________________
छह
ढाला
तीनलोक तिहुंकाल माहिं नहि, दर्शनसम सुखकारी । सकलधरमको मूल यही इस बिन करनी दुखकारी ॥ १६ ॥
अर्थ- सम्यग्दृष्टि जीव प्रथम नरक के बिना नीचे के छह नरकों में उत्पन्न नहीं होता है। भवन वासो, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में भी उत्पन्न नहीं होता है तथा सब प्रकार की स्त्रियों में अर्थात् तिर्यंचनौ, मनुष्यनी और देवांगनाओं में भी उत्पन्न नहीं होता है, स्थावर, विकलत्रय और पंचेन्द्रिय पशुओं में भी उत्पन्न नहीं होता है, तीन लोक और तीनों कालों में सम्यग्दर्शन के समान सुखकारी वस्तु नहीं है । समस्त धर्म का मूल यह सम्यग्दर्शन ही है। इस सम्यग्दर्शन के बिना समस्त क्रियाओं का करना केवल दुःखदायक हो है । भावार्थ - यदि सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के पश्चात् जीव के परभव संबन्धी आयु का बंध होता है तो मनुष्य और देवायु का ही बन्ध होता है । इसलिए वह न किसी नरक में जाता है और न किसी प्रकार के तिर्यंचों में ही पैदा होता है, किन्तु जिस जीव के सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होने के पूर्व ही नरक तिर्यच आयु का बंध हो जाता है तो उसे उस गति में तो नियम से जाना ही पड़ता है । परन्तु नरक में वह प्रथम नरक से नीचे नहीं जाता है और तियंचों में भी वह भोग भूमि के असंख्यात वर्ष की आयु वाले पुरुष वेदी तिथंचों में ही जन्म लेता है, एकेन्द्रिय विकलत्रय कर्म भूमि के पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में नहीं । मनुष्य गति में यदि वह उत्पन्न हो तो या तो भोग भूमि का पुरुष वेदी मनुष्य ही होगा या कर्मभूमिका महान् पराक्रमी, लोकातिज्ञायो, बल वीर्य का धारक मानव तिलक होगा, किन्तु दरिद्री, होनांगी, विकलांगी, रोगी, शोको और अल्पायु का धारक नहीं होगा । इसी प्रकार देवगति में भी भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और हीन जाति के कल्पवासियों में उत्पन्न नहीं होगा । और इसके प्रभाव से नौ और चौदह रत्नों का स्वामी चक्रवतिपद प्राप्त होता
१ पृष्ठ
(६६