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6 किया जाता है उसे गृहीत मिथ्यात्व कहते हैं । इन दोनों ही प्रकार के मिथ्यात्वों में तीन-तीन भेद हैं । 8 अगृहीत मिथ्यावर्शन, अगृहीत मिथ्याज्ञान और अगृहीत मिथ्याचारित्र तथा गृहीत मिथ्यादर्शन, 8
गृहीत मिथ्याज्ञान और गृहीत मिथ्याचारित्र। अब प्रथम अगृहोस मिथ्यादर्शन का वर्णन लिखते हैंपद्धरि छंद-जीवादि प्रयोजनभूत तत्व, सरधे तिन मांहि विपर्ययत्व ।
चेतन को है उपयोग रूप,विन मूरति चिनमूरति अनूप ॥२॥ पुद्गल नभ धर्म अधर्म काल, इनसे न्यारी है जीव चाल। ताको न जान विपरीत मान, करि कर देह में निज पिछान ॥३॥ मैं सुखी दुखी, मैं रंक राय, भेरोधन गृह गोधन प्रभाव ।
मेरे सुत तिय मैं सबल दोन, बे रूप सभग मूरख प्रवीन ॥४॥ अर्थ--जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, मिर्जरा, और मोक्ष थे सात तत्त्व आत्मा के लिये प्रयोजनभूत हैं । अर्थात् इनका जानना अत्यन्त आवश्यक है, बिना इनके जाने किसी को भी अपने -रूप का भान नहीं हो सकता कि मैं कौन हूँ कहां से आया हूं और कहां जाना है, मिथ्यावृष्टि जीव मिथ्यादर्शन के प्रभाव से इन सातों तत्त्वों के स्वरूप का विपरीत श्रद्धान करता है, जैसे आत्मा का स्वरूप उपयोगमयी है, अमूर्त है, चिनमूर्ति है और अनुपम है ! पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और 8 काल, ये जो पांच अजीव तत्त्व के भेद हैं, उनसे जीव का स्वभाव न्यारा है, बिल्कुल भिन्न है । इस पर यथार्थ बात को न समझकर और विपरीत मानकर शरीर में आत्मा को पहिचान करता है, आत्मा ४
को अलग नहीं समझता है और उसी मिथ्यादर्शन के प्रभाव से कहता है कि मैं सुखी हूं, मैं दुःखी हूं, 2 मैं रंक हूँ, मैं राजा हूं, यह मेरा धन है, यह मेरा घर है, यह गाय भैत मेरी हैं, यह मेरा प्रभाव और