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प्रथम पांच अणुव्रत-१ अहिंसा अणुव्रत-मन, वचन, काय और कृत, कारित अनुमोदना 8 8 से संकल्प पूर्वक त्रस जीवों को हिंसा का त्याग करना और बिना प्रयोजन के स्थावर जीवों का भी 28
घात नहीं करना, सो अहिसा अणुव्रत है। इस बात के धारक श्रावक गृहस्थी के आरम्म आदि से होने वाली हिंसा का त्याग नहीं होता । इसी प्रकार व्यापार आदि के करने में जो आने जाने आदि 8
के निमित्त से हिसा होतो है. गृहस्थ उसका भी त्यागी नहीं होता । शत्रुओं या विपक्षियों के द्वारा 8 अपने या अपने परिवार पर, जिन मन्दिरों पर, असहाय लोगों पर या धर्मात्माओं या धर्मायतनों पर 0 किए गये आक्रमणों को रोकने के लिए, अपना बचाव करते समय, जो विपक्षियों को अपने द्वारा लू हिंसा होती है, गृहस्थ उसका भी त्यागी नहीं होता, क्योंकि गृहस्थ जीवन के निर्वाह के लिए तथा ४ अपनी और अपने धर्म, समाज, पड़ोसो, गांव, देश आदि की रक्षा के लिए उक्त हिसा उसे विवशतापूर्वक करनी पड़ती है।
२ सत्याणुव्रत-दूसरे के प्राण घातक, कठोर और निंद्य वचन नहीं बोलना, सो सत्यःणुव्रत 3 है । इस व्रत का धारी मोटी झूट बोलने का त्यागी होता है, इसलिए यह ऐसा बचन नहीं बोलेगा, & न दूसरे को बुलवायेगा, जिससे कि किसी प्राणी का घात हो, धर्म का घात हो व अपमान हो, कोई
समाज या देश बदनाम हो । ये ही एक बात ध्यान में रखने को है कि इस व्रत का धारी श्रापक सत्याणुव्रत की ओट में ऐसा सत्य भी नहीं कहेगा कि जिससे किसी प्राणी की हिंसा हो जाय, धर्म पर बेश पर या समाज पर कोई महान् संकट या आपत्ति आ जाय ।
३ प्रचौर्याणुव्रत-दूसरे की वस्तु को बिना दिये हुए ग्रहण नहीं करना अचौर्याणुव्रत है । 8 इस व्रतका धारी श्रावक बिमा मालिक को प्राज्ञा के कुए से पानी और जमीन से मिट्टो तक भी न