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& कारणां का आचरण करना लाभदायक है, देव पूजा दानादिक पुण्याव का कारण है और उसका ४
फल लौकिक पारलौकिक अभ्युदय को प्राप्ति है । अतएव रोगावि के समय पूजा पाठ करना अनिष्ट छह 8 ग्रहों की शान्ति के लिए मन्त्र जाप आदि करना मूढ़ता ही है । सम्यग्दृष्टि को सर्वत्र अमूढ़ दृष्टि
होना चाहिए । ५ उपगुहन अंग-दूसरों के दोषों को और अपने गुणों को प्रकट न करना तथा अपने धर्म को बढ़ाना उपगृहन गुण अंग है । अपनी आत्म-शक्तियों को बढ़ाना उत्तम क्षमा आर्दव
प्रादि भावों के द्वारा आत्मा के शुद्ध स्वभाव को बढ़ाना तथा संघ के दोषों को ढकना उपवहण अंग 8 है और जैन धर्म स्वयं शुद्ध है, पवित्र है, पर उसके धारण करने वालों में कोई अज्ञानो, आशक्त या
मिथयात्वी हो और उसके द्वारा जैन धर्म को निन्दा होने लगे, अपवाद फैल जाय तो उस निन्दा अपवाद को दूर करना उपगूहन अंग है । ६ स्थितिकरण अंग-विषय-कषायावि निमित्त से सम्यग्दर्शन या सम्यक् चारित्र से निगते हुए पुरुषों को पुनः उसी में स्थिर करना सो स्थितिकरण अंग है । जो 8
धर्म से पतित हो चुका है या जो भ्रष्ट होने वाला है उसे जिस प्रकार बने उसी प्रकार से धर्म में दृढ़ ह & करना, स्थिर करना सम्यग्दर्शन का एक खास अंग है यह अंग व्यक्ति और समाज का महान् उप
कारक है । सम्यग्दृष्टि का खास अंग है। धर्म और धर्मात्माओं को स्थिति इसी अंग पर अविलंबित & है। यह स्थितिकरण कहीं पर केवल वचन मात्र की सहायता से, कहीं सावधान कर देने मात्र से और & कहीं आर्थिक सहायता देने से संभव है । अनादिक के अकाल में कितने ही लोग , मांस और अभक्ष्य
और निध पदार्थों को खाकर चारित्र से पतित हो जाते हैं । कितने ही लोग अन्न के अत्यन्त महंगे 8
हो जाने से अर्थाभाव के कारण उसे खरीदने में असमर्थ हो जाते हैं । ऐसे समय केवल फजूल 8 83 सहायता से काम नहीं चलते हैं, किन्न धन व्यय कर जहां से मिले वष्ठां से अन्न को मंगा फर स्वयं