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लमसूर.........
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द्वाला
मान मायादि को जीव के वभाविक भाव न मानकर प्रकृति के विकार मानना आदि । भेदा भेद विपर्यास के कारण से कारण को सर्वथा भिन्न या सर्वथा अभि न मानना, यह भेदा-भेद विपर्यास है। क्योंकि यथार्थ में उपादानरूप से कारण के समान ही कार्य होता है, इस अपेक्षा तो कारण से कार्य & अभिन्न है किन्तु पर्याय के बदलने की अपेक्षा कारण से कार्य भिन्न है । इस प्रकार अनेकान्तवाद को 2 दृष्टि से, कारण से कार्ग में कांचित् भेवा-भेद है। सर्वथा नहीं । स्वरूप विपर्यास-रूप रस आदि को & निर्विकल्प या ब्रहम रूप समझना या उन्हें ज्ञान स्वरूप पर्याय मात्र समझना स्वरूप विपर्यास है । मिथ्या दृष्टि जोव कदाचित् शास्त्रों के विशेष अभ्यास से पदार्थों का स्वरूप यथार्थ जान भी ले तो भी उन से सांसारिक बन्ध रूप अभिप्राय की ही सिद्धि करता है, मोक्षरूप साधन की सिद्धि नहीं करता। इसलिए मिथ्यादृष्टि का ज्ञान मिथ्याज्ञान ही कहलाता है, सम्पज्ञान नहीं । सम्यग्दर्शन और सम्यकशान इनकी आराधना भिन्न भिन्न करनी चाहिए। क्योंकि दोनों स्वतन्त्र गुण हैं । सम्यग्दर्शन को आराधना से उसमें उत्तरोत्तर शुद्धि होगी और सम्पज्ञान को आराधना से उत्तरोत्तर ज्ञान को शुद्धि होगी । इसलिए है सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो जाने के पश्चात् सम्यक ज्ञान को प्राराधना करनी चाहिए । सम्यक ज्ञान को ४ शास्त्राभ्यास आदि के द्वारा उसे निरंतर बढ़ाते रहना चाहिये, ऐसा उपदेश दिया है। अब सम्यक् ६ ज्ञान के भेदों का वर्णन करते हैं।
तास भेद दो हैं परोक्ष परतछि तिन मांही, मतिश्रु त दोय परोक्ष अक्ष मनतें उपजांही । अवधि ज्ञान मनपर्यय दो हैं देश प्रतच्छा, द्रव्य क्षेत्र परिमाण लिए जाने जिय स्वच्छा ॥२॥
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