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छह
ढाला
पिता भ्राता, इन्द्रियों के भोगों में और धन-सम्पत्ति में करता है वैसा स्नेह यदि वह जिनेन्द्रदेव प्रतिपादित धर्म में करता तो लोला मात्र में सच्चे सुख को प्राप्त कर लेता । किन्तु यह महान् दुःख की बात है कि मनुष्य सांसारिक सम्पत्ति को चाहता है परन्तु सच्चे धर्म का प्रावर नहीं करता । जिस धर्म के प्रसाद से अत्यन्त दुर्लभ मोक्ष सुख प्राप्त हो सकता है उससे सांसारिक सम्पदाओं का मिलना कौन सा कठिन कार्य है ? ऐसा जानकर विवेकी पुरुषों को सदा जिन धर्म की आराधना करनी चाहिए । इस सत्य धर्म के प्रभाव से एक तियंच भी मर कर उत्तम देव हो जाता है। चाण्डाल भी देवेन्द्र बन जाता है । इस धर्म के प्रसाद से अग्नि शोतल हो जाती है । सर्प पुष्प (फूल) माला बन सकता है । और देवता भी किंकर बन कर सदा सेवा करने को तैयार रहता है। तीक्ष्ण तलवार भी पुष्पों का हार बन जाता है, अग्नि कुण्ड भी जल कुण्ड हो जाता है । दुर्जय शत्रु भी अत्यंत हितैषी मित्र न जाता है, हलाहल विष भी अमृत बन जाता है महान् विपत्ति भी सम्पत्तिरूप परिणत हो जाती है, बन भी नगर बन जाता है, भयंकर उपसर्ग भी स्वतः स्वभाव दूर होकर दिव्य
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ध्वनि खिरने लग जाती है । किन्तु धर्म से रहित देव मी मरकर मिध्यात्व के बा एकेन्द्रियों में उत्पन्न होता है और धर्म से रहित चक्रवति भी महा आपदा के घर सप्तम नरक में पड़े पड़े महादुःख सागरों तक भोगता है । इस प्रकार धर्म और अधर्म के फल प्रत्यक्ष देखकर हे भव्य जीवों ! अधर्म को दूर से ही परिहार करो और सब सुख का दाता धर्म का सदा सेवन करो या आराधना करो, ऐसा विचार करना सो धर्म भावना है।
इस प्रकार बारह भावनाओं का सदा चितवन करने से मनुष्य का वित्त संसार बेह और भोगों से विरक्त हो जाता है, पर पदार्थों में अनुराग नहीं रहता और आत्म स्वरूप की प्राप्ति के लिए वह