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लेगा, जिस पर कि feat एक ही
अधिकार या प्रतिबन्ध हो । इसी प्रकार वह किसी की गिरी, पड़ी, भूली या रखी हुई वस्तु को भी न स्वयं लेगा न उठाकर दूसरे किसी को देगा ।
४ ब्रहमचर्याणुव्रत - प्रपनी स्त्री के सिवाय संसार की समस्त स्त्रियों से विरक्त रहना, उनसे किसी प्रकार के विषय भोग की इच्छा नहीं करना, न हँसी मजाक करना, सो ब्रहमचर्य अणुव्रत है। इस व्रत का धारक धावक परस्त्री सेवन में महापाप और घोर अन्याय समझता है । अतएव यह न तो स्वयं किसी अन्य स्त्री के पास जाता है और न किसी दूसरे पुरुष को भिजवाता है। नाम स्वदार सन्तोष भी है ।
इस व्रत का दूसरा
५ परिग्रह परिमाणानुवत — अपनी श्रावश्यकता और सामर्थ्य को देखकर धन धान्य आदि परिग्रह का परिमाण करके अल्प परिग्रह रखना और उस के सिवाय शेष परिग्रह में निस्पृहता रखना, अपनी इच्छाओं को अपने आधीन करना, उसे परिग्रह परिमाण प्रणुव्रत कहते हैं । इस प्रकार पांच अणुब्रतों का स्वरूप कहा ।
अब गुरबतों का वर्णन करते हैं--जो अणुव्रतों का उपकार करे उनकी रक्षा वृद्धि करे उन्हें गुणवत कहते हैं। गुणव्रत के तीन भेद होते हैं-- दिग्बत, देश व्रत, और अनर्थदंड व्रत ।
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१ दिग्बत -- दशों दिशाओं में जाने आने का जीवन पर्यन्त के लिए नियम करके फिर उस को मर्यादा का उल्लंघन नहीं करना, सो दिग्वत कहलाता है। इस दिग्वत के धारण करने वाले पुरुष के अणुव्रत विरत की सीमा के बाहर वाले क्षेत्र में स्थूल वा सूक्ष्म सर्व प्रकार के पापों की निवृत्ति हो जाने के कारण महाव्रत की परिणति को प्राप्त हो जाते हैं । अर्थात् मर्यादा के बाहर वाले क्षेत्र में जाने आने का अभाव हो जाने से इस व्रत वाले पुरुष को यहां किसी प्रकार का पाप नहीं लगता ।
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