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. अभी तक सयदशम को प्राप्ति नहीं हुई । इसलिए भव्यात्मा को सब से पहले सम्यग्दर्शन धारण ४ करने का प्रयत्न करना चाहिए । इस जीव को जब शुद्ध सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाता है तभी से यह आरमा अंतर आत्मा हो जाता है और परम सुखी हो जाता है, तथा जब तक इस जीव को सम्यग्वशन की प्राप्ति नहीं होती है तब तक यह जीव महातुखी रहता है। इसलिए सम्यग्दर्शन समस्त सुखों का कारण है। भावार्थ-यदि कोई जीव प्रमाण नय निक्षेप का स्वरूप अच्छी तरह जानता हो छंद शब्दालंकार अर्थालंकार नाटक काव्य चरित्र पुराण न्यायालंकार तर्क व्याकरण का अच्छी तरह जानफार हो तथा लौकिक अन्य कार्य में कितना हो निपुण हो तथापि बिना सभ्यग्दर्शन के उसे दीर्घ संसार हो समझना चाहिये, चाहे जैसा विद्वान् क्यों न हो । इसलिए संसार सागर को पार करने वाला एक सम्यग्दर्शन ही है । सम्यग्दर्शन के सिवाय अन्य किसी से भी मोक्ष सुख की प्राप्ति नहीं होती है ।
इस प्रकार सम्यग्दर्शन का वर्णन किया। तीसरी ढाल समाप्त । चौथी बाल में ग्रन्थकार सम्यकज्ञान के धारण करने का उपदेश देते हैं । दोहा-सम्यक् धद्धा धारि पुनि, सेवहु सम्यकज्ञान ।
स्व-पर अर्थ बहु धर्म जुत, जो प्रकटावन भान ॥१॥
अर्थ-सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर फिर सम्यग्जान धारण करना चाहिए । यह सम्यग्ज्ञान अनेक धर्मों से युक्त स्व और पर को और पर पदार्थों को जान कराने के लिए सूर्य के समान प्रकाशदायक है आत्मा को आत्मा से ही आत्मा का ज्ञान करा देता है। जैसे सूर्य अपने आपको प्रकाशित करते हुए अपने से भिन्न अन्य समस्त पदार्थों को प्रकाशित करता है इसी प्रकार सम्यग्ज्ञान भी अपनी आत्मा को और शेष समस्त पदार्थों को प्रकाशित करता है। ये सम्यग्दर्शन और सम्यग्जान एक साथ उत्पन्न