और मन वचन काप ले को क्रिया सहित, वे सब आस्राव हैं इनसे कर्म आते हैं । बात यह है कि राग इस जीव को अशुभ पृष्ठ & मलिन घिनावनी बस्तु में अनुराग उपजता है, देश भो, सम्यग्दर्शनादिकों में देव अप्रीति उपजाता है ष्ल और मोह भी इस जीव का महान बेरी है, जो कि हमेशा इस जीव के असली स्वरूप को भुला देता 88 & है तथा मोच गति करा देता है, ऐसे इस मोह को धिक्कार हो, क्योंकि मन में रहने वाले जिस मोह से Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ & मोहित हुवा यह प्राणी हितकारी मोक्ष सुख का कारण ऐसे जिन बचन अमृत को पान नहीं करने देता, 8 नहीं पहिचानता, ऐसा आस्रव भावना को चिन्तवन करना चाहिये, क्योंकि एकाग्रह मन के बिना राग ४ द्वेष इन्द्रिय विषयादियों के रोकने को समर्थ नहीं हो सकते जैसे मंत्र प्रौषधि कर होन वैद्य दुष्ट ताला आशी विष सर्पो को वश नहीं कर सकता । यह जीव विषयों में रत होकर निरन्तर पाप का उपार्जन करके चारों गतियों में अनन्त दुःख अनन्त काल तक भोगता रहता है । अर्थात् आहारादि संज्ञा © तीन मौरव मिथ्यावर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र धारण करके महापाप को उपार्जन करके पश्चात् कर्मरूपी भार से भरा हुवा महान दुःख भोगता है तथा सत्तावन आस्रव के द्वारा यह जीव दुःख ४ पाता है जैसे छिद्र सहित नाव समुद्र में डूब जाती है इस तरह कर्मास्त्रव से जीव भी संसार समुद्र में 3 डूब जाता है ऐसा चितवन करना । भावार्थ-यपि योगों को चंचलता से कर्मों का आस्रव होता है तथापि उनमें स्थिति बंध ४ व अनुभाग, बंध नहीं पड़ता है, इसलिये वह आनव जीव को दुःखदायो भी नहीं है। किन्तु कषायों से युक्त योगों के निमित्त से तो कर्मों का आसव होता है वह महा दुर्मोच होता है, उसका छूटना बहुत कठिन होता है । इस युमोच कर्म पुद्गल कर्मों से निरंतर भरा जाता हुथा यह जीव नीचे नीचे चला ४ जाता है जैसे कि जल से भरी हुई नाव नोचे को चली जाती है । ऐसे ही यह जीव फर्म पुद्गल ल संचय कर चारों गति में गमन करते हैं तथा भिन्न भिन्न अवस्था रूप परिणति है यही संसार है । 8 यद्यपि द्रध्यपने से यह जीव टंकोकिरण स्थिर रूप है तो भी पर्याय से प्रथिर है । पूर्व को अवस्था को 8 त्याग कर आगे को अवस्था को ग्रहण करना है, वही तो संसार का स्वरूप है। जब यह जीव पुद्गल कर्मों से सजा हुआ अनादि काल से मलिन हुआ मिथ्यात्व रागादि रूप कर्म सहित अशुद्ध । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल विभाष विकार रूप परिणामों को करता है उस रागादि विभाव रूप परिणामों से पुद्गलिक द्रष्ट्य कर्म & जीव के प्रदेशों में आकर बंध को प्राप्त हो जाता है प्रथम समय आसव प्राता है, द्वितीय समय बंष8 को प्राप्त हो जाता है इसी कारण से रागादि विभाव परिणाम पुद्गलोक बंध को कारणरूप भाव कर्म डाला है । इसलिये निश्चय से आत्मा अपने भावकों का कर्ता है । जो पुद्गल परिणाम है वह पुद्गल ही है और परिणामो अपने परिणामों का कर्ता है, परिणाम परिणामी एक ही है जो पुद्गल परिणाम ल है वही पुद्गलमयी क्रिया है जो किया है वह कर्म है इसलिए पुद्गल अपने द्रव्य कमरूप परिणामों का कर्ता है इसलिए कर्मास्त्रव का कारण तेरा अनादि कालीन कषाय युक्त योग भाव है उसे दूर करने का निरंतर प्रयत्न कर, आस्रव और बंध के कारणों से बचने का प्रयत्न करना हो आसाथ भावना & का उद्देश्य है । इस भावना के चिन्तवन करने से मिथ्यात्व कवाय अविरत आदि में हेय बुद्धि और सम्यक्त्व चारित्र प्रावि में उपादेय बुद्धि जागृत हो जाती है । अब संबर मावना लिखते हैं जिन पण्य पाप नहिं कीना, आतम अनभव चित दीना । तिनको विधि आवत रोके, संवर लहि सुख अवलोके ॥ १० ॥ अर्थ – जिन बुद्धिमान पुरुषों ने पुण्य और पाप रूप कार्यों को नहीं किया, किन्तु अपने आत्मा के अनुभव में चित को लगाया है, उन्हीं महापुरुषों ने आते हुए कर्मों को रोका और संबर को प्राप्त कर अक्षयानन्त आत्म सुख को प्राप्त किया है। अर्थात जो कर्मासव के कारण इन्द्रिय कषाय संज्ञा गौरव राग द्वेष मोह भावि उन सब को रोके, कवायों के वेग को रोकने से मूल से लेकर अंत तक सब ही पासव एक जाते हैं, जैसे नाव के छिद्र को रोकने से नाव पानी में नहीं पूब सकती है, तथा इन्द्रिय कषाय राग द्वेष से तप जान संयम और विनय से रोके जाते हैं, जैसे कुमार्ग गमन करते हुए 8 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाला 6 तुरंग लगाम से रोक दिये जाते हैं, जो रत्नत्रय युक्त मुनि के आत्रय द्वार को रुक आने पर नवीन 8 कर्मों का आनव नहीं होता, मिथ्यात्य अविरत प्रमाव कषाय योग इन से जो कम आते हैं, वे सम्य दर्शन विरत कवाय निग्रह योग निरोध इनसे यथाक्रम कर नहीं आते, इस संवर भावना का फल मोक्ष है इस कारण संबर के साधन बनाकर ध्यान कर सहित हुआ सब काल यत्न में लगा देवो, ऐसा & निर्मल प्रात्मा होकर इस संवर का घिन्तवन करो, कल्याण होगा। भावार्थ-आचार्य ग्रंथकारों ने पाप को लोहे को बेड़ो और पुण्य को सुदर्ण को वेडो कहा है क्योंकि दोनों के बार यंथे हुए मनुष्य स होकार दुःश को अनुभव करते हैं । इसलिए जानी पुरुष ल पुण्यालय और पापानव को छोड़ कर प्रात्मानुभव का प्रयत्न करते हैं । कर्मों के आगमन को रोकने 8 के लिए तीन गुप्ति, पांच समिति, दश धर्म, बारह भावना, बाईस परोषह जय और पांच प्रकार के 8 चारित्र को धारण करने की आवश्यकता है। मन वचन काय की चंचलता को रोकना सो गुप्ति है, & गमनागमन आदि में प्रभाव को दूर करना सो समिति है दयामयी उत्तम क्षमावि का धर्म को धारण ४ करना सो धर्म है । संसार, बेहादि का चिन्तवन करना सो अनुप्रेक्षा है भूख प्यास आदि को बाधा को उपशम भाव से जोतना सो परिषह जय है। राग द्वेष छोड़कर सद् ध्यान में तल्लीन होना और आत्म स्वरूप का चिन्तवन करना सो चारित्र कहलाता है। ये सब संवर के कारण हैं । उन्हें धारण कर, हे आत्मन् ! तू आते हुए कर्मों को रोक जिस से कि संसार रूपी समुद्र में तेरा आत्म रूपो यह उत्तम जहाज छिद्र रहित होकर निरुपद्रव हो जाय । तू गुरित आदि का धारण करना कठिन मत 8 समझ, उनका पालना अत्यन्त सरल है । देख पहले विकथाओं के कहने सुनने से अपने आपको बचा ४ फिर पर पदार्थों से ममता का नाता तोड़ और अपने स्वरूप को भावना कर, गुप्ति प्रादि तो तेरे हाय 8 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में स्वयं आ जायगी, इस प्रकार बिना किसी क्लेश के प्राप्त होने वाले मोक्ष मार्ग में अपनी बुद्धि को 8 लगा, बाहरी सन्ताप बढ़ाने वाली वस्तुओं में क्यों मोहित हो रहा है ऐसा जान कर जो बुद्धिमान् ? विषयों से विरक्त होकर अपने आपको सदा सम्वृत रखते हैं उनके हो कर्मों का सम्वर होता । जो भध्य जोय कर्म के उदय से होने वाले प्रात्मा के वभाविक राग द्वेष मोह मद मत्सर कवाय आदि भाव के गुणों का चिन्तवन करते हैं तथा उन कर्मो के क्षय होने से जो प्रकट होने वाले उत्तम क्षमादि प्रात्मा के स्वाभाविक गुणों का चिन्तवन करते हैं । इन दोनों के यथार्थ स्वरूप का चिन्तवन कर, जिससे शुद्ध आत्मा में प्रेम हो तब हो सम्बर भावना होती है उनको अवश्य मोक्ष को प्राप्ति होती है । इसमें कोई सन्देह नहीं है । ऐसा बार बार चिन्तवन करना सो सम्बर भावना है, इस भावना के चिन्तवन करने से आत्मा कर्मों के आम्मदों से बचने का प्रयत्न करता है और सुखी होने के लिए & मोक्ष मार्ग में लगता है । अध निर्जरा भावना का स्वरूप कहते हैं निज काल पाय विधि झरना, तासौं निज काज न सरना । तप करि जो कर्म खपावं, सोई शिव सुख दरसावै ॥११॥ अर्थ-अपनी स्थिति को पूरा करके जो कर्म झरते हैं उनसे आत्मा का कोई कार्य सिद्ध & नहीं होता है । किन्तु तपके द्वारा जो कर्म को निर्जरा की जाती है वही मोक्ष सुख की प्राप्ति करती है । आगे निर्जरानुप्रेक्षा वर्णन करते हैं। इस प्रकार जिसने आसप को रोक लिया है और & जो तप सहित है ऐसे मुनियों के कर्मों की असंख्य गुणो निर्जरा होती है, यह निर्जरा एक देश एवं 8 देश के भेद से दो प्रकार की है । इस जगत में चतुर्गतिरूप संसार में भ्रमण करते हुए सब ही & जीवों को क्षयोपशम को प्राप्त होते हुए कर्मों को निर्जरा होती है वह एक देश निर्जरा है । और जो Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तप से निजरा होता है यह सकल निर्जरा है। जैसे सुवर्ण अग्नि में तपाया धमाया गया कोटकावि मल रहित होके शुद्ध हो जाता है उसी तरह यह जीव भो तप रूपी अग्नि से सपाया कमो से रहित छह& होकर शुद्ध स्वर्ण सदृश होता है, बहुत काल का समय किया कर्म कट जाता है। भावार्य-सञ्चित कर्मों के झड़ने को निर्जरा कहते हैं । यह निर्जरा दो प्रकार को होती है, सविपाक निर्जरा और अविपाक निर्जरा । जिस कर्म की जितनी स्थिति पूर्व में बंधी थी उसके पूरा ४ होने पर उस कर्म के फल देकर झड़ने को सविपाक निर्जरा कहते हैं यह सब संसारी जीवों के होती है इससे आत्मा को कोई लाभ नहीं है क्योंकि इस निर्जरा के द्वारा जीव जिन कर्मों को निर्जरा करता है & उससे कई गुणित. अधिक मदीन कर्मों का अन्य कर लेता है, जैसे मंथन दिलोने में रस्सी एक और 8 खिचती है और दूसरी ओर लिपट जाती है, इसलिए इस निर्जरा को व्यर्थ बतलाया गया है । 8 तपश्चरण के द्वारा स्थिति पूर्ण होने के पूर्व ही जो कर्मों की निर्जरा की जाती है उसे प्रविपाक निर्जरा कहते हैं, ये निर्जरा बती तपस्वी साधुओं के होती है और यही आत्मा के लिये लाभदायक है, यही मोक्ष प्राप्त करने वाली हैं, निर्गरा का प्रधान कारण तप है, वह तप बारह प्रकार का बतलाया गया है, वैराग्य भावना युक्त, अहंकार घमंड रहित, ज्ञानी पुरुषों के ही तप से निर्गरा होती है। प्रात्मा में ज्यों ज्यों उपशम भाव और तप को वृद्धि होती जाती है त्यों त्यों निर्जरा को भी वृद्धि होती जाती है । जो दुर्जनों के दुर्वचनों को, मारन, ताड़न और अनादर को अपना पूर्वोपार्जित 0 कर्म का उदय जानकर शान्त चित्त से सहन करते हैं उनके उन कर्मों की निर्जरा विपुल परिणाम में तू होती है। जो तीव्र परिषह और उग्र उपसर्गों को कर्म रूप शत्रु का ऋण समझ कर शान्ति से सहन करने हैं उनके भारी निर्जरा होती है। जो पुरुष इस शरीर को ममता का उत्पन्न करने वाला विनश्वर Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाल अपवित्र समझ कर उसमें राग भाव नहीं करता है, किन्तु अपने वर्शन, ज्ञान और चारित्र का सुख- 8 जनक निर्मल और नित्य समझता है उसके कर्मों को महान निर्जरा होती है। जो अपने आपको 3 छहा तो निन्दा करता है और गुणीजनों को सदा प्रशंसा करता है, अपने मन और इन्द्रियों को अपने वश में रखता है और आत्म स्वरुप के चिन्तवन में लगा रहता है उसके कर्मों की भारी निर्जरा होतो है। जो समभाव में तल्लीन होकर आत्मस्वरूप का निरन्तर ध्यान करते हैं तथा इन्द्रियों और कषायों को जीतते हैं उनके कर्मों को परम उत्कृष्ट निर्जरा होतो है, ऐसा जानकर सदा तपश्चरण को करते हुए प्रात्म-निरत होना चाहिए ऐसा विचार करना सो निर्जरा भावना है । अर्थात् जो अन्तर 8 आत्मा शुद्ध सम्यग्दृष्टि स्व समय और पर समय को जानकर पर समय को तजता है और जो अपने 8 शुद्ध स्वभाव में स्थिर रहता है उनके ही फर्म को निर्जरा होती है अर्थात् जो आत्मा इन दोनों प्रकार के 38 स्वरूप को जानता है इनके द्रव्य रूप असंख्यात प्रदेशों को जानता है, इनको दररूप से जानता है इनके समस्त गुणों को जानता है स्वभाव विभावों को जानता है, और इनको समस्त पर्यायों को जानता है ऐसी आत्मा कर्मों की निर्जरा करता हुआ मोक्ष तक जाने वाले मार्ग का नायक समझा जाता है वही आत्मा समय पाकर परमात्मा बन जाता है। प्रागे लोक भावना का स्वरूप लिखते हैं किन ह न करयोन धरै को, षटद्रव्यमयी न हर को । सो लोकमाहिं बिन समता, दुख सहै जीव नित शमता ॥१२॥ अर्थ-छह द्रव्यों से भरे हुए इस लोक को न किसी ने बनाया है, न कोई इसे धारण किए & हुए है और न कोई इसका नाश हो कर, सकता है ऐसे इस लोक के भीतर समता भाव के बिन यह जोच निरन्तर भ्रमण करता हुआ महा दुःख सहा करता है + अर्थात्-यह लोक सामान्यकर Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 骡 डाला एक है। ऊर्ध्व अधो लोक से या तियंग लोक मिलाने से तोन भेद वाला है गति ग्रस्तिकाय द्रव्य पदार्थ कर्म इनको अपेक्षा चार, पाँच, छह, सात आठ भेदवाला है; इस प्रकार तथा पर्याय भेदकर लोक के अस्तित्व काय का चिन्तवन करें । यह लोक अकृत्रिम है, अनादि निधन है अपने पर स्वभाव से स्थित है, किसी के द्वारा बनाया हुआ नहीं है । जीव अजीव द्रव्यों से भरा हुआ है । सर्वकाल रहने वाला नित्य है और ताड़वृक्ष के आकार है, धर्म अधमं लोकाकाश और जितने में जोव पुद्गलों का गमनागमन है उतना ही लोक है। इसके आगे तर रहित जगन द्रव्यों के विश्राम केवल आकाश द्रव्य है, उसको अलोकाकाश कहते हैं । यह लोक अधोदेश में, मध्यदेश में, ऊपरले प्रदेश में क्रम से वेत्रासन, शालर, मृदंग इनके प्राकार हैं। मध्य के एक राज्ज विस्तार से चौदह गुगा लम्बा और ३४३ राजू घनाकार लोक है, उसमें यह जीव अपने कर्मों से उपार्जन किये सुख दुख को भोगते हैं और इस भव सागर में जन्म मरण को बारंबार अनुभव करते हैं । इस भवमें जो माता भव में वह पुत्री हो जाती है और पुत्री का जीव भव पलट कर माता हो जाती है। अधिक बलवीर्य का धारी प्रतापवान राजा भी कर्म के वश इस लोक में कीट हो जाता है तथा महान ऋद्धिधारी देव अनुपम सुख को भोगने वाला भी चलकर दुःख को भोगने वाला हो जाता है । इस प्रकार लोक को निस्सार जानकर अनन्त सुख का स्थान ऐसा मोक्ष स्थान का यत्न से ध्यान कर ! देखो नरक में सदा दुःख ही है, तियंचगति में हाथी, घोड़ा आदि बन्धन ताड़न आहारादिक रोकना ये दुःख है । मनुष्य गति में रोग शोक आदि अनेक दुःख हैं, और देव गति में दूसरे को आज्ञा में रहना तिरस्कार आदि सहना, वाहन बनना मानसिक दुःख है, ऐसा लोकानुप्र ेक्षा चिन्तवन करना तथा पटल इन्द्रक श्रीबद्ध प्रकीर्णकावि पर्याय सहित चितवन करें । त्रिकोण चतुष्कोण गोल आयतन 제주지 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाला मदंगाकार रूप आकारों सहित अवलोक, अधोलोक तथा मध्यलोक का चिन्तवन करे । भावार्थ-अन्य मतावलम्बी मानते हैं कि बा ने इस कोर को बनाया है। विष्णु इसे धारण किए हुए हैं और महेश इसका संहार करते हैं । छहढालाकार इन सब का खण्डन करते हुए कहते हैं कि न तो किसी ने इस लोक को बनाया है, न कोई धारण किए हुए है और न कोई इसका & नाम ही कर सकता है। किन्तु यह लोक अनन्तानन्त श्राकाश के ठीक मध्य भाग में छह द्रव्यों से ठसाठस भरा हुआ पुरुषाकार संस्थित है और इसे चारों ओर घनोदधिवात, घनवात और तनुवात 8. ये तीन प्रकार के वातवलय से घेरे हुए हैं जिनके आधार पर यह लोक स्थिर है। इस लोक का आकार दोनों पैर फैलाए और कटि भाग पर दोनों हाथ रखे हुए पुरुष के समान है। इसके तीन भाग हैं-अधो भाग को पाताल लोक कहते हैं, जहाँ नारको प्रादि रहते हैं । मध्य भाग को तिपंच लोक या मध्य लोक कहते हैं जिसमें असंख्यात द्वीप समुद्र को अनादि निधन रचना है, इसो भाग में मनुष्य और तिर्यंच रहते हैं, इससे ऊपर के भाग को अर्ध्व लोक कहते हैं जहाँ स्वर्ग पटल हैं वहाँ देव, इन्द्र, अहमिन्द्र आदि निवास करते हैं । सब से ऊपर सिद्ध लोक है । जहाँ अनन्तसिद्ध विराजमान हैं। इस प्रकार के लोक में अनादि से यह जीव यथार्थ ज्ञान न होने के कारण जन्म मरण करता हुआ चक्कर लगाता है। इसमें एक प्रदेश भो बाकी नहीं बचा है जहाँ पर इस जोष ने अनन्त बार © जन्म और मरण न किया हो। पाप करने से यह जीव नरक, तियंचों में उत्पन्न हुआ। पुण्य करने से & मनुष्य और देवों में पैदा हुप्रा परन्तु मोक्ष जाने के उपायभूत शुद्ध उपयोग को इसने आज तक भी हु ल प्राप्त नहीं किया, जिसके कारण आज भी संसार में परिभ्रमण कर रहा है । परिणाम सोन प्रकार का इस - जीव के होता है, एक अशुभ परिणाम, दूसरा शुभ परिणाम और तीसरा शुद्ध परिणाम, जो संसारो - Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - और धर्म से बाहमुख मा प्रवृत विषय कषाय रूप अशुभयोग रूप परिणाम परिणमता है तम वह १ आत्मा बहुत काल तक संसार में भटकता है। इसलिए यह अशुभयोग परिणाम सर्वथा हेय ही है। यह तो किसी प्रकार भी धर्म का अंग नहीं है और इसके फल से वे खोटे मनुष्य, तिर्यच और नारको इन 8 तीन गतियों में अनेक बार अनेक जन्म मरण के कलेगा रूप होते हुए सदा काल भटकते रहे और जब यह जीव शुभोपयोग रूप दान, पूजा, व्रत, संयमावि सराग परिणामों कर परिणमता हुआ परिणति को धारण करता है, तब इस आत्मा को शक्ति को से रोकी जाती है, इसलिए मोक्षमार्ग रूपी कार्य करने को असमर्थ हो जाता है । यद्यपि शुभोपयोग व्यवहार चारित्र का अंग है, तो भी स्वर्गों के 8 8 सुखों को ही उत्पन्न करता है और अपने निजानन्द आत्मिक सुख से उलटा पराये आधीन संसार संबन्धी इन्द्रियों से उत्पन्न होने वाले सुख का कारण है; क्योंकि यह परिणाम राग अंश से मिला हुआ है इस लिये संसारी सुख फल को ही देता है । और जिस आत्मा ने अपना और पर का भेद विज्ञान भले प्रकार जान लिया, श्रद्धान किया, और निज स्वरूप में हो आचरण किया है ऐसा मुनीश्वर शुद्धो- 8 पयोग वाला होता है, अर्थात् मन, इन्द्रियों की अभिलाषा रोककर छह काय के जीवों को रक्षा रूप अपने स्वरूप का प्राचरण संयम और द्वादश तप के बल कर, अपने स्वरूप को स्थिरता के प्रकाश से ज्ञानराज का देदीप्यमान होना, इन दोनो कर सहित तथा वीतराग परिणाम का परिणमता हुआ पर द्रव्य से रमण करने का परिणाम दूर कर उत्कृष्ट ज्ञान को कला को सहायता से इष्टानिष्ट रूप इन्द्रियों के विषयों में हर्ष विषाद नहीं करते हुए मुनि शुद्धोपयोगी कहा जाता है । यह शुद्धोपयोगी आत्मा, गुण स्थान प्रति शुद्ध होता हुआ सप्त गुण स्थान में सविकल्पी श्रेणी के सन्मुख फिर श्रेणी में अष्टमे गुण स्थानति निविकरूपी बारहवें गुण स्थान के अन्त में घातिया कर्म नाश कर केवलज्ञान को 8 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 पाता है। वह ज्ञान आत्मा का स्वभाव है और ज्ञान थेय के प्रमाण है । ज्ञेय तीनों कालों में रहने वाले 8 & सर्व पदार्थ हैं, इसलिए शुद्धोपयोग के प्रसाद से ही यह आत्मा सर्व ज्ञेयों को जानने वाले केवलज्ञान ले 8 को प्राप्त होता है । इसलिए शुद्धोपयोग सर्व प्रकार से उपादेय है, ग्रहण करो ! इस प्रकार लोक का स्वरूप चिन्तवन करना सो लोकभावना है । इसके बार बार चिन्तवन करने से जीव को निज तत्त्व ज्ञान की प्राप्ति होती है उससे मोक्ष पाने का प्रयस्न करता है। तत्त्वज्ञान संसार में सार है, मोक्षमार्ग का भूल धर्म है । परन्तु पात्मज्ञान प्राप्त न होने से संसार में रलता है। अंतिम ग्रीवकलौंकी हद, पायो अनन्तबिरियां पद । पर सम्यकज्ञान न लायो, दर्लभ जिनमें मनि साध्यो ॥१३॥ अर्थ-इस जीव ने नौ वेग्रेयेय की हद (सीमा) तक के इन्द्र, अहमिन्द्र आदि पदों को अनन्त बार पाया है पर सम्यकज्ञान को नहीं प्राप्त कर पाया। जिसके कारण यह आज भी संसार में परिभ्रमण 8 कर रहा है, ऐसे अत्यन्त दुर्लभ सम्यग्ज्ञान को सच्चे साधु ही अपने आप में सिद्ध करते हैं। आगे बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा को कहते हैं- अर्थात् इस अनन्त संसार में जीवों के मनुष्य जन्म का सम्बन्ध जैसे समुद्र के पूर्व भाग में युग और समिला का सम्बन्ध । जूड़े के छेद में प्रवेश होना महान् दुर्लभ है, किसी तरह मनुष्य जन्म भी मिल गया तो भी आर्य देश शुद्ध कुल में जन्म, सर्व अंगपर्णता, & शरीर निरोगता, साम्यर्थ, जैन धर्म, विनय, प्राचार्यों का वचन उपदेश, उसका ग्रहण करना, चिन्तवन करना, धारण रखना, ये सब आगे प्रागे के क्रम से लोक में इस जीव को मिलने अति कठिन है । & तथा सम्यग्दर्शन को विशुद्धि का पाना अति दुर्खभ है । क्योंकि कुमार्गों की आकुलता से यह X जगत आकुल हो रहा है, उसमें राग-द्वेष दो बलवान हैं । संसार के भय को विनाश करने वाली, X :. . Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाला सब गुणों का आधार भूत सो वह बोधि भावना मैंने अब पाई है जो कि कदाचित संसार 8 सागर में हाथ से डोरी छूट गई तो फिर उसका मिलना सुलभ नहीं है इसलिये मुझे बोधि में है प्रमाद करना ठीक नहीं है । जिसका मिलना कठिन है ऐसी बोधि को पाकर जो मनुष्य प्रमाद करता 8 है वह पुरुष निन्दनीय है वह कुगतियों को प्राप्त करता हुआ दुःखी रहता है। पांचवा कारण लब्धि के बाद उपशम, क्षयोपक्षम और क्षायक सम्यक्त्वरूप बोधि को यह उत्तम भव्य जीव पाता है. फिट, उप हायर हप म का, गाहित हुश्रा कर्मों का नाश कर अविनाशी सुख को प्राप्त होता है । इस हो बोधि से जीवादि सप्त तत्व, छह द्रव्य, नो पदार्थ जाने जाते हैं इसलिये लाखों गुणों कर युक्त : ऐसी बोधि को सब काल चिन्तवन करो। भावार्थ-यथार्थ ज्ञान को बोधि कहते हैं । रत्नत्रय स्वभाव की प्राप्ति ज्ञान और अनुष्ठान को & भी बोधि कहा है । इसको दुर्लभता का चिन्तवन करना सो बोधि दुर्लभ भावना है जो कि जिस उपाय से सम्यग्ज्ञान उत्पन्न होता है उस उपाय को चिन्ता को बोधि कहते हैं । यह बोधि अत्यन्त दुभि है । क्योंकि अनादि काल से लेकर आज तक वह जोब बहु भाग अनन्त काल तो निगोद में हो रम रहा फिर बहां से निकल कर प्रश्वकायिक आदि एकेन्द्रिय जीवों की अन्य पर्याय को प्राप्त हुआ । उनके भी वाहर सूक्ष्म प्रादि अनेक भेद हैं सो उनमें हो असंख्यात काल तक परिभमरा करता रहा । जब एकेन्द्रियों में से निकल कर बस पर्याय पाने को चिन्तामणि रस्न के पाने के समान कठिन बतलाया गया है अथवा बालू के समुद्र में गिरि हुई होरा को कणो का मिलना जैसा कठिन है वैसा हो कठिन अस पर्याय पाना है । इस श्रस पर्याय में विकलेन्द्रीय जोयों को अत्यन्त अधिकता है सरे उनमें अनेकों पूर्व कोटि वर्षों तक भ्रमण करता रहा फिर उनमें से निकल कर पंचेन्द्रियों को पर्याय Sanizaxmixinhibisixxxresssxxxxxzwwwwxaml Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाला & पाना ऐसा कठिन है जैसा कि अनेक गुण पाने पर भी कृतज्ञता का गुण पाना । किसी प्रकार पंचेन्द्रिय 8 हो भी गया तो उसमें भी सैनी होना अत्यन्त कठिन है। सैनी होकर के भी मनुष्य भव का पाना 8 छह इस प्रकार कठिन है जिस प्रकार कि चौराहे पर रत्नराशि का पाना । ऐसा दुर्लभ मनुष्य भब " पाकर के भी जीव मिथ्यात्व के वशीभूत होकर महान् पापों का उपार्जन किया करता है । इस मनुष्य भव में भी आर्यपना, उत्तम कुल, गोत्रादिक को प्राप्ति, धनादि सम्पत्ति, इन्द्रियों की परिपूर्णता, शरीर में निरोग पना, दीर्घ आयुकता, शोलपना आदि का मिलना उत्तरोत्तर अत्यन्त दुर्लभ ४ है । यदि किसी प्रकार उपर्युक्त सब वस्तुएं प्राप्त भी हो गई तो सद्धर्म की प्राप्ति होना अत्यन्त कठिन है । यदि वह न प्राप्त हुआ तो समस्त वस्तुओं का पाना व्यर्थ है, जैसे सर्व अंग अत्यंत सुन्दर 0 पाकर भी नेत्र हीनता के होने से मनुष्य जन्म व्यर्थ है। इसलिए हे भव्य जीवो ! ऐसे कठिन नर भव को पाकर सम्यक्त्व, ज्ञान और चारित्र को धारण करो इस मनुष्य पर्याय से हो चारित्र संयम तप ध्यान आवि का होना संभव है और इसी से हो मोक्ष की प्राप्ति होती है । जो ऐसे उत्तम नरभव को पाकर तुम इन्द्रिय विषयों में रमण करते हो वे भस्म के लिए दिव्यरत्न को जलाते हो, तुम जैसा अज्ञानी मूर्ख & संसार में और नहीं है । ऐसा जानकर हे आत्मन् ! कर्मोदय से उत्पन्न हुई समस्त पर्यायों को और समस्त संयोगों को 'पर' जानकर सब सम्बन्धों को छोड़कर अपना आत्मा ही स्यद्रव्य है वहीं तुम्हें उपादेय है । ऐसा दृढ़ निश्चय करो । यही सज्ञान है और यही उत्तम बोधि है । ऐसा बार बार चितवन करना सो बोधि-दुर्लभ भावना है इस भावना के निरंतर भाने से रत्नत्रय की प्राप्ति होती है और आत्मा सदा जाग्रत रहता है। अब धर्म भावना का वर्णन करते हैं Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 破 ढाला जं भाव मोहत न्यारे, दृगज्ञान व्रतादिक सारे । सो धर्म जवं जिय धारे, तब हो शिव सुख विस्तारे || १४ || अर्थ-दर्शन मोह से रहित जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र व्रत तप आदि हैं, वे हो सच्चे धर्म हैं उस धर्म को जब जीव धारण करता है, तभी वह अविचल और अव्यावाध सुख को प्राप्त करता है । अर्थात् सब जीवों को हितकारी उत्तम क्षमादि दश धर्म तीर्थंकरों ने उपदेशित किया है, उस धर्म को मनुष्य शुद्ध चितवन करे यही जगत् में पुण्यवान् पुरुष है, तथा शान्ति, दया, क्षमा, वैराग्य भाव, थोडस कारण भावना आदि को जिस जीव को कल्याण की प्राप्ति होती है वही धर्मभाव से सेवन करता है ये सब जैसे जैसे बढ़ते जाते हैं वैसे वैसे इस जीव को अविनाशी मोक्ष सुख अनुभव गोचर होता जाता है । अर्थात् पंच परावर्तन रूप संसार कर जिसका मार्ग महा विषम है ऐसे भव बन में भ्रमण करते हुए मैंने बड़े परिश्रम से अर्हत कर उपदेश्या महान् धर्म पाया ऐसा जीव को चितवन करना चाहिए और जो गति अहंतों की है, जो कृतकृत्य सिद्ध परमेष्ठियों की है तथा जो गति क्षीण कषाय छद्मस्थ अल्पज्ञानी वीतरागों की है वही गति हमेशा मेरी भी होवे और में दूसरी कोई अभिलाषा या याचना नहीं करता । भावार्थ - इस दश लक्षण रूप धर्म को, निजानंद रमण स्वरूप की एवं जीव दयादि रूप धर्म को प्राप्ति निकट भव्य के अत्यंत भाग्योदय से होती है । यह धर्म उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, प्राकिचन और ब्रह्मचर्य स्वरूप है, अहिंसा और अपरिग्रहता हो इस के प्रधान लक्षण हैं । इसी धर्म के प्राप्त न होने के कारण ये जीव अनादि काल से इस संसार में अपने gora का फल भोगते हुए परिभ्रमण कर रहे हैं। जो जीव जैसे प्रेम अपने पुत्र, पौत्र, स्त्री, माता, Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छह ढाला पिता भ्राता, इन्द्रियों के भोगों में और धन-सम्पत्ति में करता है वैसा स्नेह यदि वह जिनेन्द्रदेव प्रतिपादित धर्म में करता तो लोला मात्र में सच्चे सुख को प्राप्त कर लेता । किन्तु यह महान् दुःख की बात है कि मनुष्य सांसारिक सम्पत्ति को चाहता है परन्तु सच्चे धर्म का प्रावर नहीं करता । जिस धर्म के प्रसाद से अत्यन्त दुर्लभ मोक्ष सुख प्राप्त हो सकता है उससे सांसारिक सम्पदाओं का मिलना कौन सा कठिन कार्य है ? ऐसा जानकर विवेकी पुरुषों को सदा जिन धर्म की आराधना करनी चाहिए । इस सत्य धर्म के प्रभाव से एक तियंच भी मर कर उत्तम देव हो जाता है। चाण्डाल भी देवेन्द्र बन जाता है । इस धर्म के प्रसाद से अग्नि शोतल हो जाती है । सर्प पुष्प (फूल) माला बन सकता है । और देवता भी किंकर बन कर सदा सेवा करने को तैयार रहता है। तीक्ष्ण तलवार भी पुष्पों का हार बन जाता है, अग्नि कुण्ड भी जल कुण्ड हो जाता है । दुर्जय शत्रु भी अत्यंत हितैषी मित्र न जाता है, हलाहल विष भी अमृत बन जाता है महान् विपत्ति भी सम्पत्तिरूप परिणत हो जाती है, बन भी नगर बन जाता है, भयंकर उपसर्ग भी स्वतः स्वभाव दूर होकर दिव्य • ध्वनि खिरने लग जाती है । किन्तु धर्म से रहित देव मी मरकर मिध्यात्व के बा एकेन्द्रियों में उत्पन्न होता है और धर्म से रहित चक्रवति भी महा आपदा के घर सप्तम नरक में पड़े पड़े महादुःख सागरों तक भोगता है । इस प्रकार धर्म और अधर्म के फल प्रत्यक्ष देखकर हे भव्य जीवों ! अधर्म को दूर से ही परिहार करो और सब सुख का दाता धर्म का सदा सेवन करो या आराधना करो, ऐसा विचार करना सो धर्म भावना है। इस प्रकार बारह भावनाओं का सदा चितवन करने से मनुष्य का वित्त संसार बेह और भोगों से विरक्त हो जाता है, पर पदार्थों में अनुराग नहीं रहता और आत्म स्वरूप की प्राप्ति के लिए वह Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 तत्पर हो जाता है। यहाँ श्री गुरु का उपदेश है कि यह जोध अनादि काल से आज तक जितने भी ४ & जीव सिद्ध पद को प्राप्त हुए हैं, वर्तमान में हो रहे हैं और आगे होंगे, वे सब इन बारह भावनाओं के चिन्तवन कर ही निर्वाण को प्राप्त हुए हैं । अतएव यह भावनाओं का हो माहात्य जानना चाहिये। & द्वालाल अब ग्रंथकार इस ढाल को पूर्ण कहते हुए आगे छटी ढाल में वर्णन किये जाने वाले विषय की भूमिका स्वरूप पद्य को कहते हैं : सो धर्म मुनिन करि धरिये, तिनकी करतूति उचरिये । ताको सुनिके भवि प्रानी, अपनी अनुभूत पिछानी ॥१५॥ अर्थ-सफल चारित्र रूप पूर्ण धर्म को मुनि गण हो धारण करते हैं । इसलिए प्रागे की हाल में उन मुनियों की कर्तव्यभूत क्रियाओं का वर्णन किया जाता है । हे भव्य प्राणियों ! उन क्रियासों के उपदेश को सुनो जिससे कि अपने आत्मा की अनुभूति हो सके । इस प्रकार मुनि धर्म के लिए साधक 8 स्वरूप बारह भावनाओं का वर्णन करने वाली पांचवीं ढाल समाप्त हुई। अब ग्रंथकार सकल चारित्र का वर्णन करते हुए सर्व प्रथम प्रांच महाव्रतों का वर्णन करते हैं--- षटकाय जीव न हननते सब विधि दरब हिंसा टरी । रागादि भाव निवारित हिंसा न भावित अवतरी ॥ जिनके न लेश मृषा न जल मृण तू विना दीयो गहै । अठदश सहस विधिशीलधर चिदब्रह्ममै नित रमि रहे ॥१॥ अर्थ--मुनिराज पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति ये पांच स्थावर काय और त्रस काय 8 इन षट कायिक जीवों को हिंसा का मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना से त्याग कर & Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ & देते हैं, इसलिए उनके सर्व प्रकार की द्रव्य हिंसा दूर हो जाती है । तथा राग, द्वेष प्रादि विकार भावों 0 के निवारण कर देने से उनके भाव हिंसा भी नहीं होती । इस प्रकार वे पूर्ण अहिंसा महावत का भाव करते हैं । उन मुनिराजों के बचन लेया मात्र भी असत्य नहीं होते हैं, इसलिए वे परपूर्ण सत्यमहानत के धारक होते हैं, अतएव निर्दोष अचौर्य महायत का पालन करते हैं। वे अठारह हजार शोल के भेदों को धारण करके सदा चैतन्य ब्रह्म में रमण करते हैं और इस प्रकार पूर्ण ब्रह्मचर्य महावत का 8 परिपालन करते हैं। भावार्थ-साधु गण हिंसा प्रादि पांचों पापों के सर्वथा स्थूल और सूक्ष्म रूप से त्यागी होते & हैं । किन्तु जिनको प्रात्म ज्ञान नहीं है केयल वाह्य सुख का त्याग कर साधु बन गये हैं वे कठिन ४. तपश्चरण करने पर भी मोक्ष मार्ग के अधिकारी नहीं हैं, जो सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के साथ साथ जिन लिंग अहिंसादि पंच महाव्रत को धारण-पालन करता है और तपश्चरण करता है तो मोक्ष& मार्गी है और हिंसा, झूठ, चोरी, कुशोल और पापाचरण रूप परिणाम, क्रोध, मान माया लोभ, मोह रूप परिणाम, मिथ्या ज्ञान, पक्ष पात, सप्त तत्त्वों के परिज्ञान में संशय, विपरीत और अनध्यव साय रूप परिणाम, मत्सर भाव, अशुभ लेश्या, विकथादिक प्रवृत्ति रूप परिणाम, आर्त, रौद्र परिणाम 0 मिथ्या माया निदान शल्ययुक्त परिणाम, अनर्थदंड, मन वचन काय की कुटिलता, नबरस, गौरव आदि © अपनी पूजा, प्रतिष्ठा, कीति, मान बड़ाई के परिणाम, अनेक प्रकार के दुर्भाव, मंत्र तंत्र प्रयोग करना 0 आदि जिन कारणों से जीय, के परिणामों में राग द्वेष काम क्रोध मिथ्यात्वादि विकार हों, जिससे राग १ 8 द्वेष परिणाम हों; ऐसा अशुभ भाव जिन लिंग धारण करने वाले मुनियों को दूर से त्याग देना 8 चाहिए और परम ब्रह्म परमात्मा को जानना चाहिये । जो अपनी आत्मा को नहीं देखता है, नहीं Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जानता है, प्रात्मा का श्रद्धान नहीं करता है, न आत्मा के स्वरूप को अपने भावों में लगाता है और 8 न यह आत्मा अपनी प्रात्म परिणति में तल्लीन होता है, तो फिर बहुत दुःल का कारणभूत साधु अवस्था को धारण कर क्या लाभ लेता है? क्योंकि कौ का नाश, दुख की निवृत्ति और सुख को ल प्राप्ति आत्म स्वख्य में परिणति होने से ही होती है, जो आत्म स्वरूप की प्राप्ति नहीं है तो को 8 का दूर होना भी नहीं है तब जिन लिंग को धारण करने से क्या लाभ ? उसे परम सुख की प्राप्ति ४ 8 नहीं होती है । जो अपनी आत्मा का सत्य स्वरूप नहीं जाना गया तो सम्यक्त्व की प्राप्ति भी नहीं है और सम्यक्रद के बिना मोक्ष मार्ग को प्राप्ति सर्वथा नहीं है यह जिनदेव का सुदृढ़ निश्चित सिद्धांत है। इस कारण कल्याणार्थी आत्मा को अपना सुहृत स्वरूप अनुभव करना योग्य है यही शिक्षा उपादेय है । मैं पर पुद्गलों से भिन्न, टंकोत्कीर्ण ज्ञामानन्द मय शुद्ध प्रात्म स्वभाव को बारंबार भावना सुधारस समान परमाहलाद को देमहारी हृदय में भावता हूँ यह प्रात्मा शुद्ध नय कर उपाधि रहित अभेद स्वभाव रूप जैन सिद्धान्त का नाम श्रद्धान संयम संयुक्त मोक्ष मार्ग में स्थित मोक्ष सागर के राजहंस स्वरूप, साधु रूपो पक्षियों के लिए विश्रामाश्रय, मुक्ति रूपी रमा के पति, काम रूप सागर के मन्थन के लिए मन्दराचल, भव्य जन रूपी कुल कमल विकासने के लिए मार्तड स्वरूप, मोक्षरूपी द्वार के कपाट तोड़ने को वन वंड स्वरूप, दुरि विषय रूपी विषधर के लिए गरुड़ के समान, कर्म रूपी शिर छेदने के लिए चक्ररत्न समान, साधु रूपी कमलनी के विकास के लिए चन्द्रमा के तुल्य और माया 3 जाल रूपी गजराज के कुम्म स्थल विधारणे के लिए मृगेन्द्र की तरह, ऐसा आत्मा अजर अमर है, & सो मेरे ही घट में है, ऐसा मुनिराज सम्यग्दर्शन के धारी प्रयम निर्दोष पाँच महाव्रतों के मध्य में अहिंसा टू महावत को धारण करते हैं । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LA हाला अर्थात् मुनियों का २८ मूलगुण रूप व १३ प्रकार चारित्र रूप जो आचरण हैं वह व्यवहार 8 चारित्र है। वही अहिंसा है जब द्रव्य हिंसा टल जाती है तब भाव हिंसा भी नहीं होती है, इसलिये 8 प्रमाद रहित इसी अहिंसा की सिद्धि के लिये अन्तरंग और 'बाह्य परिग्रह को त्याग मूर्या का सर्वथा 8 अभाव कर परम ब्रह्म हसार आत्या की बीटगता रूप अहिंसा जो आत्मा का शुद्ध स्वरूप निरीक्षण करता हुआ राग दोष को दूर कर कुल स्थान, जीव स्थान, यानि स्थान, मागंणा स्थान, षटकाय स्थान, आयु, इनमें सब जीवों को जानकर उनमें आरंभ करने से परिणामों को हटाने का प्रयत्न करना & प्रथम अहिंसा महावत है । अर्थात् इनमें सब जीवों को जानकर कायोत्सर्गादि क्रियाओं में हिंसा आदि & का त्याग करना उसे अहिंसा महावत कहते हैं । जो कि नग्न दिगंबर स्वरूप हो सध्या अहिंसा मार्ग का स्वरूप है ये ही प्रथम महावत है। आगे सत्य महाव्रत लिखते हैं जो साधु राग द्वेष मोह के परिणामों के वश होकर असत्य माषण करता है उसका त्याग ॐ करना द्वितीय व्रत है। यह सत्य प्रत संपूर्ण लोक के जीवों को सुख देने वाली है, सुन्दर सुख से भरपूर समुद्र के समान अगाध हैं। भावार्थ-जो साधु अतिशय करके सस्य भाव को अंतरंग में जपता हुआ राम देव मोहादि कारणों से दूसरे को संताप बेने, असत्य वचन तथा द्वादशांग शास्त्र के अयं कहने में अपेक्षा सहित वचन या मिथ्याबुद्धि से संसार में मोह के कारण उस मिथ्याभाव की रक्षा के अर्थ असत्य बोलता है इस प्रकार के असत्य वचन बोलने के परिणामों को त्यागता है, वह मनुष्य परलोक में स्वर्ग को देवांग8 नाओं को मान्य और इस लोक में सज्जनों के द्वारा पूजनीय या आवरणीय होता है। इसलिये इस सत्य से बढ़ कर दूसरा कोई बत नहीं है । यह बात सर्वथा सत्य है, यही सस्म महावत है । तथा ले Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्या बुद्धि से संसार में मोह के कारण उस मिथ्या भाव को रक्षा के अर्थ असत्य बोलता है, उनको & जो सम्जन मन त्याग देता है, उसके सस्य महावत होता है । आगे तोसरे अचौर्य धत को लिखते हैं जो कोई साधु ग्राम में, नगर में या जंगल में दूसरे को वस्तु को धरी देख उठा लेने के परिणामों को त्याग देता है उसी साधु के यह तोसरा महावत होता है। भावार्थ-जो कोई वस्तु चेतन अचेतन ग्राम आदि में पड़ी हुई, भूली हुई रक्खी हुई, जंगल के फल फूल पत्रादि दूसरे को वस्तु घरी हुई देख कर उसको उठा लेने के परिणामों को त्यागता है अर्थात् गांव, नगर, बन में दूसरे के द्वारा रक्खी हुई, पड़ी हुई वा भूली हुई पर द्रव्य को को त्यागता 8 है उसके हो यह तीसरा अचौर्य महाग्रत होता है। जो वस्तु अपने परिश्रम से किसी का कुछ काम & करके मिले या दूसरा सन्मान कर या दया कर देवे यह वस्तु ग्राहा है। इसके सिवाय कहीं को किसी 8 चीज को भो लेना चोरी है । यह अथौर्यधत अपूर्व बल का दाता है, इसके पालन कर्ता को पुण्य & के उदय से अतिशयरूप रत्नों का ढेर प्राप्त हो जाता है और क्रम क्रम करके मुक्ति रूपी स्त्री काल पति हो जाता है। इसलिये उस अचौर्य ग्रत का पालन करो। अब आगे ब्रह्मचर्य महायत का स्वरूप लिखते हैं जो वृद्धा, बाला, यौवन वाली स्त्रियों के रूप को देख कर या उनकी तस्वीरों वा चित्राम धातु पाषाण मिट्टी आदि रूप योक्न लावण्यता को देखकर या उनके सुन्दर मनोहर अंगों को देखकर जो उनसे कीड़ा करने की मनोवृत्ति को बम में कर लेना और भोग इच्छा का निरोध कर देना अथवा वेदना नोकषाय के तीच उदय से मथुन सेवन को इच्छा का होमा उसको त्यागने से यह बहचर्य शत होता है । स्त्रीमात्र को माता बहिन पुत्री समान समझ, स्त्री सम्बन्धी कथा, कोमस बधन Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पर्शरूप का देखना, पूर्व स्त्री सम्बन्धी भोगों का याद नहीं करता, पुष्ट रस, काम उत्पन्न करने वाले पदार्थों को खाने का त्याग करना, शरीर के स्नान तैल लेपन संसार का त्याग कर उसमें सब प्रकार का अनुराग छोड़ता है वह देव असुर मनुष्य तोन लोक कर पूज्य ब्रह्मचर्य महाप्रती है । यह बहम्चारी अठारह हजार शील के भेद को पालन करता हुआ चिदानन्द चेतन स्वरूप आत्माराम में रमण करता है। आगे पाँचवा महाब्रत और पांच समितियों का ग्रंयकार वर्णन करते हैं अन्तर चतुर्दश भेद बाहिर संग दशधातें टलें । परमाद तजि चउकर मही लखि समिति ईर्या ते चलें । जग सुहितकर सब अहितहर श्रुति सुखद सब संशय हरे। भ्रम रोग-हर जिनके वचन मुख चंदतें अमत झरें ॥२॥ छयालीस दोष विना सुकुल श्रावक तने घर असन को। लें तप बढ़ावन हेत नहिं तन पोषते तजि रसन को । शुचि ज्ञान संयम उपकरण लखिकै गहै लखिक धरें । निर्जन्तु थान विलोकि तन मल मत्र श्लेषम परिहरें ॥३॥ ___ अर्थ-वे मुनि १४ प्रकार के अन्तरंग और इस प्रकार के हिरंग से जो वांछारहित भावना & के साथ सर्व परिग्रह से विरक्त होता है । वह परिग्रह २४ प्रकार हैं, तहाँ जीव के आश्रित अन्तरंग लप & परिग्रह तथा चेतन परिग्रह और जीव रहित अचेतन परिग्रह या जीव से जिनकी उत्पत्ति है ऐसे टू मोती शंख, दांत, कम्बल, धर्म वस्त्र त्याग या इनके अतिरिक्त लो संयम साधम, ज्ञान सौच के & उपकर्ण इनमें ममस्व का त्याग असंग होना, सो चारित्र के भार को सदा बहने वाले साधुओं को पहल Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छह ढाला परिग्रह त्याग महावत है । यहां परम्परा करके उंचमगति जो मोक्ष तिसका कारण है । इसलिये उपमा रहित सुख के स्थान जो आत्मा उसकी प्राप्ति के लिए अपने आत्मा में निवास स्थान बनाकर स्थित रहे। जो स्थिति चलाय मान न हो और सुख का स्थान हो यो कि जगत के जनों को दुर्लभ हो अर्थात् आत्म स्वभाव में लीन होना सुलभ नहीं किन्तु दुर्लभ है, तथापि साधु पुरुषों के लिये कोई बड़े आश्चर्य की बात नहीं है। इस प्रकार पंचम महावत का वर्णन हुआ। अब आगे पांच समितियों का वर्णन लिखते हैं जो साधु निर्दोष मार्ग से दिन में चार हाथ जुड़ा प्रमाण जमीन को देखकर अपने गुरु यात्रा के लिये नगर से बाहिर प्राणियों को पीड़ा नहीं देते हुए संयमी का जो गमन है वह ईर्ष्या समिति है, निश्चय नय से अमेव उपचार रहित जो रत्नत्रय का मार्ग उस मार्ग रूप परमधर्म के द्वारा अपने आत्मा स्वरूप में सम्यक् प्रकार परिणमन होना, सो ईर्ष्या समिति है । अर्थात् अपूर्व स्वभाव से ही शोभायमान तन्य के चमत्कार मात्र में एकता को प्राप्त करता है और सदा पर स्वरूप से अलग ही रहता है, अपने स्वरूप में गमन करता है और त्रस स्थावर जीवों के घात से दूर है। संसार रूपी अग्नि की तप्त को शान्त करने के लिये मेघमाला के समान है संसार रूपी समुद्र से तिरने के लिये श्रेष्ठ जहाज है, जो कि निश्चय समिति अभेद, उपचार रहित रत्नत्रय का मार्ग परम धर्म के द्वारा अपने आत्म स्वरूप में रमण रूप परिणाम परिरमण रूप होता निश्चय ईय समिति मूल गुण है । आगे भाषा समिति लिखते हैं जो दुष्ट मनुष्य पर की अप्रीत करे, वह कठोर बचन है, झूठा दोष लगाने रूप पशून्य, व्यर्थ हंसना हास्य, जो कि सुनने वाले दूसरे के दोष प्रगट करने रूप पर निन्दा वचन है और आरम 333333 333333333 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम & प्रशंसक वचनों को त्यागकर तथा स्त्री कथा, भोजन कथा, राज कथा और चोर कथा इन वचनों को 8 8 छोड़कर दूसरे के हित करने वाले कर्ण को सुखदायक, सब प्रकार के संशय को नाशक मुनिराजों के मुखरूपी चन्द्रमा से समस्त प्राणियों को शान्तिदायक सच्चा हित करने वाले और भ्रम रूपी रोग के हरण करने वाले, अमृत के समान, सर्व पापों से दूर, सर्व प्राणियों के समता करने वाले, अपने आत्म हित में अपने चित्त को धारण करने वाले, स्व पर को हितकारी, सर्व राग द्वेष विकल्प जाल से रहित, ऐसे वीतरागी मुनि मोक्ष पाने का पात्र मिष्ट वचन बोलते हैं । जो महान् पुरुष परम ब्रह्म स्वरूप सम्यक चारित्र में लीन है, उनको अपने अंतरंग में भी वचन बोलना इष्ट नहीं है, मुनि तो निरन्तर अपने आत्म स्वभाव से ही सन्मुख होकर वधन वर्गणा को बन्द कर देते हैं, वार्तालाप नहीं करते हैं, घही भाषा समिति है । आगे तीसरी ऐषणा समिति लिखते हैं जो कृत कारित अनुमोदना रहित नव कोटि शुद्ध वीतरागी साधु उत्तम कुल वाले श्रावक के घर जाकर भोजन संबंधी छयालीस दोषों को टालकर, तप को बढ़ाने के लिये निरस रस आदि को छोड़ कर नवधा भक्ति युक्त, दातार सात गुण संयुक्त, योग आचरण धारी श्रावक द्वारा 8 प्रदान किये हुए भोजन को जो परम सपोधन अंजुल जोड़ कर लेते हैं । जो भी केवल धर्म साधने के अर्थ मौन से लेते हैं। यह एषणा समिति है । अब आदान निक्षेपण समिति का वर्णन करते हैं वे साधु शौच के उपकरण कमंडलु को, ज्ञान के उपकरण शास्त्र को और संयम के उपकरण पोछो को, देख शोधकर ग्रहण करते हैं और देख शोध कर ही रखते हैं, वह अपहृत संयमी है, और 8 उपेक्षा संप्रम धारी मुनियों के पुस्तक कमंडल आदि नहीं होते हैं वे उपेक्षा संयमधारी मुनि परमल जितेन्द्रिय एकान्तवासी बिल्कुल वे चाह होते हैं। निरंतर आत्म ध्यान में लीन रहते हैं इसलिए इन 8 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाला & को बाहर के शास्त्रावि उपकरणों की जरूरत नहीं होती, ऐसे संयमी साधु अभ्यंतर उपकरण जो आप 8 का निज परम तत्त्व उसके ही प्रकाश करने में ही चतुर होते हैं उनके सर्व उपाधि रहित स्वरूप स्वा. भावाविक आत्म ज्ञान के सिवाय और कोई भी वस्तु ग्रहण योग्य नहीं होता है यह साधु सर्व प्राणीमात्र पर क्षमा और पूर्ण मैत्री भाव होता है। हे मध्यात्मन् ! तू भो अपने मन रूपो कमल में इन समिति & को प्रमाण कदतिसो तु लानी कम मुक्ति स्त्री का स्वामी हो जावे और कर्म कपाट खोल देवे आगे पांचवीं प्रतिष्ठापना समिति कहते हैं मुनि अपवाद मार्गों और उत्सग मार्गी दोनों ही जीव रहित प्राशुक स्थान को देखकर शरीर का मल मूत्र कफ आदि छोड़ते हैं अर्थात जीव जन्तु रहित, प्राशुक स्थल, गूढ स्थान, अन्य कर रोकने योग्य नहीं हों, ऐसे स्थान में मल मूत्र आदि का क्षेपण करना प्रतिष्ठापना समिति है। अब आगे ग्रन्धकार तीन गुप्ति और पंचेन्द्रिय विजय का वर्णन करते हैं-- - LUCCCCCCTOcxccccxxxxxxxxxxxxxxXCLESEXECULAKXSExcccxcxxx सम्यक् प्रकार निरोध मन वच काय आतम ध्यावते । तिन सुथिर मुद्रा देखि मृग गण उपल खाज खुजाववते ॥ रस रूप गंध तथा फरस अरु शब्द शुभ असहावने । तिनमें न राग विरोध पंचेन्द्रिय जयन पद पावने ॥४॥ अर्थ-वे मुनिराज अपने मन बच्चन और काय को भली प्रकार निरोध करके सुस्थिर हो इस प्रकार आत्मा का ध्यान करते हैं कि जंगल के हिरण उनको सुस्थिर, अचल शान्त मुद्रा को देखकर और उन्हें पत्थर की मूर्ति समझ कर अपने शरीर की खाज खुजलाते हैं। भावार्थ-कसुषपना, मोह, अभिलाषा, राग, द्वेषादि, अशुभ भावों का जो त्याग करना उसे ही 8 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ & व्यवहार नये से मनो गुप्ति कहते हैं । विशेषार्थ-क्रोध, मान, माया और लोम, इन चार कषायों से आकुलित हुए चित्त को कालुष्य कहते हैं और वशंन चारित्र घातक मोह के दो भेव हैं । एक दर्शन 8 मोहनीय, दूसरा धारिन मोहनीय । संत्रा के आहार, भय मंथन परिग्रह के भेव से चार प्रकार हैं । ४ शुभ राग और अशुभ राग के भेद से दो प्रकार राग है । और वैरमई परिणाम द्वेष है इत्यादि सर्व 8 अशुभ परिणामों का त्याग हो मनो गुप्ति है और जो अपने मन को सदा परमागम के अर्थ की चिन्ता में लवलीन रखते हैं जो कि जितेन्द्रिय बाह्याभ्यन्तर परिग्रह कर रहित सदा जो श्रीमान & जिनेन्द्र के चरणों के स्मरण में वत्स पित्त है उन्हीं के यह मनोगुप्ति होती है । आगे वचनगुप्ति लिखते हैं--- पाप बन्ध को कारण स्त्री कथा, राज कथा, भोजन कथा और चोर कथा इन चार विकथा रूप वचनों का त्याग करना वचन गुप्ति है । इसी को अलोक निवृति वचन भी कहते हैं। भावार्थ--जो बाहर से बचन को प्रवृत्ति को त्यागकर अन्तरंग में विशेष रूप में जो वचन कहना उसको भी दूर कर जैसे ध्यान होता है वही ध्यान परमात्मा को प्रकाश करने वाला है जो संसार के भव को बढ़ाने वाली वचन की रचना को स्याग कर जो चिदानन्द चतन्य चमत्कार रूप परमानन्द विलास रूप एक शुद्ध आत्मा का ध्याता है वह जीव शीघ्र ही कर्म फंद को छेद कर स्वभाविक आत्म महिमा के आनन्द को पाता है । आग कायगुप्ति लिखते हैं बन्धन, छेवन, मारन, संकोचन, विस्तारन आदि शारीर को क्रियाओं को न करना कायगुरित है। भावार्थ:-जो मुनि काय की सम्पूर्ण क्रियाओं को त्यागना, शारीर से ममत्व भाव छोड़ना या सर्व हिंसा से दूर रहना और चैतन्य भाव चिन्तामणि रत्न को प्राप्त करना कायगुप्ति है । काय Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ & गुप्ति के धारक मुनि पापरूपी धनी को जलाने के लिए ज्वालामालनी हैं। वह योगियों में शिरोमणि होता हुआ अनन्त चतुष्टय का लाभ कर उसमें स्थित रहता हुआ जीधन मुक्ति अवस्था का भोगी होता है। यह तीन गुप्तियों का वर्णन हुआ। पांचों इन्द्रियों के विषयभूत स्पर्श, रस गन्ध, वर्ण ढाला और शब्द यदि शुभ प्राप्त हो तो वे उनमें रमण नहीं करते और यदि अशुभ प्राप्त हो तो वे उनमें & विरोध नहीं करते। इस प्रकार साधुजन वे पंचेन्द्रिय विनयी पद को प्राप्त करते है । भावार्थ-यह पांचों इन्द्रियों के विषय शरीराधीन हैं तो यह शरीर रस, रुधिर, मांस, मेदा, ४ हड्डी, वीर्य, मल, मूत्र, पीप और अनेक प्रकार के कीड़ों से भरा हुआ है। इसके सिवाय यह शरीर ४ दुर्गन्धमय है, अपवित्र है, चमड़े से लपेटा हुआ है, अनित्य है, जड़ है और नाश होने वाला है। बह होर अनेक APTE के दुनों का पात्र है, कम समूह समझने का कारण है और निजानन्द 8 आत्मा से सर्वथा भिन्न है, ऐसे मारीर के सन्तान पांचों इन्द्रियां है। शरीर के नाश के साथ साथ 8 इन्द्रियों का भी नाश हो जाता है। इसलिये मुनिज इन्द्रिय स्वभाव को जानकर इससे स्नेह नहीं & करते हैं। सिर्फ इस शरीर को धर्मानुष्टान का कारण जानकर शरीर से धर्म सेवन करने के लिए 8 और मोक्ष में पहुंचने के लिए जैसे गाड़ी चलाने के लिए धुरा पर चीकट लगाते हैं ऐसे हो थोड़ा सा रस नीरस आहार लेते हैं। बिना आहार के यह शरीर चलता नहीं, यह चारित्र पालन का साधन है। अब छह आवश्यक और शेष सात मूलगुणों का वर्णन करते हैं समता सम्हारै थुति उचारै वन्दना जिनदेव को । नित करें श्रुति रति धरै प्रतिक्रम तजै तन अहमेव को। जिनके न न्हौन न दंत धोवन लेश अंबर आवरन । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छह् ढाला भू मांहि पिछली रयनि में कछु शयन एकाशन करन ॥५॥ इक बार दिन में ले आहार, खड़े अलप निज पान में । कच लोंच करत न डरत परिषहसों लगे निज ध्यान में || अरि मित्र महल मसान कंचन का तिन युति करन । अर्धावतारन असि प्रहारन - मैं सदा समता धरन ॥६॥ प्रतिक्रमण करते है और प्रतिदिन छह आवश्यकों लेशमात्र भी वस्त्र का अर्थ- वे मुनिराज सदा समता भाव को संभालते हैं, स्तुति को उच्चारण करते हैं और जिन देव की वंदना करते हैं । नित्य ही शास्त्रों का अभ्यास करते हैं । अपने शरीर से ममता त्याग कर कायोत्सर्ग करते हैं । इस प्रकार ये को नियमपूर्वक पालन करते हैं । वे स्नान नहीं करते, दालन नहीं करते, आवरण नहीं रखते पिछली रात्रि में भूमि के ऊपर एक ही आसन से कुछ थोड़ा सा शयन करते हैं। ये साधु दिन में एक बार खड़े खड़े थोड़ा सा अपने हाथों में रखा हुआ आहार ग्रहण करते हैं। केश लुञचन करते हैं। परिषहों से नहीं डरते हैं और हर समय अपने ध्यान में लगे रहते हैं। ऐसे मुनिराज शत्रु और मिश्र में, महल और श्मशान में, कंचन और कांच में, निन्दा और स्तुति में, अर्ध उतारने में तथा तलवार के प्रहार में सदा रमता भाव को धारण करते हैं । अर्थात सकल चारित्र के धारक दिगम्बर साधुओं के अट्ठाईस मूल गुण इस प्रकार हैं। अहिंसा महायत, सत्य महाधत, अचौर्यमहायत, ब्रह्मचर्यं महाव्यत, अपरिग्रह महाव्रत, ये पांच महाव्रत हैं । ईर्यासमिति, भाषासनिति, एषणा समिति, आदानिक्षेपणासमिति और व्युत्सगं समिति, ये पाँच समिति हैं। पांचों इन्द्रियों के क्रमशः स्पर्श, रस, गंध, वर्ग और शब्द, ये पांच विषय हैं । इन पांचों विषयों के अनिष्ट था अशुभ रूप १४ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छह हाला मिलने पर उनमें द्वेष नहीं करना और इष्ट या शुभ रूप मिलने पर उनमें राग नहीं करना ये पंचेन्द्रिय विजय गुण हैं। चेतन हो इत्यादि जीव में और शैय्या आदि अचेतन में उत्पन्न हुआ कठोर नरम आदि आठ प्रकार का सुख रूप अथवा दुःखरूप जो स्पर्श उनमें बांछा न होना, मूर्च्छित न होना हवं विषाद नहीं करना यह स्पर्शन इन्द्रिय निरोध व्रत है । भात आदि असन, दूध आदि पान, लाडू आदि खाद्य, इलाइची आदि स्वाद्य - ऐसे चार प्रकार के तथा तिक्त कटु कषाय खट्टा मीठा पांच रस रूप इष्ट अनिष्ट प्राशुक निर्दोष आहार के दाताजनों से दिये जाने पर जो आकांक्षा रहित परिणाम होना वह जिव्हाजय नामा व्रत है । के स्वभाव से गन्धरूप यथा अन्यगन्धरूप द्रव्य के संसकार से सुगंधादि रूप ऐसे सुख दुःख कारणभूत जीव अजीव स्वरूप पुष्प चन्दन आदि द्रव्यों में राग-द्वेष नहीं करना वह श्रेष्ठ मुनि के घ्राणनिरोध व्रत होता है । सजीव अजीव पदार्थों के गीत नृत्यादि क्रियानेव गोर कालादिरूप भेदों में रागद्वेषादि या आसक्तता त्याग कर देना यह घक्षुनिरोध मूलगुण है । शब्द जो गांधारादि सात स्वरूप जीव शब्द और वीणा बांसुरी आदि से उत्पन्न अमीव के शब्द जो कि रागादि के निमित्त कारण हैं इनका नहीं सुनना वह श्रोत्र निरोध इन दोनों तरह मूलगुण है । आवश्यक में सामायिक कहते हैं । जीवन, मरण, लाभ, अलाभ में या इष्ट अनिष्ट के संयोग वियोग में, मित्र शत्रु में सुख दुःख में, शीत उष्ण, भूख प्यास में राग-द्वेष रहित समान परिणाम होना उसे सामायिक कहते हैं । प्रथम सर्व सावद्य क्रियाओं से विरक्त हो तीन गुप्तियों को Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 धारण कर अपनी इन्द्रियों को संकोचता हुआ जो स्वभाविक वैराग्य रस का भरा हुआ विकार करने ४ वाले राग-द्वेष आदि भावों के अभाव से भेद कल्पना रहित परम- समरसी भाव का पान करने वाला एक सदा शुद्ध अपनी महिमा में लीन सभ्यग्दृष्टि के अनुभवगोचर संयम नियम के धारी एक आत्मा ४ ढाला केही निकटवर्ती बाहा पांच साल से रहित अपने स्वभाव में लीन, स्वभाविक समता साक्षात शोभित आर्तरोद्र ध्यान से विमुख, पुण्य पाप भावों से या राग-द्वेष से दूर, क्रोधादिक कषायों से परान्मुख और नित्य ही धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान के दाता आत्मस्वभाव लवलीन उसी मानव के यह सामायिक & मूलगुण स्थायी होता है । भावार्थ-- मैं सर्व वस्तु से ममता भाव का त्याग कर निर्ममत्त्व परिग्रह रहित भाव से मेरे 8. आत्मा का ही अवलम्बन लेता हूं । मेरे नानादि आरम गुणों के सिवाय अन्य सबका त्याग है, मेरा आमा ज्ञान दर्शन पाप रूप किया को निवृत्तिरूप चारित्र में तथा प्रत्याश्यान आस्रव निरोध संवर में तथा शुभ व्यापार रूप योग में है, वह अकेला मरता और यह चेतनरूप अकेला ही उपजता है तथा करम रज से रहित हो जाता है तब अकेला ही मुक्त होता है । इसलिए यह जीव सब काल और सब अवस्थाओं में अकेला ही है, शरीराविक तो मेरे वाह्य पदार्थ हैं और आत्मा के संयोग सम्बन्ध से उत्पन्न है, इसलिये विनाशी है । एक ज्ञान दर्शन लक्षण वाला आत्मा ही नित्य है मैं उसका ही आराधन करता हूं उन्हों गुणों में ल'न होता है, ऐसे परिणामों को ही सामयिक प्रत व प्राणीमात्र से समानता समता भाव धारण करना संयम रूप रहना और आर्त चौद्र भाव को त्याग कर निजानन्द में रम जाना ये हो भाव सामायिक है। ऋषमादि चौबीस तीर्थकरों के नाम के अनुसार अर्थ करना, उनके असाधारण गुणों को प्रगट Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 करना, उनके चरण कमलों को नमस्कार करना और मन वचन काय की शुद्धता से स्तुति करना, उसे 8 & मूल गुण में चतुविंशति स्तवन कहते हैं । हाला अरहंत प्रतिमा, सिद्ध प्रतिमा, अनशनादि बारह तपों कर युक्त, श्रुत गुरू, गुण गुरू, बौक्षित गुरू इनको मन वचन काप को शुद्धि से नमस्कार करना यह वंदना नामा मूल गुण है । प्रतिक्रमण-आहार शरीरादि द्रव्य में, वसतिका शयन आसन आदि क्षेत्र में, प्रातःकाल 8 आदि काल में, चित्त के व्यापार रूप परिणाम में किया गया जो व्रत में दोष उसका शुभ मन वचन काय से शोधना, अपने दोषों को अपने आप प्रगट करना, वह प्रतिक्रमण गुण होता है। प्रत्याख्यान-नाम स्थापना द्रध्य क्षेत्र काल भाव इन छहों में शुभ वचन काय से 8 आगामो काल के लिए अयोग्य का त्याग करना कि मैं नहीं करूगां, न कहूंगा और न चितवन करूगा इत्यादि त्याग को प्रत्याख्यान मूल गुण कहते हैं । कायोत्सर्ग का स्वरूप कहते हैं-दिन में होने वाली वसिक आदि निश्चय क्रियाओं में सत्ता-8 ईश या एक सौ आट उछवास परिणाम से कहे हुए अपने अपने काल में दया क्षमा विज्ञानता सम्यग्दर्शन अनन्त झानादि चतुष्टय आदि जिन गुणों की भावना सहित, सुद्रव्य, सुक्षेत्र, सुकाल और स्वभाव रूप सुयोग आदि संपूर्ण सामग्री के विद्यमान होने पर, निश्चय चैतन्य स्वरूप आत्मा की प्राप्ति हो जाती है। जिस प्रकार खान से निकलने वाले सुवर्ण पाषाण में कारण भूत. सुयोग्य उपादान के सम्बन्ध से और वाह्य में सुवर्णकार के द्वारा साड़न, तापन, छेदन, घर्षणादि प्रयोगों के द्वारा उस पावरण से सुवर्ण अलग हो जाता है उसी तरह अनादि काल से यह आत्मा कर्म मल से कलंकित हो रहा है 8 जब द्रव्य क्षेत्र काल भाव सुयोग्य साधनों की उपलब्धि से जो कि अनसनादि वाह्याभ्यंतर सप, दश-8 । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्षण धर्म, अनित्यादि द्वादश भावना, परिषह जय अं चारित्र आदि सम्यक अनुष्ठान द्वारा आत्म & ध्यान रूप निश्चल अग्नि के प्रयोग से कर्म रूपी ईन्धन के भस्म होने पर वह आत्मा भी स्वसिद्धि को प्राप्त कर लेता है और देह से ममत्व के भाव को याग देता है, वह कायोत्सर्ग मूल गुण है । छात् केशलोंच का स्वरूप-ओ मुनि प्रतिक्रमण पूर्वक उपवास सहित उस्कृष्ट दो महीने, मध्यम तीन महीने, जघन्य चार महीने में अपने शानले प्रसनक ही कर लेगों का उपाडना यह लोच नामा मूल गुण हैं। अचेलकपना-कपास, रेशम, रोम, सन, धर्म आदि से बने हुए वस्त्र से शरीर का आच्छाबन नहीं करना, भूषणावि नहीं धारण करना, संयम के विनाशक द्रव्यों कर रहित होना, अचेलक मूल गुण हैं। स्नान-इससे हिंसा का उपार्जन रूप दोष, प्रक्षालन दोष, याचनादि दोष नहीं होते हैं । जल से न्हाना रूप स्नान, अंजन, मंजन, उबटना, पान खाना, चंदनादि लेपन इस तरह स्नानादि क्रियाओं के छोड देने से जल्ल मल्ल स्वेद रूप वेह के मल कर लिप्त हो गया है सब अंग जिसमें & ऐसा स्नान नामा महान गुण मुनि के होता है। क्षितिशयम-जीव वाधा रहित, अरूप संस्तर रहित, असंजमी के गमन रहित, गुप्त भूमि के 8 प्रदेश में बंड के समान अथवा धनुष के समान एक पसवाड़े से सोना क्षितिशयन मूल गुण है। ___अवंत-अंगुली, नख, दांतौन, तृण विशेष, पंनो, कंकणी वृक्ष को छाल, वक्कल आदि कर दात मल को शुद्ध नहीं करना, दांतान नहीं करना, वह इन्द्रिय संयम की रक्षा करने वाला अवंतपना मूल गुण है। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थिति भोजन-अपने कर पात्र रूप भाजन कर भौंत आदि के आश्रय रहित चार अंगुल के 8 8 अंतर से सम पाद खड़े रह कर अपने चरण की भूमि, सूटन पड़ने को भूमि, जिभाने वाले जम के 8 प्रदेश की भूमि-ऐसे समान तीन भूमियों की शुद्धता से बातार का दिया हुआ आहार सम भावों से लाल प्रहण करना यह स्थिति भोजन नामा मूल गुण है । एक भुक्त का स्वरूप कहते हैं-सूर्य के उदय, मध्य और अस्त उदय काल की तीन घड़ी 8 छोड़कर, तीन मूहूर्त काल में एक बार भोजन करना वह एक भुक्त मूलगुण है । भवार्थ--जो साथ् दिन में एक बार उत्तम धाबक के द्वारा नवधा भक्ति युक्त के बल संयम और ज्ञान की वृद्धि के लिए उदराग्नि प्रशमन, अक्ष प्रक्षण, गोधरी, पर्त पूर्ण, भ्रामरी। इनका खुलासा- 8 जितने आहार से उदर की अग्नि शान्त हो जाये, उतना ही आहार लेना, अधिक न लेना, यह उनराग्नि प्रशमन है। जिस प्रकार गाड़ी को चलाने के लिए उसके पहिये को तेल डाला है क्योंकि तेल। के बिना गाड़ी चल नहीं सकती, इसलिये इस पारीर को चौदहवें गुण स्थान पहुंचना है और आहार देना अक्ष प्रक्षण विधि है। जिस प्रकार गाय को चारा भूषा डाला जाता है उस समय वह गाय भूषा 8 डालने वाले की सुन्दरता या आभूषण आदि को नहीं देखती है, वह भारे को देखती है। उसी प्रकार साधु आहार के समय अमीर गरीब घर या सुन्दरता नहीं देखता केवल आहार से हो प्रयोजन 8 रखना, गोचरी वृत्ति है। __जिस प्रकार किसी गड्ढे को मिट्टी कूड़ा आदि चाहे जिस से भर देते हैं उसी प्रकार इस उबर & को अच्छे बुरे रस निरस सवण अलवण आदि आहार से भर लेना गतं पूर्ण विधि है। भ्रमर जिस प्रकार पुष्पों को नहीं सताता हुआ उनका रस लेता है उसी प्रकार किसी भी गृहस्थ को कष्ट न देते Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ & हुए आहार ग्रहण करना भ्रामरी वृत्ति है। इस प्रकार आहार को विनि जानता हुआ साधु अपने कान & ध्यान और तपश्चरण अध्ययन करने में लीन , नो आहार मिल गया, भक्ति पूर्वक जिसने जो सात 8 छह 8 गुणों से युक्त.शुभ आहार दे दिया, उसी को ग्रहण कर लेते हैं वे मुनि अवश्य ही मोक्ष मार्ग में लीन & रहते हैं। जो मुनि दूसरे के ऐडवर्य को सहन नहीं कर सकते हैं, केवल मिव्हा स्वाद की पूर्ति करने के लिए अपनी प्रशंसा करता है उस साधु को सम्यमत्वादि गुण रहित समझना चाहिए। इस प्रकार सब मिला कर २८ मूल गुण साधु के होते हैं। जिनका पालन करना प्रत्येक विगंबर साधु के लिए अत्यन्त आवश्यक माना गया है, जो दिः उक्त गुणों में एक मुसको कमी होने पर मुनि अपने मुनिपने से गिरा हुआ माना जाता है। यहां कुछ आचार्यों ने तेरह प्रकार चारित्र माना है। उसका अभिप्राय पांच महावत, पांच समिति और तीन गुप्ति ऐसे त्रयोदश प्रकार चारित्र है। इस अभिप्राय से तीन गुप्तियाँ यहां वर्णन को है, इनका पालन करना सफल संयमी के लिए अति आवश्यक है । जो कि मन की चंचलता को रोक कर उसे स्थिर करना, मनो गुप्ति है। वचन को शुभाशुम प्रवृति को रोक कर निर्दोष मौन धारण करना सो वचन गुप्ति है, शरीर को गमनागमन हलन चालनादि समस्त प्रवृत्ति को रोक कर किसी एक आसन से स्थिर रहना सो काय गुप्ति है । इस प्रकार मन वचन काय की समस्त प्रवृत्तियां ध्यान अवस्था में ही एक अन्तर मुहूर्त मात्र के लिए रोकी जा सकती हैं । अतएवं प्रन्थकार ने बड़े सुन्दर शब्दों में उसी ध्यान अवस्था का वर्णन करते हुए कहा है कि ध्यान अवस्था में साधु अपने मन वगन काय को क्रियाओं को रोककर इस प्रकार सुस्थिर हो जाते हैं कि हरिण आदि जंगली जानवर अन्हें पाषाण को मूति समझ कर उनसे अपने शरीर की खुजली को खुजलाने 8 लगते हैं । साधुओं की ऐसी शान्त और स्थिर वशा सचमुच प्रशंसनीय एवं वन्दनीय है । सकल Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काला & चारित्र के धारक मुनि इन्द्रियों के विषयों से विरक्त, ज्ञान, ध्यान अध्ययन तप में लोन, आत्म स्वरूप 8 & का जानकार, वे अपने आत्म तत्त्व को पर तत्त्व से भिष जानने वाला, स्व समय में रत, अपने शुद्ध स्वभाव में स्थिर, रत्नत्रय का धारी शुद्ध सम्यग्दृष्टि, वाह्य अभ्यन्तर दो प्रकार के परिणह से रहित, सदा शुद्धोपयोग में लोन, मूल गुण और उत्तर गुणों को पूर्ण रीति से पालन करता हुआ, संयम रत्न को रक्षा करने में कुशल, ऐसे मुनियों के तीन भेद हो जाते हैं। जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र तप और वीर्य ऐसे पांचों आचारों से परिपूर्ण हैं, जो पंचेन्द्रिय रूपो मदोन्मत्त गजराज के मद का दलन करने वाले है और सर्व मुनियों के गुणों में गंभीर है, यही आचार्य सोस, पज्योत और अाईस मूल गुणों के & धारक होते हैं। तथा जो रत्नत्रय से युक्त हैं, जिनेन्द्र भगवान् प्रणोत पदार्थों के उपदेशक हैं, इच्छा & रहित भाव सहित हैं ग्यारह अंग चौदह पूर्व सर्व श्रुत के पाठी हैं, पठन पाठन में समर्थ हैं और & आत्म ज्ञानी है वे उपाध्याय कहे जाते हैं, भव्य कमलों के लिए सूर्य ऐसे उपदेश दाता उपध्यायों को निस्य बारंबार वन्दना करता हूँ। जो सर्व व्यापार से रहित है, चार प्रकार को आराधना में सदा लोन हैं, निग्रन्थ, बाह्य अभ्यन्तर सर्व परिग्रह से रहित, नृसिंह कर्म रूपी अंजन से रहित होने वाले, निर्मोही मुक्ति स्त्री के प्रेमी हैं, उन्हीं के गुणों को ग्रंथकार पद्य द्वारा कहते हैं, क्योंकि उसके बिना सकल संयम अधूरा ही रह जाता है। तप तप द्वादश धरै वृश रतनत्रय सेवे सदा । मुनी साथमें वा एक विचरै चहैं भवसुख कदा।। यों है सकल संयम चरित सुनिये स्वरूपाचरण अब । जिस होत प्रगटै आपनी निधि मिट पर की प्रवृति सब ॥७॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ--- सकल संयम के धारण करने वाले साधुगण बारह प्रकार के तप को तपते हैं, दशा प्रकार के प्रम को धारण करते हैं और सदा काल रत्नत्रय का सेवन-अराधन करते हैं वे साधु गण संध के साथ में विहार करते हैं और वयोवृद्ध, ज्ञान वृद्ध या संयम वृद्ध अर्थात् संयम रत्त को विशेष रूप से धारक हो जाने पर कदाचित् अकेले भी विहार करते हैं। वे दिगम्बर मुद्रा के धारक साधु कभी भी सांसारिक सुख को वांछा मही करते हैं । इस प्रकार यहां तक सकल संयम चारित्र का वर्णन किया। इसको धारण करने से अपने आत्मा की निधि प्रकट होती है और पर को, पुद्गल को और के निमित्त से उत्पन्न होने वाली सर्व प्रवृत्ति मिट जाती है । भावार्थ--- बारह तपो का स्वरूप ऐसे समझना चाहिए । अनशन--- खाद्य, स्वाथ, लेह्य और पेय, इन चारों प्रकार के आहार का त्याग कर, उपवास वेला, तेला आदि रूप से उपवास करने की अनशम तप कहते है। अमाद और आलस जीतने के लिए भूख से कम खाने को अबमोदयं तप कहते हैं । गोचरी को जाते समय गली घर वगैरह की मर्यादा करने को वृति परिसंख्यान तप कहते हैं । घो दूध बहो आदि पुष्टिकारक रसों के त्याग करने को रस परित्याग तप कहते हैं। शून्य भवन, निर्जन वन आदि एकान्त स्थान में सोना बैठना, सो विविक्त शय्यासन तप है । गर्मी के समय पर्वत के शिखर पर, वर्षा के समय वृक्ष के नीचे और शीत काल में चौराहे पर ध्यान लगाना, रात्रि को प्रतिमा योग इत्यादि धारण करना, सो काय क्लेश तप है। ये छह वहिरंग तप कहलाते हैं। क्योंकि इनका संबंध बाहरी द्रव्य खान पान शयन आसन आदि से रहता है । संयम को सिद्धि, ध्यान अध्ययन को सिद्धि, राग भाव को शांति, इन्द्रिय दर्प निग्रह, निद्रा विजय, ब्रह्मचर्य परिपालन, संतोष और प्रशम माव की प्राप्ति तथा कर्मों को निर्जरा के लिए उयत छहों तों को धारण करना साधुओं का परम Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तव्य माना गया है। अब अंतरंग छहों तपों का वर्णन करते हैं-प्रमाव से लगे हुए दोषों को शुद्धि करना, प्राय- ढाला शिचत तप है। सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित्र में तथा इनके धारक पूज्य पुरुषों में आदर भाव रखना और आलस्य को त्याग कर इनको बिनय में प्रवृतना विनय तप है। आचार्य, उपाध्याय और साधु आदि है & को सेवा टहल आदि करना सो या व्रत तप है । शास्त्रों का अभ्यास करना, नवीन ज्ञानोपाजंन की है & भावना रखना और आलस्य को त्याग करना सो स्वाध्याय तप है। मन की चंचलता व्याकुलता को 8 दूर कर उसे स्थिर करना सो ध्यान है। ये छह अंतरगं तप कहलाते हैं। क्योंकि प्रथम तो इनके लिए ल & किसी बाहरी द्रव्य को आवश्यकता ही नहीं होती है। दूसरे अन्तरंग जो मन है उसके बश करने के & लिए हो उक्त सर्व तपों का आधरण किया जाता है। इन अन्तरंग तपों की सिद्धि के द्वारा ही & मनुष्य मुक्ति लाभ करता है, और प्रति समय असंख्यात गुणित श्रेणी के द्वारा कर्मों को निर्जरा करता है है । संचित कर्मों के नाश के लिए तप के सिवाय अन्य कोई समर्थ नहीं है । अतएव मुमुक्षु जनों को शाक्ति के अनुसार अवश्य तपश्चरण करना चाहिए। भिक्कं चर व सरण्ये, थोवं जी मे ही मा जम्प । दुःखं सह जिद निद्रा, मैत्रि भावे ही सुष्ट वैराग्ग ॥ अब वश धर्म का वर्णन किया जाता है । वुष्ट जनों के द्वारा आक्रोश, हंसी, गाली, बदमाशो 8 आदि किये जाने पर और मारन ताड़न छेदन बंदन किये जाने पर भी मन में विचार भाव का न ल होने देना सो उत्तम क्षमा धर्म है । जाति, कुल, धन, बल, वीर्य, ज्ञान आदि का अहंकार घमंड नहीं 8 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल करना, सो मार्दव धर्म है । मन, वचन, काय को प्रवृत्ति को रोक सरल स्वभाव रखना और मायाचार का सर्वथा त्याग करना सो आर्जव धर्म है। सवा सत्य वचन बोलना सो सत्य धर्म है । लोभ कषाय सर्वथर त्याग करना सो शौच धर्म है। इन्द्रियों के विषयों को का में रखना और छह काय के प्राणीमात्र पर दया प्रधान कर पालन करना, सो संयम धर्म है । पूर्वोक्त द्वादश प्रकार के तप तपना, सो तप धर्म है। साधुलों के संयम को रक्षार्थ प्राशुक आहार, औषधि, शास्त्र, वसतिका वगैरह का दान देना सो स्याग धर्म है। शरीर आदि से ममरव का त्याग करना सों आकिंचन्य धर्म है । स्त्री मात्र का मन वचन काय से त्याग करना, पूर्व में भोगे भोगों का स्मरण तक भी नहीं करना और शुद्ध चतन्य रूप परम र ब्रह्म में विचरण (रमण) करना सो ब्रह्मचर्य नाम का दसवां धर्म है। आत्मा के परम शत्र विषय और कषाय हैं। इनमें से कषायों के बोसने के लिए प्रारम्भ के पांच धर्मों का उपदेश दिया और इन्द्रियों को विषय प्रति को रोकने के लिए अन्त के पांच धर्मो का उपदेश दिया गया है। इस प्रकार मुनियों के सकल चारित्र का वर्णन किया। अब स्वरूपाचरण चारित्र का वर्णन करते हैं । आत्मा के शुद्ध निवि-8 कार सच्चिदानन्द स्वरूप में विचरने को स्वरूपाचरण कहते हैं । वह स्वरूपाचरण चारित्र किस प्रकार आत्मा में प्रकट होता है यह बतलाने के लिए प्रन्थकार उत्तर पछ को कहते हैं जिन परम पैनी सुबुधि छैनी डारि अंतर भेदिया । वरनादि अरु रागादि से निज भाव को न्यारा किया ॥ निज माहिं निजके हेत निज कर आपको आपै गह्यो । गुण गुणी ज्ञाता ज्ञान ज्ञेय मंझार कछु भेद न रह्यो ॥६॥ अर्थ-- जब ध्यान को अवस्था में साधु अत्यन्त तीक्ष्ण धार वालो मेव विज्ञान सुबुद्धि को 8 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 讚 ढाला: तोक्ष्ण छेनोके तौर पर अपने भीतर डालकर अनादि काल से लगे पर के सम्बन्ध को छिन्न भिन कर फेंक देते हैं, और पुद्गल के गुण जो रूप, रस, गंध, स्पर्श से तथा राग, द्वेष आदि विकारी भावों को पृथक कर देते हैं, उस समय ये अपने आत्मा में, आपने आत्मा के लिए आत्मा को अपने आप ग्रहण कर लेते हैं अर्थात् जान लेते हैं । तब उस ध्यान की निश्चल पशा में गुण गुणी, ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय के भीतर कुछ भी नहीं रहता है, किन्तु एक अभेद रूप दशा प्रगट हो जाती है। भावार्थ - जिस समय कोई साधक ध्यान का अवलम्बन लेकर भेद-विज्ञान के द्वारा अनावि काल से लगे हुए द्रव्य कर्म, भाव कर्म और नो कर्म से अपने आपको भिन्न समझ लेता है उस समय यह अपनी आत्मा को पर की अपेक्षा के बिना स्वयं ही जान लेता है और उसे जानकर उसमें इस प्रकार तल्लीन हो जाता है कि ये ज्ञानादिक गुण हैं और मैं इनका धारण करने वाला गुणी है, यह ज्ञान है, इसके द्वारा में इन ज्ञेय प्रदार्थों को जानता हूँ इस प्रकार के ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय का कोई भेद नहीं रहता, किन्तु एक अभिन्न दशा प्रकट हो जाती हैं। जो कि स्वयं ही अनुभव गभ्य है । आगे इसी स्वरूपचरण रूप ध्यान अवस्था का और भी वर्णन करते हैं -- जहं ध्यान ध्याता ध्येय को न विकल्प वचभेद न जहां | चिद्भाव कर्म चिदेश करता चेतना किरिया तहां ॥ तीनों अभिन्न अखिन्न शुध उपयोग की निश्चल दशा । प्रगटी जहां हग ज्ञानं व्रत ये तीनधा एकै लशा ॥६॥ अर्थ--- जिस ध्यान को अवस्था में ध्यान करने वाला ध्याता, ध्यान करने योग्य वस्तु ध्येय Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और ध्यान का मेष-विकल्प महीं रहता है। उस समय की सर्व क्रिया वचन अगोचर हो जाती है। उसी समय आत्मा का चैतन्य भाव ही कर्म है चैतन्य ब्रह्म हो कता है और चेतना ही क्रिया बन जाती & है अर्थात् जिस समय ध्याता ध्यान योग तथा का वर्ण जौरा मे गनों भिन्न नहीं रह जाते. ४ & किन्तु एक अभिन्न अखंड एक मात्र शुद्धोपयोग की निश्चल अविचल दशा प्रगट हो जाती है । उस समय सम्यग्दर्शन, सम्याज्ञान और सम्याचारित्र ये तीनों ही एक स्वरूप प्रतिभाषित होने सगते हैं । परमाणनय निक्षेप को न उद्योत अनुभव में दिखें । हुग ज्ञान सुख बलमय सदा नहिं आन भाव जुमो विखें। में साध्य साधक मैं अबाधक कर्म अर तस फलनित। चित पिंड चंड अखंड सगण करंडच्यत पनि कल नितें ॥१०॥ अर्थ- उस ध्यान की अवस्था में प्रमाण नय और निक्षेप का भिन्न-भिन्न प्रकाश अनुभव में नहीं दिखाई पड़ता है। किन्तु सबा काल में दर्शन, शान, सुख, बल, वीर्यमय है । अन्य रागादि भाव 8 मेरे नहीं है यही प्रतिभाषित होता है। मैं हो साध्य हूँ और में ही साधक हूँ । कर्म और कर्म के फल से मैं अबाधित हैं । मुझ पर किसी तरह की बाधा नहीं है। मै चैतन्य पिंड हूं, अखण्ड ज्ञान ज्योति का धारक हूँ, अखंड हूँ उत्तम उत्तम गुणों का भंडार हूँ और सर्व प्रकार के पापों का समूह & से दूर हूँ अर्थात् में सच्चिदानन्दमय केवलज्ञान स्वरूप हूँ । अब उक्त ध्यान अवस्था का महात्म्य लिखते हैं यो चित्य निज में थिर भये तिन अकथ जो आनन्द लह्यो। सो इन्द्र नाग नरेन्द्र वा अहमिन्द्र के नाहीं कह्यो । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तब ही शुकल ध्यानाग्निकर चउघाति विधि कानन दह्यो। सब लख्यो केवलज्ञानकरि भविलोककों शिवमग कह्यो॥११॥ अर्थ-इस प्रकार ध्यान अवस्था में चिन्तवन करते हुए जब मुनिराज अपनी आत्मा में स्थिर हो जाते हैं उस समय जो अनिवं धनीय आनन्द प्राप्त होता है वह इन्द्र, नागेन्द्र और अहि-8 मिन्द्र तक देवों को भी नहीं प्राप्त होता है। इसी प्रयान को अवस्था में साधुजन शुक्ल ध्यानरूपी अग्नि से ज्ञानावर्ण, दर्शनावर्ण, मोहनी और अन्तराय इन चार धातिया कर्मरूपी जंगल को जला 0 देता है। उसी समय उन के केवलनान जोत जाग जाती है, निज स्वरूए प्रकट हो जाता है 8 जिसके द्वारा लोक्य और त्रिकाल की समस्त वस्तुओं को प्रत्यक्ष देखने लगते हैं और फिर भव्य जीवों के हितार्थ मोक्षमार्ग का उपदेश दाता होते हैं । इस प्रकार अरहंत अवस्था प्राप्त करने के पश्चात् वे सिद्ध अवस्था को प्राप्त होते हैं । यह अवस्था वर्णन करते है पनि धाति शेष अघाति विधि छिन मांहि अष्टम बसे। वशुकर्म विनशै सुगुन वसु सम्यक्त्व आदिक सबल सै॥ संसार खार अपार पारावार तरि तीर्राह गये । अविकार अकल अरूप च चिद्र प अबिनाशी भये ॥१२॥ ____ अर्थ-अरहंत अवस्था में बिहार करते हुए धर्मोपदेश देकर आयु के अंत समय में योग निरोधकर शेष चार अघातिया कर्मों का भी घातकर एक समय में ईषत्प्रागभार नाम को आठवीं पृथ्वी है उसके ऊपर स्थित सिद्धालय में जा विराजमान होते हैं । इन सिद्धों के आठ कमों के विनाश से सम्यक्त्व आदि आठ गुण प्रगट होते हैं वे ये हैं Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E ढाला १ - ज्ञानावर्णी कर्म के क्षय से अनन्त ज्ञान प्रगट होता है । २- दर्शनावणी कर्म के क्षय से अनन्त दर्शन ३ - वेदनीय कर्म के क्षय से अव्यावाध ४ - मोहनीय कर्म के क्षय से क्षायक सम्यक्त्व ५ - आयु कर्म के क्षय से अवगाहन गुण ६ - नाम कर्म के क्षय से सूक्ष्मत्व गुण ७ - गोत्र कर्म के क्षय मे अगुरुलघु गु ८ अन्तराय कर्म क्षय से अनन्त वीर्यं गुण 11 ?? 23 21 22 " 18 ऐसे मुक्त हुए आत्मा संसार रूपी अगाध खारे समुद्र से तिर कर पार हो जाते हैं और सर्व प्रकार के विकारों से रहित, शरीर रहित, रूप, रस, गंध, स्पर्श सिद्ध पद को प्राप्त होते हैं । रहित, निर्मल चिदानन्दमय अविनाओ अब सिद्ध अवस्था को लिखते हैं- निज मांहि लोक अलोक गुण पर्याय रहि हैं अनन्तानन्त काल यथातथा धनि धन्य हैं जे जीव नरभव पाय यह कारज किया। तिनही अनादि भ्रमन पंच प्रकार तजि वर सुख लिया ॥ १३ ॥ अर्थ - सिद्ध अवस्था में अपनी आत्मा के भीतर ही लोकाकाश और अलोकाकाश समस्त प्रतिबिम्बित थये । शिव परनये ॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 द्रयों के अनन्त गुण और पर्याय एक साथ प्रतिबिम्बित होने लगते हैं। मुक्त जीव जिस प्रकार सिद्ध अवस्था को प्राप्त हुए हैं उसी प्रकार आगे अनन्तानन्त काल तक मोक्ष में रहेंगे । उनमें कभी भी रंच मात्र परिवर्तन नहीं होगा। जिन जोधों ने तर भव पाकर मोक्ष प्राप्त करने का महान् कार्य किया है वे धन्य हैं-धन्य हैं और उन्होंने ही अनादि काल से संसार में परिभ्रमण कराने वाले पंच परावर्तनों ४ का त्याग कर के मोक्ष का उत्तम सुख प्राप्त किया है। यहां आचार्यों ने सिद्धों के आठ गुणों में सायकल समयक्त्व को गिनते हैं और कुछ आकाचे अनन्स सुख को , शो इस पोईव नहीं जानना चाहिए। क्योंकि मोहनीय कर्म के दो भेद हैं-दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय। इन में एक का प्रहण करना सो यह अपनी-अपनी यिथक्षा है। विशेषार्थ-जिस आकार प्रकार और रूप में सिन अवस्था प्राप्त होती है उसी आकार 8 प्रकार और रूप में वे अनन्तानन्त काल तक ज्यों के त्यों चराचर विश्व को जानते देखते हुए विराजमान रहते हैं । सिद्ध जीव कभी भी संसार में लौट कर नहीं आते । ज्ञान, दशन, सुख, 8 वीर्य, आन्मद सर्व लोकातिशायो मर्यादातीत और अनुपम होता है। वे सदा सदा के लिए जन्म, नरा ४ मरण, रोग, शोक, भय आदि संसारिक झंझटों से मुक्त हो जाते हैं । संसार में अपणित कल्पकारों के व्यतीत हो जाने पर भी सिद्ध जीवों के कमो कोई विकार नहीं उत्पन होता है । संसार में त्रिलोक्य को चलायमान कर देने वाला मी उत्पात हो जाय, तो भी मोक्ष में कमो कोई अय्यवस्था नहीं होती है & किन्तु सिद्ध जीय सवा काल किट्टिमा कालिमा से रहित तपाये हुए सौ च सुवर्ण के समान प्रकाशमान स्वरूप में विराजमान रहते हैं और अनन्त आनन्दामृत का पान करते हुए संसार का नाटक देखा करते हैं। bum Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छह ढाला अर्थात्---जो उत्तम आत्मा है वह अपने से भिन जो अर्हन्त सिद्ध परमात्मा की आराधना करके उन्हीं के समान परमात्मा हो जाता है, जैसे दीपक से भिन्न तेल बत्ती भी दीपक की आराधना करके दीपक स्वरूप हो जाती है। ऐसे ही यह आत्मा अपने चिद् स्वरूप को हो आत्म स्वरूप से आराधना करके परमात्मा हो जाता है । वया बॉस का पूरा करने को अपने से ही रगड़ कर न रूप हो जाता है । उसी प्रकार यह श्रात्मा आत्मा के आत्मीय गुणों की आराधना कर परमात्मा बन जाता है । जैसे बांस के वृक्ष में अग्नि शक्ति रूप विद्यमान होती है और अपने ही बांस रूप के साथ संघर्षण का निमित्त पाकर अग्नि प्रकट हो जाती है । ऐसे ही आत्मा में भी पूर्ण ज्ञानादि गुण शक्ति रूप से विद्यमान होते हैं वे प्रात्मा का ग्रात्मा के साथ संघर्षण होने से प्रकट हो जाते हैं उस संघर्षण से ध्यान रूपी अग्नि प्रकट होकर कर्म रूपो ईंधन को जला देती है तब ही वह आत्मा परमात्मा बन जाती है, जिस पद से फिर लौटना नहीं होता है, पुनः जन्म लेकर संसार में भ्रमण करना नहीं पड़ता । आगे रत्नत्रय का फल बतलाते हुए लिखते हैंमुख्योपचार दुभेद यों बडभागि रत्नत्रय घरें । अरु धरेंगे ते शिव लहैं तिन सुजस जल जगमल हरें ॥ इमि जानि आलस हानि साहस ठानि यह सिख आदरो । जबलौं न रोग जरा गहै तबलौं जगत निज हितकारो ॥१४॥ अर्थ - जो भाग्यशाली जीव पूर्वोक्त प्रकार से निश्चय और व्यवहार रूप दो प्रकार के रत्नत्रय को धारण करते हैं, तथा आगे धारण करेंगे ये जीव नियम से मोक्ष को प्राप्त करेंगे । उनका Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ & सुयश रूपी जल जगत के पाप रूपी मल को हरता है ऐसा जानकर आलस को दूर कर और साहस 8 को ठानकर इस शिक्षा को धारण करो कि जब तक शरीर को कोई रोग न घेरे, बुढ़ापा प्राकर न 8 सतावे तब तक शीघ्र ही अपना हित करलो अर्थात् निज आत्मा को स्मरण कर कल्याण करो। ____ अन्त में ग्रंथकार ग्रन्थ समाप्त करते हुए एक मर्म की बात कहते हैंयह राग आग दहै सदा तातै समामत सेइये । चिर भजे विषय कषाय अब तो त्याग निज पद वेइये । कहां रच्यो पर पद में न तेरो पद यहै क्यों दुख सहै । अब 'दौल' होउ सखी स्वपद रवि दाव मति चको यह ॥१५॥ अर्थ—यह विषय तृष्णा रूपो रागाग्नि अनादि काल से निरन्तर तुझे और संसारी जीवों को 8 जला रही है, इसलिए समता रूपी प्रमत का सेवन करना चाहिए । तूने चिरकाल से विषय कषाय को 8 8 सेवन किया है, अब तो उनका त्याग करके निज पद को पाने का प्रयत्न करना चाहिये, तू निरन्तर पर पद में क्यों आशक्त हो रहा है ? यह पर पद तेरा नहीं है, क्यों व्यर्थ वियना भाष करता हुआ ध्यर्थ में इनके पीछे पड़ा हुआ तू क्यों दुःख सह रहा है ? हे दौलतराम ! तू अफ्नो आत्मा के पद में तल्लीन होकर सुखी होजा, इस प्राप्त हए अवसर को मत चूके, जो अवसर चक जायगा तो होरा कनी रेत के संभूद्र में गिरी हुई फिर नहीं मिलेगी । ऐसे अपने आपको संबोधन करते हुए पंडित दौलत- पत्र रामजी ने संसार के प्राणी मात्र को सावधान किया है कि नर भव पाने का ऐसा सुयोग बार बार नहीं र होता । तू चाहे कि मैं विषय तृष्णा को पूरा कर लूफिर आत्म कार्य में लगूंगा, सो यह त्रिकाल में : 8 भी पूरी होने वाली नहीं है, उसकी पूर्ति का तो एक मात्र उपाय सन्तोषरूप अमृत का पान करना है Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ सो तू पूर्व पुण्य के उदई से प्राप्त हुए वैभव में सन्तोष कर और विषय कषायों को प्रवृत्ति को छोड़ कर ले & आत्म हित में लगजा । जिन पर पदार्थों में तू आसक्त हो रहा है, जिन पदों के पाने के लिए तू रात दिन एक कर रहा है ये तेरे आत्मा के पद नहीं हैं, उनके प्राप्त कर लेने पर भी तुझे शान्ति प्राप्त नहीं होगी। अतएव उनको पाने की प्राशा छोड़कर आत्म प्राप्ति के मार्ग में लगजा, जिस से कि तू अक्षय अनन्त सुख का धनी बन सके । फिर मुक्ति पाने का अवसर बार बार हाथ नहीं आता अतएव इस दाव को मत चूक. इसमें तेरा कल्याण है । अब ग्रन्थकार ग्रन्थ निर्माण का समय और प्राधार बतलाते हुए अपनी लघुता प्रगट करते हैंदोह-इक नव वसु इक वर्ष की, तीज शुकल बैशाख । करयो तत्व उपदेश यह, लखि बुधजन की भाख ॥१६॥ लघु घी तथा प्रमादतें, शब्द अर्थ को भूल । सुधी सुधार पढो सदा, जो पावो भवकूल ॥ १७ ॥ अर्थ-विक्रम संवत् १८६१ के बैशाख शुक्ला तृतीया के दिन बुधजन कृत छहढाला का आश्रय लेकर मैंने यह तत्त्वों का उपदेश करने वाला तत्त्वोपदेश या छहढाला ग्रन्थ बनाया है । इसमें मेरी अल्प बुद्धि से, वा प्रमाद से कहीं शब्द पा अर्थ की भूल रह गई हो, तो बुद्धिमान् लोग उसे सुधार कर पढ़ें, जिससे की वह संसार का किनारा शीघ्र ही प्राप्त कर सकें। इस प्रकार मुनि धर्म का वर्णन करने वाली छठी ढाल समाप्त हुई। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम पूज्य आचार्यरत्न "योगीन्द्र चूड़ामणो" श्री १०८ सुमति सागर जो महाराज १३. बा० . आर्यिका श्री १०५ कोतिमती माता जी १. आचार्य श्री १०८ सुमति सागर जो महाराज २. मुनि श्री १०८ महेन्द्र सागर जी महाराज ३. मुनि श्री १०८ समता सागर जी महाराज १४. आयिका श्री १०५ शान्तिमती माता जो १५. आयिका श्री १०५ बीरमती माता जी ४. मुनि श्री १०८ मा सागर जो महाराज १६. आयिका १०५ भागमति माता जी ५. मुनि श्री १०८ सन्तोष सागर जी महाराज ६. बा. ब्र. गणिनी आयिका श्री १०५ जानमती माता जी ७. आर्यिका श्री १०५ कल्याणमती माता जी १७. क्षुल्लक श्री १०५ शीतल सागर जी १८. बल्लक श्री १०५. विनय सागर जी १६. अन्लक श्री १०५. वीर सागर जी ०. क्षुल्लक श्री १०५ भाव सागर जी २१. क्षुल्लका श्री १०५ कीति सागर जी २२. फुल्लिक श्री १०५ ज्ञानमती जी . आयिका श्री १०५ विद्यामती माता जो ६. आयिका श्री १०५ यशोमती माता जी १०. आर्यिका थी १०५ सिद्धमती माता जी ११. बा.७० आयिका श्री १०५ जयमती माता जी Printed at PVIDYAOFFSET PRINTERS संघ संचालिका। MEERUT सुशीला बाई (आरा) १२. आयिका श्री १०५ दयामती माता जी Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन है भव्य आनाओं। अत्यन्त हर्ष का विषय है कि हमानी धर्म नगरी बड़ौत का बड़ा भारी गुट का उच्य आया है दिम जैन नगरी में परम पुस प्रातः कारणीय आध्यात्म शिरोमणी, समाधी सम्राट, नासपवासी, परम नसावी, बयोवृद्ध धर्म रत्नाकर, योगीराज, दिगम्बर जैनाचार्य थो 108 सुमति सागर जी महाराज जी का विशाल राब नहिल आगमन हुआ है। इस सत्र में 5 दिगम्बर मुनिराज, 10 आयिका मानाजी, 1 एक्लन शुल्लक तथा | झुल्लिका इस प्रकार 21 पिच्छिमा यहां विराजमान है। __ संघ के आगमन से बड़ौत में भारी धर्म प्रभाबना हो रही है मंत्र के गर न मुदिर जा, आखिका मानानी, पर मपन्त माय साध्वी, बड़े ज्ञानी, ध्वानी एवं गुयोग्य विद्धान है। पूज्य आचार्य श्री एवं पाम विधी आध्यात्मिक प्रवक्ता पुग गईन आप माता जी के प्रवचनों द्वारा जो जान की मंगा बह रही है उसी से प्रभावित होकर बडौत के भाई-बहनों ने बह छहकाला छावाकर घर-घर में पहुंबाने का निर्णय लिया है। यह छहहाला जैन धर्म को गीना है। इसे पढनर मीत्र आनन्द विभोर हो उठना है। इस ग्रन में निगोद ग निकन बर मोक्ष जाने तक का रास्ता बताया है। आत्मा को परमात्मा बनाने का मार्ग दिखाया हैं । नर रो नारायण बनने की विधि बतायी है। इसका घर-घर में स्वाध्याय हो और सभी भव्य जीव इयको पटकर अपनी भूल को जानकर, गही मार्ग पहिचान कर, यही मार्ग पर चस्पर अपना कल्याण करे इसी मंगल भावना के साथ इको टुपवा कर घर-घर में पहुँचाने का प्रयास किया जा रहा है। पर में यह पामर में प्राचीर मदानाकर या अमान वा अन्य इन निवेदन करता सभी दानवीर महानुभावों का आभार प्रकट करत हा निवेदन करता हूं कि गभी स्थानों में, महानुभाव इसे छपा कर घरघर में पहुँचामार गय और यश प्राप्त कर धर्म लाम । जय जिनेन्द्र य की । निवासः राकेग-भवन, पट्टी चौधरान बड़ोत-(मेरठ) निवेदक समत प्रसाद जैन “धर्माध्यापक" दिसम्बर जैन इण्टर कालिज प्रा० विभाग, बड़ौत (मेरठ) Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 101) 101) 101) TOI) 92- श्री शिखर चन्द जैन बडौत 93- श्री रघुनाथ सिंह किसान फैक्ट्री बडीत 94-श्री मित्रसेन राकेश कुमार जी बडौत 95- लाला दाताराम जयन्ती प्रसाद कपड़े वाले बात 96- श्रीमती शकुन्तला देवी इ.प. धीपात जैन फरज्जाल वाले 97-- श्रीमती क्रान्तिदेवी ध. प. महेन्द्र कुमार दिगम्बर वाले बडौत 98- गृप्तदान बडीत 99- श्री राजकली माहेकको थी है. जी 26 का 100- पवन कुमार अनूा चन्द जैन बडौत Ter- रनरीजयार रसीदों की आमद 201) 101) 101) ܕܐܐܙܝ 101) 2215) महायोग 22665) नोट:-उपरोक्त राशियां सावधानी पूर्वक लिखी गई है फिर भी यदि कोई भूल रह गई हो तो कृपया निम्नांकित पते पर पत्र व्यवहार रसीद न * सहित करें / उनके नाम आगामी प्रकाशन में छपवा दिये जाओंगे। AE Added rect विनीत जयकुमार साहुला सहमन्त्री थी 108 आचार्य मुमति नागर जी महाराज त्यागीवृती आश्रम सोनागिरि जिला दतिया (2010)