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हाला
& को बाहर के शास्त्रावि उपकरणों की जरूरत नहीं होती, ऐसे संयमी साधु अभ्यंतर उपकरण जो आप 8
का निज परम तत्त्व उसके ही प्रकाश करने में ही चतुर होते हैं उनके सर्व उपाधि रहित स्वरूप स्वा. भावाविक आत्म ज्ञान के सिवाय और कोई भी वस्तु ग्रहण योग्य नहीं होता है यह साधु सर्व प्राणीमात्र
पर क्षमा और पूर्ण मैत्री भाव होता है। हे मध्यात्मन् ! तू भो अपने मन रूपो कमल में इन समिति & को प्रमाण कदतिसो तु लानी कम मुक्ति स्त्री का स्वामी हो जावे और कर्म कपाट खोल देवे आगे पांचवीं प्रतिष्ठापना समिति कहते हैं
मुनि अपवाद मार्गों और उत्सग मार्गी दोनों ही जीव रहित प्राशुक स्थान को देखकर शरीर का मल मूत्र कफ आदि छोड़ते हैं अर्थात जीव जन्तु रहित, प्राशुक स्थल, गूढ स्थान, अन्य कर रोकने योग्य नहीं हों, ऐसे स्थान में मल मूत्र आदि का क्षेपण करना प्रतिष्ठापना समिति है।
अब आगे ग्रन्धकार तीन गुप्ति और पंचेन्द्रिय विजय का वर्णन करते हैं-- -
LUCCCCCCTOcxccccxxxxxxxxxxxxxxXCLESEXECULAKXSExcccxcxxx
सम्यक् प्रकार निरोध मन वच काय आतम ध्यावते । तिन सुथिर मुद्रा देखि मृग गण उपल खाज खुजाववते ॥ रस रूप गंध तथा फरस अरु शब्द शुभ असहावने ।
तिनमें न राग विरोध पंचेन्द्रिय जयन पद पावने ॥४॥
अर्थ-वे मुनिराज अपने मन बच्चन और काय को भली प्रकार निरोध करके सुस्थिर हो इस प्रकार आत्मा का ध्यान करते हैं कि जंगल के हिरण उनको सुस्थिर, अचल शान्त मुद्रा को देखकर और उन्हें पत्थर की मूर्ति समझ कर अपने शरीर की खाज खुजलाते हैं।
भावार्थ-कसुषपना, मोह, अभिलाषा, राग, द्वेषादि, अशुभ भावों का जो त्याग करना उसे ही
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