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& व्यवहार नये से मनो गुप्ति कहते हैं । विशेषार्थ-क्रोध, मान, माया और लोम, इन चार कषायों से
आकुलित हुए चित्त को कालुष्य कहते हैं और वशंन चारित्र घातक मोह के दो भेव हैं । एक दर्शन 8 मोहनीय, दूसरा धारिन मोहनीय । संत्रा के आहार, भय मंथन परिग्रह के भेव से चार प्रकार हैं । ४ शुभ राग और अशुभ राग के भेद से दो प्रकार राग है । और वैरमई परिणाम द्वेष है इत्यादि सर्व 8 अशुभ परिणामों का त्याग हो मनो गुप्ति है और जो अपने मन को सदा परमागम के अर्थ की
चिन्ता में लवलीन रखते हैं जो कि जितेन्द्रिय बाह्याभ्यन्तर परिग्रह कर रहित सदा जो श्रीमान & जिनेन्द्र के चरणों के स्मरण में वत्स पित्त है उन्हीं के यह मनोगुप्ति होती है । आगे वचनगुप्ति लिखते हैं---
पाप बन्ध को कारण स्त्री कथा, राज कथा, भोजन कथा और चोर कथा इन चार विकथा रूप वचनों का त्याग करना वचन गुप्ति है । इसी को अलोक निवृति वचन भी कहते हैं।
भावार्थ--जो बाहर से बचन को प्रवृत्ति को त्यागकर अन्तरंग में विशेष रूप में जो वचन कहना उसको भी दूर कर जैसे ध्यान होता है वही ध्यान परमात्मा को प्रकाश करने वाला है जो संसार के भव को बढ़ाने वाली वचन की रचना को स्याग कर जो चिदानन्द चतन्य चमत्कार रूप परमानन्द विलास रूप एक शुद्ध आत्मा का ध्याता है वह जीव शीघ्र ही कर्म फंद को छेद कर स्वभाविक आत्म महिमा के आनन्द को पाता है । आग कायगुप्ति लिखते हैं
बन्धन, छेवन, मारन, संकोचन, विस्तारन आदि शारीर को क्रियाओं को न करना कायगुरित है।
भावार्थ:-जो मुनि काय की सम्पूर्ण क्रियाओं को त्यागना, शारीर से ममत्व भाव छोड़ना या सर्व हिंसा से दूर रहना और चैतन्य भाव चिन्तामणि रत्न को प्राप्त करना कायगुप्ति है । काय