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इन चितत समरस जागे, जिमि ज्वलन पवन के लागे ।
जब ही जिय आतम जान, तब हो जिय शिवसुख टाने ॥२॥
अर्थ-बड़े ही भाग्यवान और सकल चारित्र के धारक मुनिराज संसार और इन्द्रिय भोगों से दिरागो रहते हैं । इसलिए हे भाई तुम्हें भी वैराग्य उत्पन्न करने के लिए बारह भावनाओं का निरंतर चिन्तवन करना चाहिए, क्योंकि इन बारह भावनाओं के चिन्तवन करने से समता रूपी सुख प्रकट होता है जैसे कि पवन के लगने से अग्नि की ज्वाला प्रकट होती है । जब यह जीव आत्मा के स्वरूप को पहिचान लेता है तब ही वह मोक्ष सुख अनुभव कर पाता है, कहने का मारांश यह है कि समता
भाव को जागृत करने के लिए बारह भावनाओं का चिन्तवन करना अत्यन्त आवश्यक है । अतएव ल इन बारह भावनाओं को निरंतर भावे । अब अनित्य भावना का स्वरूप लिखते हैं
जोबन गृह गोधन नारी, हय गय जन आज्ञा कारी । इन्द्रिय भोग छिन थाई, सर धन चपला चपलाई ॥३॥
अर्थ-युवावस्था, सदन, बैल, भैस, धन, धान्य, दासी, दास, हाथी, घोड़ा, स्त्री, पुत्र, 8 पौत्रादि, प्राज्ञाकारी परिवार के लौकिक लोग और नौकर चाकर तथा इन्द्रियों के भोग, ये सब को ल संब वस्तु क्षण भर स्थिर रहने वाली हैं, सदा सास्वति नहीं । जैसे कि इन्द्र धनुष और बिजली का 8 चमकना । अर्थात् इन्द्र धनुष को तरह, ग्राम, स्थान, आसन, देवेन्द्र, असुर, विद्याधर, राजा, इन की हाथी, घोड़ा आदि विभुत इन्द्रिय सुख, माता पिता भाई बन्धु आदि से प्रीति, ये सब अनित्य हैं । राज्य पाठ सेठ साहूकार का विभव, क्षेत्र, वस्तु, हिरण्य, सुवर्ण, गाय, भैंस, नेत्रादि इन्द्रिय गोरा काला वर्ण, बुद्धि, बल, युवा अवस्था, कान्ति, प्रताप, पुत्र, पौत्रावि, जीवन, धर्मपत्नी, घर बार महल