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काला
& चारित्र के धारक मुनि इन्द्रियों के विषयों से विरक्त, ज्ञान, ध्यान अध्ययन तप में लोन, आत्म स्वरूप 8 & का जानकार, वे अपने आत्म तत्त्व को पर तत्त्व से भिष जानने वाला, स्व समय में रत, अपने शुद्ध
स्वभाव में स्थिर, रत्नत्रय का धारी शुद्ध सम्यग्दृष्टि, वाह्य अभ्यन्तर दो प्रकार के परिणह से रहित, सदा शुद्धोपयोग में लोन, मूल गुण और उत्तर गुणों को पूर्ण रीति से पालन करता हुआ, संयम रत्न को रक्षा करने में कुशल, ऐसे मुनियों के तीन भेद हो जाते हैं। जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र तप और वीर्य ऐसे पांचों आचारों से परिपूर्ण हैं, जो पंचेन्द्रिय रूपो मदोन्मत्त गजराज के मद का दलन करने वाले
है और सर्व मुनियों के गुणों में गंभीर है, यही आचार्य सोस, पज्योत और अाईस मूल गुणों के & धारक होते हैं। तथा जो रत्नत्रय से युक्त हैं, जिनेन्द्र भगवान् प्रणोत पदार्थों के उपदेशक हैं, इच्छा & रहित भाव सहित हैं ग्यारह अंग चौदह पूर्व सर्व श्रुत के पाठी हैं, पठन पाठन में समर्थ हैं और & आत्म ज्ञानी है वे उपाध्याय कहे जाते हैं, भव्य कमलों के लिए सूर्य ऐसे उपदेश दाता उपध्यायों को
निस्य बारंबार वन्दना करता हूँ। जो सर्व व्यापार से रहित है, चार प्रकार को आराधना में सदा लोन हैं, निग्रन्थ, बाह्य अभ्यन्तर सर्व परिग्रह से रहित, नृसिंह कर्म रूपी अंजन से रहित होने वाले, निर्मोही मुक्ति स्त्री के प्रेमी हैं, उन्हीं के गुणों को ग्रंथकार पद्य द्वारा कहते हैं, क्योंकि उसके बिना सकल संयम अधूरा ही रह जाता है।
तप तप द्वादश धरै वृश रतनत्रय सेवे सदा । मुनी साथमें वा एक विचरै चहैं भवसुख कदा।। यों है सकल संयम चरित सुनिये स्वरूपाचरण अब । जिस होत प्रगटै आपनी निधि मिट पर की प्रवृति सब ॥७॥