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अर्थात् मुनियों का २८ मूलगुण रूप व १३ प्रकार चारित्र रूप जो आचरण हैं वह व्यवहार 8 चारित्र है। वही अहिंसा है जब द्रव्य हिंसा टल जाती है तब भाव हिंसा भी नहीं होती है, इसलिये 8 प्रमाद रहित इसी अहिंसा की सिद्धि के लिये अन्तरंग और 'बाह्य परिग्रह को त्याग मूर्या का सर्वथा 8 अभाव कर परम ब्रह्म हसार आत्या की बीटगता रूप अहिंसा जो आत्मा का शुद्ध स्वरूप निरीक्षण करता हुआ राग दोष को दूर कर कुल स्थान, जीव स्थान, यानि स्थान, मागंणा स्थान, षटकाय
स्थान, आयु, इनमें सब जीवों को जानकर उनमें आरंभ करने से परिणामों को हटाने का प्रयत्न करना & प्रथम अहिंसा महावत है । अर्थात् इनमें सब जीवों को जानकर कायोत्सर्गादि क्रियाओं में हिंसा आदि & का त्याग करना उसे अहिंसा महावत कहते हैं । जो कि नग्न दिगंबर स्वरूप हो सध्या अहिंसा मार्ग
का स्वरूप है ये ही प्रथम महावत है। आगे सत्य महाव्रत लिखते हैं
जो साधु राग द्वेष मोह के परिणामों के वश होकर असत्य माषण करता है उसका त्याग ॐ करना द्वितीय व्रत है। यह सत्य प्रत संपूर्ण लोक के जीवों को सुख देने वाली है, सुन्दर सुख से भरपूर समुद्र के समान अगाध हैं।
भावार्थ-जो साधु अतिशय करके सस्य भाव को अंतरंग में जपता हुआ राम देव मोहादि कारणों से दूसरे को संताप बेने, असत्य वचन तथा द्वादशांग शास्त्र के अयं कहने में अपेक्षा सहित वचन या मिथ्याबुद्धि से संसार में मोह के कारण उस मिथ्याभाव की रक्षा के अर्थ असत्य बोलता है
इस प्रकार के असत्य वचन बोलने के परिणामों को त्यागता है, वह मनुष्य परलोक में स्वर्ग को देवांग8 नाओं को मान्य और इस लोक में सज्जनों के द्वारा पूजनीय या आवरणीय होता है। इसलिये
इस सत्य से बढ़ कर दूसरा कोई बत नहीं है । यह बात सर्वथा सत्य है, यही सस्म महावत है । तथा
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