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को तप कहते हैं, और तप से निर्जरा होती है । परन्तु मिथ्यादृष्टि जीव अनादि काल से लगे हुए मिथ्यात्व के प्रभाव से अपनो अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन आदि आत्मिक शक्तियों को भूल जाता है, उसे अपने आत्मिक अनन्त सुख का भान नहीं रहता है और वह पर पदार्थों में ही आनन्द मानकर रात दिन उनकी प्राप्ति के लिए उद्योगी रहता है तथा तृष्णा नागनी की लहर में सर्व काल हाय २ faar करता है । यह निर्जरा तत्व के यथार्थ स्वरूप को न समझने का ही फल है। मोक्ष को निराकुलता रूप माना गया है । क्योंकि निराकुलता हो परम आनंददायक सुख है । किन्तु मिथ्यादृष्टि जीव इस सर्वोत्कृष्ट पद की प्राप्ति के लिये भी प्रयत्न नहीं करता है, जो कि आत्मा का असली स्वरूप है । यह मिय्यात्व के कारण इस मोक्ष रूप निज स्वरूप को भी 'पर' मानता है और यही मोक्ष तत्व का विपरीत श्रद्धा है। ऐसे उक्त तत्व को मिथ्यादृष्टि जीव विपरीत श्रद्धान करता है। इस प्रकार के प्रार्थ श्रद्धान को अगृहीत मिथ्यादर्शन कहा गया है, क्योंकि यह श्रद्धान इस भव में उसने किसी गुरु आदिक से बुद्धि पूर्वक नहीं ग्रहण किया है, किन्तु अनादि काल से हो लगा हुआ चला आ रहा है इसी कारण इसका दूसरा नाम निसर्गन मिथ्यात्व भी हैं । सातों तस्वों को विपरीत श्रद्धा के साथ साथ जीव के जो कुछ ज्ञान होता है वह अगृहीत मिथ्या ज्ञान कहलाता है । क्योंकि यह मिथ्या ज्ञान भी इस जन्म में किसी गुरू आदि से ग्रहण नहीं किया गया है, किन्तु अनादि काल से ही जीव के साथ चला आ रहा है । इस मिथ्या ज्ञान को अक्लेश दान जानना चाहिये, वास्तव में यह ज्ञान नहीं, किन्तु अज्ञान कुज्ञान ही है। अब अगृहीत मिथ्या चारित्र को लिखते हैं
पद्धरिछंद - इन जुत बिषयनि में जो प्रवृत्त, ताको जानो मिथ्या चरित्त । या मिथ्यात्वादि निसर्ग जंह, अब जे गृहीत सुनिये सु तेह ॥ ८६ ॥
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