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अर्थ-जो शास्त्र एकान्तवाद से दूषित हैं, पंचेन्द्रियों के विषयों के पोषक हैं, हिंसा, झूठ, 8 चोरी और व्यभिचार आघि निद्य कार्यों के पोषक हैं, ऐसे रागादिक सहित खोटे कपोल कल्पित
शास्त्रों का अभ्यास करना, पढ़ना पढ़ाना, सो गृहीत मिथ्या ज्ञान हैं और यह बहुत दुःखों का देने दालाल
वाला है । भावार्थ-प्रत्येक वस्तु का स्वरूप अनेक धमों से युक्त है । प्रत्येक पदार्थ द्रव्य अपेक्षा नित्य है, पर्याय अपेक्षा अनित्य है । परन्तु इस यथार्य रहस्य को न समझकर यदि अज्ञानियों ने पदार्थों को सर्वथा नित्य हो माना है, तो बौद्ध ने सर्वथा अनित्य ही माना है, इस प्रकार के एक धर्ममय पदार्थ के
कथन करने को एकान्तयाव कहते हैं । इस एकान्तवाद के प्ररूपक शास्त्रों को कुशास्त्र कहा गया है । & इस के अतिरिक्त जो बातें विषयों को पोषण करने वाली हैं, जीवों में भय, कामेंद्रिक, हिंसा, अहंकार,
राग द्वेष आदि जागृत करने वाली हैं । उनका जो शास्त्र प्रतिपादन करते हैं, झूठे शब्दों से भरे हुए हैं, झूठी गप्पों से संचित हैं, ऐसे सब शास्त्र कुशास्त्र जानने चाहिएँ । तथा जो शास्त्र इस लोक, पर लोक, प्रात्मा, पुण्य, पाप, स्वर्ग, नरक आदि का ही अभाव बतलाते हैं, वे भी कुशास्त्र है। ऐसे कुशास्त्रों का पढ़ना, पढ़ाना, सुनना, सुनाना, उपदेश देना प्रावि सब गृहीत मिथ्याज्ञान माना गया है। इस मिथ्याज्ञान के प्रभाव से अनेकों जन्मों में करोड़ों कष्ट सहन करने पड़ते हैं । इसलिए इन शास्त्रों के पठन पाठन से दूर ही रहना भव्य जीवों के लिए श्रेयस्कर है। अब आगे मिश्या चारित्र का स्वरूप लिखते हैं :पद्धरि छद-जो ख्याति लाभ पूजादि चाह, धरि करत विविधविध देह दाह ।
आतम अनात्म के ज्ञानहीन, जे ज करनी तन करन छीन ॥१४॥ ते सब मिथ्याचारित्र त्याग, अब आतम के हित पंथ लाग।