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8 करना चाहिए । शम अर्थात् कषायों के शान्त करने से और दम अर्थात् इन्द्रिय विषयों के & जीतने से कर्मों का आना सकता है वही संवर कहलाता है । इसका सदा आदर करना चाहिए । तपो
बल से जो कर्म झड़ते हैं उसे निर्जरा कहते हैं। उसका सदा माचरण करना चाहिए। समस्त कमों से रहित जो प्रात्मा को शुद्ध दशा प्रगट होती है उसे मोक्ष तत्व कहते हैं । वह स्थिर और अवि- 8 नाशी सुख को करने वाली है। इस प्रकार सातों तत्वों के यथार्थ श्रद्धान को व्यवहार सम्यग्दर्शन 8 कहते हैं । वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी जिन भगवान् हो सच्चे देव हैं। परिग्रह आरंभ से रहत ४ ज्ञान ध्यान में परायण पुरुष ही सच्चे गुरु हैं । और दयामय धर्म ही सच्चा धर्म है । इन तीनों को भी सम्यादर्शन का कारण जानना चाहिए, और आगे कहे जाने वाले आठ अंगों सहित इस सम्यग्दर्शन को धारण करना चाहिए । भावार्थ :-कर्मों के आने का मूल कारण यद्यपि तीनों योगों को चंचलता 8
है । जो योगों को चलता जिस परिणामों में अधिक होगी उसी परिणाम में कर्मों का आस्रव होगा 8 & तथापि जिस जीव के मिथ्यादर्शन अविरति प्रमाद आदि बंध के कारण जितने अधिक होंगे, उतनी
हो अधिक कर्म प्रकृतियों का उसके आस्रव और बंध होगा। मिथ्यादृष्टि जीव के मिथ्या दर्शन आदि & पांचों हो बंध के कारण पाये जाते हैं, इसलिए उसके आठों कर्मों को बंध योग्य यथा संभव सब हो
११७ प्रकृतियों का आस्रब और बंध होता है । किन्तु जब जीव मिथ्यारष्टि से सम्यग्दृष्टि बन जाता है तब व्रतादिक को नही धारण करने पर भी उसके केवल ७७ प्रकृतियों का आस्त्रव और बंध रह जाता
है। १ मिथ्यात्व, २ हंडक संस्थान, ३ नपुसकवेद, ४ नरक गति, ५ नरक गत्यानुपूर्वी, ६ नरक 0 आयु, ७ असंप्राप्तासृपटिका संहहन, ८ एकेन्द्रिय जाति, ६ द्वीन्द्रिय जाति, १० वीन्द्रिय जाति, ल ११ चतुइन्द्रिय जाति, १२ स्थावर नाम कर्म, १३ आताप, १४ सूक्ष्म, १५ अपर्याप्त, १६ साधारण