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& प्रशंसा आदि नहीं करता है। इसी प्रकार वह जिन मुनि, जिन शास्त्र और जिनदेव के सिवाय अन्य ४ 8 कुगुरु आवि को भय, आशा, स्नेह, लोभ, आदि किसी भी निमित्त से नमस्कार विनय आदि नहीं & करता है । यहां तीनों मूढ़ताओं का विस्तृत वर्णन पहिले अमूढ दृष्टि अंग में कर ही आये हैं । अब 8 ला. सभ्यग्दर्शन का माहात्म्य बतलाते हुए लिखते हैं
दोषरहित गुनसहित सुधो जे, सम्यकदरश सजे हैं। चरितमोहवश लेश न संयम, पै सुरनाथ जज हैं । गेही पै गृह में न रचे ज्यों, जलमें भिन्न कमल है । नगरनारिको प्यार यथा, कादे में हेम अमल है ॥१५॥
अर्थ-जो बुद्धिमान पुरुष २५ दोषों से रहित और आठ अंगों से सहित सम्यग्दर्शन को धारण करते हैं उनके चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से लेशमात्र भी संयम न हो तो भी देवों का स्वामी
इन्द्र उनकी पूजा करते हैं। इस प्रकार के प्रति सम्यग्दृष्टि जीव गृहस्थ घर में रहते हैं तो भी ॐ & उसमें लिप्त नहीं होते, अनासक्त होकर ही घर गृहस्थी का सब कार्य करते हैं। जैसे कमल जल में 3 & रहता हुआ भी उसमें लिप्त नहीं होता, किन्तु भिन्न हो रहता है, जैसे वैश्या का प्यार आगन्तुक पर 8 ऊपरी ही रहता है, भीतरी नहीं तथा जिस प्रकार कीचड़ में पड़ा हुआ सोना ऊपर से ही मैला होता & है पर भीतर तो निर्मल रहता है। इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव घर में रहते और भौगोपभोग को भोगते हुए भी उन सब से अलिप्त रहता है । आगे सम्यग्दर्शन को और भी महिमा लिखते हैं
प्रथम नरक विन षट भू ज्योतिष, वान भवन षंढ नारी । थावर विकलत्रय पशुमें नहि, उपजत साप कित-धारी ॥