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तात इनको तजिये सुजान, सुन तिन संक्षेप कहूं बखान ॥१॥
अर्थ- यह जीव मिथ्या दर्शन, मिथ्याज्ञान, और मिथ्या चारित्र के वश होकर जन्म मरण के दुःख सहन करता हुआ संसार चक्र में परिभ्रमण करता रहता है, इसलिए हे भव्य जीवो! इन तीनों 8 को जानकर छोड़ देना चाहिए । मैं संक्षेप से उनके स्वरूप का व्याख्यान करता हूँ। सो उसे सुनो।
भावार्थ- जीवादि सात तत्वों के स्वरूप का यथार्थ श्रद्धान न करना, सच्चे देवल शास्त्र गुरु के स्वरूप में वास्तविक प्रतंत न करना और अनेकान्तवाद पर विश्वास न लाना, & सो मिथ्या दर्शन कहलाता है । सातों तत्वों का अयथार्थ जानना, एकान्तवादी शास्त्रों का पठन पाठन करना, प्रज्ञान भाव रखना या विषरो माला, दो गिया दान है इन्द्रियों को वश में नहीं करना, विषय कषाय रूप सदा प्रवृत्ति रखना, मन, वचन और काय को नहीं रोकना, 8 जटा जूट धारण करना, मूळ मुंडाना, तिलक छापा लगाना, पंचाग्नि तप तपना, शरीर में भस्म लगाना आदि असदाचरण को मिथ्या चारित्र कहते हैं। इन तीनों के वशीभूत होकर यह जीव पर पदार्थो में इष्ट अनिष्ट बुद्धि धारण कर रागो द्वेषी बनकर कर्म के द्वारा सुख दुःख का अनुभव किया 8 करता है । पर पदार्थों को अपनी इच्छानुसार परिणमता हुआ न देखकर प्राकुल-व्याकुल होता है । मरण समय में हाय-हाय करता हुआ मरण करता है । और दुर्गतियों में जन्म धारण कर अनेक लीला बनाता हुआ कष्टों को सहन किया करता है । भावार्थ--यह मिथ्या दर्शन, मिथ्या ज्ञान और मिथ्या पृष्ठ चारित्र, इन तीनों के समुदाय को सामान्यत: मिथ्यात्व के नाम से पुकारते हैं । यह मिथ्यात्व दो प्रकार 8 २९
है । अगृहीत मिथ्यात्व और गृहीत मिथ्यात्व । जो मिथ्यात्य अनादिकार से जीव के साथ चला आ 3 ल रहा है, उसे अगृहीत या निसर्गज मिथ्यात्व कहते हैं । जो मिथ्यात्व इस भव में जीव के द्वारा ग्रहण