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8 समझ कर उसमें अनुराग मत कर, किन्तु इससे जो एक महान लाभ यह हो सकता है, उसे प्राप्त करने 8
का प्रयत्न कर । जो अक्षय अव्यायाध सुख को प्राप्ति के साधनभूत रत्नत्रय सार भूत सम्यक् चारित्र को पूर्ति, उत्कृष्ट तपादिक की साधना इस शरीर से ही संभव है अतः उत्तम तपश्चरणावि कर के इस & असार संसार शरीर से संवेग वैराग्य की वृद्धि कर सम्यक चारित्र रूपो सार को खींच ले। फिर रसहीन
हुए इक्षु दंड के समान इस शरीर के विनाश होने पर भी कोई खेव नहीं होयगा । इस प्रकार के चिन्त& वन करने से शरीर को निर्वेद होता है जिससे यह जीव संसार समुद्र से पार होने का प्रयत्न करता है & अब आसब भावना का स्वरूप लिखते हैं
जो जोगन की चपलाई, तातें हवं आशव भाई । आस्तव दुखकार घनेरे, बधिवंत तिन्हें निरवेरे ॥४॥
अर्थ-हे भ्रात ! मन वचन और काप इन तीनों योगों में जो पता होती है, उसी से 8 6 कर्मों का आसव होता है। यह प्रासव अति दुख देने वाला है, इसलिए बुद्धिमान लोग उसे रोकने 8
का प्रयत्न करते हैं । अर्थात् जिसमें दुःख भय रूपी बहुते मत्स्य हैं ऐसे महा भयंकर संसार समुद्र में यह प्राणी जिस कारण से डूबता है वही सब कासव का कारण है, जो कि राग, द्वेष, मोह, पाचल इन्द्रिय, प्राहारावि संज्ञा, ऋद्धि प्रावि गौरव, क्रोधादि कषाय, मिथ्यावावि शत्रु और मन वचन काप ले
को क्रिया सहित, वे सब आस्राव हैं इनसे कर्म आते हैं । बात यह है कि राग इस जीव को अशुभ पृष्ठ & मलिन घिनावनी बस्तु में अनुराग उपजता है, देश भो, सम्यग्दर्शनादिकों में देव अप्रीति उपजाता है ष्ल और मोह भी इस जीव का महान बेरी है, जो कि हमेशा इस जीव के असली स्वरूप को भुला देता 88 & है तथा मोच गति करा देता है, ऐसे इस मोह को धिक्कार हो, क्योंकि मन में रहने वाले जिस मोह से