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8 मनुष्य इस शारीर से त्रैलोक्य में जो भी वस्तुएँ हैं उन्हें नहीं ले सकता, फिर क्यों न आवश्यकता के 8 अनुसार दशों दिशाओं का परिमाण करके वहां के पाप से बचने का प्रयत्न करे ।
२ देशनत--जीवन पर्यन्त के लिए की हुई विखत की सीमा के भीतर भी प्रति दिन काल को मर्यादा के साप प्राम, नली, गृह, बाग बाजार आदि के प्राश्रय से जाने आने का प्रमाण कर के उसके बाहर नहीं जाना आना, ये देशवत नाम का दूसरा गुणनत है । इस व्रत के धारण करने से यह लाभ है कि प्रति दिन जितनी दूर जाने आने का नियम लिया है उस के बाहर की जितनी समस्त
दिग्यत को सीमा हैं वहां नहीं जाने आने के कारण पांचों पापों का सर्वथा त्याग हो जाता है ! और 8 इस प्रकार उतने क्षेत्र में सहज महाबतों को साधना श्रावक के हो जाती है ।
३ अनर्थ दंड प्रत-जिन कार्यों के करने से श्रावक को कोई आत्मिक लाभ नहीं है ऐसे व्यर्थ 8 के पापों के त्याग करने को अनर्थ वंड आत कहते हैं। ये अनर्थ वंड पांच प्रकार शास्त्रकारों ने अतलाये हैं:-१ अपध्यान, २ पापोपदेश, ३ प्रमायचर्या, ४ हिसा दान, ५ दुःश्रुति ।
१ अपध्यान-अनर्थदंड-वेष से किसी के धन की हानि सोचना, राग से किसी के धन का & लाम सोचना, किसी को जीत और किसी को हार विचारना, सो प्रथम अपध्यान नामक अनर्थ वंड & है । अमुक पुरुष की स्त्री बहुत सुन्दर है, अमुक बहुत बदमाश है इत्यादि। इस प्रकार राग-द्वेषमयो & बुरे विचार इसी अनर्थदंड के अन्तर्गत जानना चाहिए । २ पापोपदेश-खेती व्यापार आदि आरम्म
समारम्भवर्णक पाप कार्यों का उपदेश देना, पायोपदेश नाम का अनर्थ दंड है। ३ प्रमावर्या-बेकार & पृथ्वी खोदना, पानी ढोलना, प्राग जलाना, पंखा चलाना, वृक्ष बेल प्रादि काटना, कटवाना और
निष्प्रयोजन इधर उधर दौड़ना, घूमते फिरना, सो प्रमादचर्या नामका अनर्यवंश है। ४ हिंसा दान
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