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जाजाल मा को देवस्थान, अब 'दौलत निज आतम सुपाग॥१५॥
___ अर्थ---जो आत्मा स्व और अनात्मा पर के ज्ञान से रहित होकर अपनी ख्याति, यश, कीर्ति छह & अर्थ, लाभ और पूजा प्रतिष्ठा आदि की इच्छा को धारण करके शरीर को जलाने वाली नाना प्रकार वालाल & की क्रियाओं को करते हैं, जिनसे केवल शरीर ही क्षीण होता है, आत्मा का कोई भी उपकार नहीं
होता, उन सब क्रियाओं को गृहीत मिथ्या चारित्र जानना चाहिये । अब संबोधन करते हुए कहते हैं
कि हे आत्मन् ! अब तू इस जगत् जाल के परिभ्रमण को त्याग दे और अपनी आत्मा के हित के & लिए मोक्ष मार्ग में लगजा और अपने आप में रमजा, यही सब कथन का तात्पर्य है । भावार्थ
मिथ्या दर्शन और मिथ्या ज्ञान विद्यमान रहते हुए मनुष्य चारित्र के नाम पर जो कुछ भी धारण करता है, अत, नियम, उपवास आदि करता है, उसे गृहीत मिथ्याचारित्र कहते हैं । जो कि केवल शरीर को १ कष्ट पहुंचाने वालो क्रियाएँ हैं तथा मान, प्रतिष्ठा, यश, कामना, धन, लाभ आदि को इच्छा से जो की जाती हैं जिसमें त्रस स्थावर जीयों को हिंसा होती है । उनसे तो आत्मा हित की कल्पना ही नहीं की जा सकती है, ऐसी क्रियाओं को मिथ्या चारित्र कहा है । पंचाग्नि तप तपने में अगणित अस 8
स्थावर जोधों की हिसा होती है और जटा रखने में जू वगैरह उत्पन्न होती है । शरीर को राख लगाने 8 से या तिलक, मुद्रा धारण करने से मान प्रतिष्ठा आवि की भावना स्पष्ट हो दृष्टिगोचर होती है । नाना & आसन, मृगछाला से भी भाडंबर ही होता है। कोई आत्म का लाभ नहीं होता, इसलिए आत्मज्ञ पुरुषों & ने मिथ्या चारित्र कहा है । यथार्थ में जब तक मनुष्यों को स्व और परका भान नहीं है कि मैं कौन हूं & पर पदार्थ क्या है, मेरा और उनका परस्पर में क्या सम्बन्ध है यह ज्ञान नहीं होने पर पथार्ग लाभ & नहीं होता केवल शरोर को हो पीड़ा पहुंचती है। इस कथन का सारांश यह है कि गृहीत और