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अर्थ-यह देह रक्त, मांस, पोप, विष्टा, मल मूत्रादि को अली है और हउडी; चर्बी, रोम कूपाधि से बनी होने के कारण अपवित्र है। इस देह के दो कानों के छेद, दो आंख, दो नाक के ल छेव; एक मुंह, दो मल मूत्र द्वार, इन नौ द्वारों से निशि दिन घिनायनी वस्तुएं बहा करती हैं, फिर हे आत्मन् ! ऐसे अपवित्र देह से क्यों यारी-प्रीति करता है ? अर्थात् यह जीव मल मूत्र युक्त गर्भवास बसता जरायु पर लिपटा हुवा माता के भक्षण से उत्पन्न श्लेष्म लार कर सहित तीन दुर्गध रस को पोता है, मांस, हाड, कफ, मेव, खून, चाम, पित, आंत, मल, मूत्र इनका धर, बहुत दुःख और सैकड़ों 8 रोगों का पात्र ऐस शरीर को तुम अनुचि जानो, स्त्री, वस्त्र, धन, मैथुन, शरीरादि यह सब अशुभ हैं
ऐसा जानकर वैराग्य को प्राप्त कर, स्वभाव में रम, इस तरह वैराग्य भाव धारण कर प्रात्म ध्यान में 8. लीन हो जिससे प्रशुचि अपवत्रि इस शरीर का सम्बन्ध छूट जाय, ये भावना उत्तम है।
भावार्थ-यह समस्त शरीर निध और अपवित्र वस्तुओं का पिंड है, नाना प्रकार के कमि कुल से भरा हुवा है, अत्यन्त दुर्गन्धित है, मल मूत्र को खान है, मशार है, इस अपवित्र शरीर के 8 संबंध और संपर्क से अति पवित्र पुष्प मालादि सरस सुगंधित और मनोहर पदार्थ भी प्रति अपवित्र
और घिनावने हो जाते हैं। इस प्रकार देह को देखते हुये भी बड़ा भारी आश्चर्य है कि तू उसो में अनुरक्त रागो हो रहा है और आसक्ति से सेवन कर रहा है । हे आत्मन् ! इस शरीर के भीतरी 8
स्वरूप का विचार करे तो इस के भीतर हाड मांस रुधिर नसा जाल मद मूत्रादि अपवित्र वस्तुओं के पष्ट & सिवाय और क्या भरा है, जो ये वेह इस चमड़ी के ढके रहने के कारण ऊपर से बड़ी सुन्दर रमणीक ११
दिखती है यदि देवयोग से उसके भीतर को कोई वस्तु बाहर आ जाय तो उसके सेवन की बात तो * दूर रही उसे कोई देखना भी नहीं चाहता है । इस लिए इस मांस के पिड को अपवित्र और विनश्वर