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छह
ढालाई
शरीर के विनाश के साथ ही हो जाना निश्चित है, फिर मैं पर संयोग से उत्पन्न हुई क्षण भंगुर वस्तुओं का क्या अभिमान करूँ ? इन वस्तुओं को मैंने पूर्व भावों में अनन्त वार पाया है और उनका अहंकार कर करके श्राज फिर परिभ्रमण कर रहा है। जिस बल, वैभव और ऐश्वर्य आदि के मद से प्रेरित होकर मैंने बड़े बड़े युद्ध किये, दूसरों को नीचा दिखाया और स्वयं अभिमान के शिखर पर चढ़ा उन बल वैभवों का आज पता तक नहीं है, फिर इस भव में कर्मोदय से प्राप्त इस आकिंचन क्षणभंगुर और तुच्छ संपदा को पाकर क्या गर्व करूँ ? जाति और कुल के भवों से प्रेरित होकर आज मैं जिन्हें नीच और अछूत कहता हूँ, कौन जानता है कि कल मुझे स्वयं उनमें जन्म लेकर बैसा न बन जाना पड़े, अथवा इससे पहले अनेकों बार मैं स्वयं नीच योनियों में उत्पन्न हुआ हूँ । स्वर्ग का महद्धिक देव भी मर कर क्षण में एकेन्द्रिय जीवों में आकर उत्पन्न हो जाते हैं । फिर मैं जाति और कुल का मदं क्यों करूँ ? ऐसे विचारों के कारण सम्यग्दृष्टि जीव आठों मदों में से किसी का भी मद नहीं करता है । जो जीव गर्ग से युक्त होकर अपने अहंकार से अन्य धर्मात्मा जनों का तिरस्कार या अपमान करता है, यह उस व्यक्ति का अपमान नहीं करता है, किन्तु धर्म का अपमान करता है । क्योंकि धर्नात्माओं के बिना धर्म ठहर नहीं सकता। इसलिए ज्ञानी पुरुष को किसी प्रकार अहंकार नहीं करना च. हिए। आगे छह अनायतनों और तीन मूढ़ताओं का वर्णन करते हैंकुगुरु कुदेव कुबुषसेवक की नह, प्रशंसा उचरे है । जिनमुनि जिनश्र ुत विन कुगुराविक, तिन्हें न नमन करें है
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अर्थ – कुगुरु, कुदेव, कुधर्म, कुगुरु क्षेत्रक, कुदेव सेवक और कुधर्म सेवक इन छहों की स्तुति प्रशंसा आदि करने से छह अनायतन नामक दोष उत्पन्न होते हैं। इसलिये सम्यष्टि पुरुष इन को