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मनुष्य गति के दुःखों को लिखते हैं:
चौपाई — जननी उदर
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बस्यो नवमास, अंग सकुचते पाई त्रास | निकसत जे दुख पाये घोर, तिनको कहत न आवे ओर ।। १४ ।। बालपने में ज्ञान न लह्यो, तरुण समय तरुणी रत रह्यो ।
अर्द्ध मृतक सम बूढ़ा पणो, कैसे रूप लखे आपणो ॥ १५॥
अर्थ – मनुष्य पर्याय का पाना, जैसे बालू के समुद्र में गिरी हुई हीरे की कणी को पुनः प्राप्त करना । इस प्रकार के अति दुर्लभ मनुष्य भय को पाने के बाद भी अनेकों जीव तो गर्भावस्था में ही मृत्यु को पा लेता है। यदि भाग्योदय जीवित बाहर निकल भी आया तो बाल्यावस्था में उत्पन्न होने वाले सैंकड़ों रोगों से ग्रस्त होकर जोवन मरण के संशय में झूलता रहता है। यदि भाग्यवश से बिमारी आदि से किसी प्रकार बच भी गया, तो खेलकूद में ही लगातार लगा रहता है, तब विद्याभ्यास से वंचित रह गया और खोटी संगति में फंस गया, जिससे युवा अवस्था आने पर भी स्त्री आदि भोगों में मस्त रहा, तो कभी जुआ खेलने, मांस खाने, चोरी करने, शिकार खेलने आदि दुर्व्यसनों में पड़कर अपना जीवन व्यर्थ कर दिया, धोरे धीरे वृद्धावस्था आ गई और शारीरिक एवं मानसिक चिन्ताओं से ग्रस्त होकर जर्जरित हो गया तथा क्षीण शक्ति होकर पराधीन हो गया, जहां पुत्रादिक भी अवहेलना करने लगते हैं । और भर्त्सना या तिरस्कार करते हैं, जिन पुत्रों को बालपने में बड़े लाड़ प्यार से लालन पालन कर शादी आदि की थी; वे हो घुड़कियां देकर कहने लगते हैं चुप रहो एक तरफ बंठ जावो; तुम्हारी बुद्धि वृद्ध हो गई है। मारी गई है; तुम साठे न साठे हो गये तथा इस वृद्धावस्था में शरीर की क्षीण शक्ति हो जाने से मनुष्य चलने तक से भी असमर्थ हो जाता है; उठना बैठना
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