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ल विभाष विकार रूप परिणामों को करता है उस रागादि विभाव रूप परिणामों से पुद्गलिक द्रष्ट्य कर्म & जीव के प्रदेशों में आकर बंध को प्राप्त हो जाता है प्रथम समय आसव प्राता है, द्वितीय समय बंष8
को प्राप्त हो जाता है इसी कारण से रागादि विभाव परिणाम पुद्गलोक बंध को कारणरूप भाव कर्म डाला है । इसलिये निश्चय से आत्मा अपने भावकों का कर्ता है । जो पुद्गल परिणाम है वह पुद्गल
ही है और परिणामो अपने परिणामों का कर्ता है, परिणाम परिणामी एक ही है जो पुद्गल परिणाम ल है वही पुद्गलमयी क्रिया है जो किया है वह कर्म है इसलिए पुद्गल अपने द्रव्य कमरूप परिणामों
का कर्ता है इसलिए कर्मास्त्रव का कारण तेरा अनादि कालीन कषाय युक्त योग भाव है उसे दूर
करने का निरंतर प्रयत्न कर, आस्रव और बंध के कारणों से बचने का प्रयत्न करना हो आसाथ भावना & का उद्देश्य है । इस भावना के चिन्तवन करने से मिथ्यात्व कवाय अविरत आदि में हेय बुद्धि और सम्यक्त्व चारित्र प्रावि में उपादेय बुद्धि जागृत हो जाती है । अब संबर मावना लिखते हैं
जिन पण्य पाप नहिं कीना, आतम अनभव चित दीना । तिनको विधि आवत रोके, संवर लहि सुख अवलोके ॥ १० ॥
अर्थ – जिन बुद्धिमान पुरुषों ने पुण्य और पाप रूप कार्यों को नहीं किया, किन्तु अपने आत्मा के अनुभव में चित को लगाया है, उन्हीं महापुरुषों ने आते हुए कर्मों को रोका और संबर को प्राप्त कर अक्षयानन्त आत्म सुख को प्राप्त किया है। अर्थात जो कर्मासव के कारण इन्द्रिय कषाय संज्ञा गौरव राग द्वेष मोह भावि उन सब को रोके, कवायों के वेग को रोकने से मूल से लेकर अंत तक सब ही पासव एक जाते हैं, जैसे नाव के छिद्र को रोकने से नाव पानी में नहीं पूब सकती है, तथा इन्द्रिय कषाय राग द्वेष से तप जान संयम और विनय से रोके जाते हैं, जैसे कुमार्ग गमन करते हुए 8