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मिथ्या दर्शन के प्रभाव से यह जोव शरीर के जन्म को अपना जन्म जानता है और शरीर के नाश को अपना मरण मानता है। यह अजीव तत्त्व का विपरीत श्रद्वान है क्योंकि जन्म मरण शरीर के होता है, शरीर अजीब तस्व है आत्मा नहीं। जिस पदार्थ का जैसा स्वरूप है उसे वैसा न मानना ही उसका विपरीत श्रद्धान कहलाता है । जो रागद्वेबादि स्पष्ट रूप से जोव को दुःख देने वाले हैं उनका ही सेवन करता हुआ यह जीव सानन्द का अनुभव करता है । यह आलव तत्व का विपरीत श्रद्धान है, क्योंकि जो वस्तु यथार्थ में दुःखदायक है उसे वैसा ही समझना उसका यथार्थ श्रद्धान कहलाता है । पर यहां कर्मास्रव के प्रधान और दुःखदायक कारण रागद्वेष को सुख का साधन समझ कर अपनाया गया है यही आसव तस्व का मिथ्या दृष्टि जीव अपने आपके शुद्ध स्वरूप को भूल कर शुभ कर्मों के बंध के हर्ष मानता है और अशुभ कर्मों के बंध को फल प्राप्ति के समय दुःख मानता है, बंध तत्व का विपरीत श्रद्धान है, क्योंकि जो बंध आत्मा को संसार समुद्र में डुबोने वाला है, उसी शुभ बंध के फल में यह हर्ष मानता है। इसी प्रकार आत्मा के हित कारण में वैराग्य और ज्ञान है उन्हें यह मिथ्या-दृष्टि जीव अपने आपको कष्टदायक मानता है । यह संवर तत्त्व' का विपरीत श्रद्धान है, क्योंकि संवर कर्मों के आने को रोकने में प्रधान कारस्य । वैराग्य के संयोग से आत्मा में एक ऐसी व्यि शक्ति जागृत हो जाती है जिसके कारण कर्मों का आना स्वयं रुक जाता है । इस प्रकार संदर के प्रधान कारण ज्ञान और वैराग्य को दुःखदायक मानना ही संवर तत्व का विपरीत श्रद्धान है । मिथ्या दृष्टि जीव अपनी आत्म शक्ति को खोकर नष्ट कर या भूलकर, दिन रात विषयों में दौड़ने वाली इच्छा शक्ति को, नाना प्रकार की अभिलाषाओं को नहीं रोकता है, यह निर्जरा तत्त्व का विपरीत श्रद्धान है। क्योंकि इच्छाओं के रोकने
विपरीत श्रद्धान है । फल की प्राप्ति में तो अरति करता है यह
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