________________
ढालाल
8 जाती है और ऐसा विचार करती है कि यदि मुझे खाकर भी सिंह मेरे बछड़े को छोड़ दे तो अच्छा ४ है । ठीक उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि पुरुष धर्म और धर्मात्मा से ऐसी ही प्रीति करता है और आपत्ति
के समय अपना सर्वस्व न्योछावर करके भी आपत्ति से छुड़ा कर धर्म और धर्मात्मा के साथ बात्सल्य भाव का पालन करता है, जो कि सिद्ध प्रतिमा, अर्हत बिम्ब, जिनालय, चतुर्विध संघ और शास्त्रों में सेवक के समान उत्तम सेवा के भाव रखने को भी वात्सल्य अंग कहा है तथा अहंत बिम्ब 4 जिन-8 मन्दिर आदि पर घोर उमार्ग प्राटि गाने पर उसके दूर करने के लिये सदा तत्पर रहना चाहिए। क्योंकि सम्यग्दृष्टि पुरुष अपनो आत्मिक, शारीरिक, सैनिक आर्थिक और मन्त्र सम्बन्धी शक्ति के रहते हुए जिन बिम्बादिक पर आई हुई आपत्ति उपसर्ग वाधादिक को सह नहीं सकता, न देख सकता है और न सुन सकता है अर्थात् अपनी जैन समाज के प्रति निश्चल भाव रखकर उससे परम स्नेह करना, अपने पत्र के अनुसार तथा योग्य प्रादर सत्कार पूजा प्रशंसा प्रादि करना वात्सल्य अंग है।
यानि जिन शासन में सदा अनुराग प्रीति रखना वात्सल्य अंग है । सम्यग्दृष्टि को अपनो समाज के 8 & साथ, अपने धर्म के साथ और चतुर्विध संघ के साथ परम वात्सल्य रखना चाहिए, इन पर किसी & प्रकार को आपत्ति आदि आने पर तन, मन, धन से उसे दूर करने के लिये सदा उद्यत रहना चाहिए ।
अपने जीते जी अपने धर्म समाज और संघ का किसी प्रकार का अपमान तिरस्कार या विनाश न होने देना चाहिए । ८ प्रभावना अंग--संसार में फैले हुए अज्ञान के प्रसार को मद्ज्ञान के प्रचार व
द्वारा दूर कर सदाचार का आचरण मन्त्र और विद्या आदि के प्रभाव द्वारा जिस प्रकार बने उस प्रकार ४६ 8 से जैन शासन का महात्म्य संसार में प्रकट करना प्रभाषना अंग है । वह आत्म प्रभावना और वाह्य