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& हुए आहार ग्रहण करना भ्रामरी वृत्ति है। इस प्रकार आहार को विनि जानता हुआ साधु अपने कान
& ध्यान और तपश्चरण अध्ययन करने में लीन , नो आहार मिल गया, भक्ति पूर्वक जिसने जो सात 8 छह 8 गुणों से युक्त.शुभ आहार दे दिया, उसी को ग्रहण कर लेते हैं वे मुनि अवश्य ही मोक्ष मार्ग में लीन &
रहते हैं। जो मुनि दूसरे के ऐडवर्य को सहन नहीं कर सकते हैं, केवल मिव्हा स्वाद की पूर्ति करने के लिए अपनी प्रशंसा करता है उस साधु को सम्यमत्वादि गुण रहित समझना चाहिए। इस प्रकार सब मिला कर २८ मूल गुण साधु के होते हैं। जिनका पालन करना प्रत्येक विगंबर साधु के लिए अत्यन्त आवश्यक माना गया है, जो दिः उक्त गुणों में एक मुसको कमी होने पर मुनि अपने मुनिपने से गिरा हुआ माना जाता है। यहां कुछ आचार्यों ने तेरह प्रकार चारित्र माना है। उसका अभिप्राय पांच महावत, पांच समिति और तीन गुप्ति ऐसे त्रयोदश प्रकार चारित्र है। इस अभिप्राय से तीन गुप्तियाँ यहां वर्णन को है, इनका पालन करना सफल संयमी के लिए अति आवश्यक है । जो कि मन की चंचलता को रोक कर उसे स्थिर करना, मनो गुप्ति है। वचन को शुभाशुम प्रवृति को रोक कर निर्दोष मौन धारण करना सो वचन गुप्ति है, शरीर को गमनागमन हलन चालनादि समस्त प्रवृत्ति को रोक कर किसी एक आसन से स्थिर रहना सो काय गुप्ति है । इस प्रकार मन वचन काय की समस्त प्रवृत्तियां ध्यान अवस्था में ही एक अन्तर मुहूर्त मात्र के लिए रोकी जा सकती हैं । अतएवं प्रन्थकार ने बड़े सुन्दर शब्दों में उसी ध्यान अवस्था का वर्णन करते हुए कहा है कि ध्यान अवस्था में साधु अपने मन वगन काय को क्रियाओं को रोककर इस प्रकार सुस्थिर हो जाते हैं कि हरिण
आदि जंगली जानवर अन्हें पाषाण को मूति समझ कर उनसे अपने शरीर की खुजली को खुजलाने 8 लगते हैं । साधुओं की ऐसी शान्त और स्थिर वशा सचमुच प्रशंसनीय एवं वन्दनीय है । सकल