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ढाला
१७ अनन्तानुबंधों क्रोध, १८ मान, १६ माया, २० लोभ, २१ स्त्यानगृद्धि, २२ निद्रा निद्रा, २३ प्रचलाप्रचला, २४ दुर्भग, २५ वुस्वर २६ अनादेय, २७ न्यग्रोध संस्थान, २८ स्वाति संस्थान, २६
कुब्ज संस्थान, ३० वामन संस्थान, ३१ वज्र नाराच संहनन, ३२ नाराच संहनन, ३३ अर्द्ध नाराव संहनन, ३४ कोलक संहनन, ३५ अप्रशस्त विहायोगति, ३६ स्त्रीवेद, ३७ नीच गोत्र, ३८ तिर्यगत ३६ तिर्यग्गत्यानुपूर्वी ४० तिर्यगायु और ४१ उद्योत । इन ४१ इकतालीस पाप प्रकृतियों का उसके आस्त्रव और बंध रुक जाता है । अर्थात् व्रत रहित सम्यग्दर्शन होने मात्र से ही यह जीव नरक गति और तिथंच गति में उदय आने योग्य फल देने वाली किसी भी प्रकृति का बंध नहीं करता है । इन्हीं इकतालीस प्रकृतियों के बंध नहीं होने के कारण प्रभ्यग्दृष्टि जीव मर कर नरकगति और तियंच गति में उत्पन्न नहीं होता है । अहो, सम्यग्दर्शन का कितना बड़ा माहात्म्य है कि उसके प्राप्त होते ही यह जीव एकेन्द्रिय विकलेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होता, नारकी और कर्मभूमि के तिर्यंचों में नहीं पैदा होता । मनुष्य गति में जाने पर भी लूला, लंगड़ा, बहिरा, गंगा, होनांगी या अधिकांगी नहीं पैदा होता है । अल्प आयु का धारक नहीं पैदा होता । वीन, दरिद्री, रोगी, शोको और कुटुम्ब परिवार से होन नहीं होता, अभागी नहीं होता, नपुंसक या स्त्री नहीं बनता, कुबड़ा, बोना या इंडक संस्थान वाला और होन संहनन वाला नहीं होता, किन्तु वज्रवृषभ नाराच संहनन और समचतुरस्त्र संस्थान का धारक होता है । महान सौभाग्यशाली, विभव संपन्न, महा पुरषार्थी और कामदेव के समान सुन्दर शरीर का धारक मनुष्य होता है । यदि सम्यग्दृष्टि जीव देवगति में जावे तो वहां भी वह भवनवासी, व्यंतर और ज्यो िषी देवों में उत्पन्न नहीं होता, नियम से कल्पवासो देव ही उत्पन्न होता है, उनमें भी अभि कि आतिष जाति अबेब नहीं होता कि प्रत्येक सामानिक त्रायत्रश