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को दूर करने के लिए जिन भगवान् को या अपने इष्ट देव को पूजा अर्चाना आदि में कुछ दोष नहीं रु 8 है, किन्तु दूसरे देयों को या कुक्षेत्रों की पूजा उपासना में दोष है । परन्तु यह उनकी भूल है, रोगादि 8 छह 8 के दूर करने के लिए देव पुजा आदि को इस लिए मूढता कहा है. कि उन देवों का बोमारी के रहने डालाष्ट्र या जाने से कोई संबन्ध नहीं है । बीमारियां देवताओं के कोप से नहीं होती है, और न उसको प्रस
& प्रता से जाती हैं । इसलिए बीमारी आदि को दूर करने के लिए देवताओं की पूजा करना मूहला हो © है'। जो कष्ट के समय प्रत्येक मनुष्य भगवान् का नाम स्मरण करता है, गुरुओं का या सुतीर्थ यात्रा & का, कृत्रिम अकृत्रिम चैत्यालय या अतिशय क्षेत्रों का नाम स्मरण करता है, यदि यह समर्थ होता 8 8 है तो विशेष रूप में धार्मिक क्रिया दान पूजा महोत्सव आदि भी करता है तो ये बुरा कार्य नहीं है। 8 आपत्ति को सहन करने की शक्ति प्रगट हो जाती है, इतना ही नहीं बल्कि अपत्ति में इस धार्मिक
भावना से पुराने अपराधों का पश्चात्ताप होता है । और सब जीयों में प्रेम भाव जागृत हो जाता है ।
और समता की भावना भी उत्पन्न हो जाती हैं परन्तु उसे रोग दूर करने की औषधि समझना ये मूठता है । जो कोई जन पड़ौसी या परिचित जन मूढता वाले पुरुषों को बातों पर विश्वास करते हैं उनको 8 ये मूढता दुःखदाई है । इस प्रकार यह स्व पर दुःखवायो होने से अधर्मरूप मूढ़ता है, परन्तु देव पूजा मात्र जाप, दान आदि शुभ क्रिया से पुण्य बंध होता है । संचित कर्म का नाश नहीं, भविष्य में ऐसा दुःख फिर नहीं भोगना पड़े। इसके लिए पूजनादि शुभ क्रिया का उपयोग किसी तरह कहा 8 गया तो ठीक है, किन्तु उसका प्रभाव वर्तमान में फल देने वाले कर्म पर नहीं पड़ता। उसके लिए तो उचित तप की आवश्यकता है, तप से संचित कर्मों को निर्जरा होती है और रोग उपसर्ग आपत्ति आदि दूर होते हैं, इसलिए रोगादिक के समय पुण्यास्रव के कारण में न पड़कर कर्म निर्जरा के 8