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& मोहित हुवा यह प्राणी हितकारी मोक्ष सुख का कारण ऐसे जिन बचन अमृत को पान नहीं करने देता, 8 नहीं पहिचानता, ऐसा आस्रव भावना को चिन्तवन करना चाहिये, क्योंकि एकाग्रह मन के बिना राग ४
द्वेष इन्द्रिय विषयादियों के रोकने को समर्थ नहीं हो सकते जैसे मंत्र प्रौषधि कर होन वैद्य दुष्ट ताला आशी विष सर्पो को वश नहीं कर सकता । यह जीव विषयों में रत होकर निरन्तर पाप का उपार्जन
करके चारों गतियों में अनन्त दुःख अनन्त काल तक भोगता रहता है । अर्थात् आहारादि संज्ञा © तीन मौरव मिथ्यावर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र धारण करके महापाप को उपार्जन करके पश्चात्
कर्मरूपी भार से भरा हुवा महान दुःख भोगता है तथा सत्तावन आस्रव के द्वारा यह जीव दुःख ४ पाता है जैसे छिद्र सहित नाव समुद्र में डूब जाती है इस तरह कर्मास्त्रव से जीव भी संसार समुद्र में 3 डूब जाता है ऐसा चितवन करना ।
भावार्थ-यपि योगों को चंचलता से कर्मों का आस्रव होता है तथापि उनमें स्थिति बंध ४ व अनुभाग, बंध नहीं पड़ता है, इसलिये वह आनव जीव को दुःखदायो भी नहीं है। किन्तु कषायों से युक्त योगों के निमित्त से तो कर्मों का आसव होता है वह महा दुर्मोच होता है, उसका छूटना बहुत कठिन होता है । इस युमोच कर्म पुद्गल कर्मों से निरंतर भरा जाता हुथा यह जीव नीचे नीचे चला ४
जाता है जैसे कि जल से भरी हुई नाव नोचे को चली जाती है । ऐसे ही यह जीव फर्म पुद्गल ल संचय कर चारों गति में गमन करते हैं तथा भिन्न भिन्न अवस्था रूप परिणति है यही संसार है । 8 यद्यपि द्रध्यपने से यह जीव टंकोकिरण स्थिर रूप है तो भी पर्याय से प्रथिर है । पूर्व को अवस्था को 8
त्याग कर आगे को अवस्था को ग्रहण करना है, वही तो संसार का स्वरूप है। जब यह जीव पुद्गल कर्मों से सजा हुआ अनादि काल से मलिन हुआ मिथ्यात्व रागादि रूप कर्म सहित अशुद्ध ।