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8 बह वेव कहता है कि यदि यहां से मेरा भरण होता है तो भले ही होये, परन्तु मनुष्य तिर्यचों के उस
8 नरक वास के तुल्य गर्भवास में निवास न करना पड़े, भले हो मेरो उत्पत्ति एकेन्द्रियों में हो जाय । ह& ऐसा विचार जब बहुत समय तक हृदय गर्भ में भरते हैं, हिलोरें मारते हैं, तब वह एकेन्द्रियों की
आयु बंध कर लेता है, और वर्तमान पर्याय की आयु के पूरा हो जाने पर वह मरकर निदान के वश 8 से एकेन्द्रियों में उत्पन्न हो जाता है । जो कि भवनत्रिक और दूसरे स्वर्ग तक के मिथ्या वृष्टि देव मर 8 कर एकेन्द्रियों में उत्पन्न हो सकते हैं ।
विशेषार्थ-यह तिर्यञ्चगति का दुःख छ: प्रकार के प्राणियों में पाया जाता है । प्रथम प्रकार के प्राणी एकेन्द्रिय स्थावर जीव हैं । जैसे पृथ्वोकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक तथा वनस्पतिकायिक ये सब सचित दशा में हवा के द्वारा जीते हैं । हवा न मिलने से मर जाते हैं ।
खान वा खेत की मिट्टी जीव सहित है। सूखो या जली हुई मिट्टी जीव रहित है । कूप, बावड़ी, & नदी का पानी सचित है, गर्म किया हुआ, रौंदा हुआ, टकराया हुआ पानी जीव से रहित है, लाल
लाल ज्योतिमय स्फुलिंगों के साथ जलती हुई अग्नि सचित है, कोयलों में अचित अग्नि है । समुद्र, नदो, सरोवर, उपवन की गोली पवन सचित है । जेठ-बंशाख को गर्म हवा या धुएं वाली हवा अचित है । फल-फूल पत्ता शाखा हरी-भरी सचित वनस्पति है । सूखा पका फल गर्म व पकाया हुआ शाकादि व यन्त्र से भिन्न किया हुआ शाक फलादि जीव रहित वनस्पति है जीव रहित सचित एकेन्द्रिय जीवों के एक स्पर्शन इन्द्रिय है। उन्हें इन्द्रिय से छूकर ज्ञान होता है इसे
मतिज्ञान कहते हैं। स्पर्श के पीछे सुख वा दुःख का ज्ञान होता है, इसे श्रुतज्ञान कहते हैं । वे जीव & यो जोव के धारी होते हैं । इनके स्पर्शनेन्द्रिय, शरीर का बल, श्वासोच्छ्वास और आयु कभं ये चार