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कठिन हो जाता है, अंग-अंग संकलित हो जाते हैं, मांस राशि सूख कर नसा जाल झलक जाते है, वृष्टि मन्ब हो जाति है, वांत गिर जाते हैं, मुंह में से लार बहने लगती हैं, सुनने में शब्ब समझ में आते हैं, मनी बढ़ जाती है, नाक बहने लगती है, सूत्र के बुहाव शुरू हो जाता है, कफ गिरने लगता है, श्वास, सवा भरा रहता है. कई गूंगे या बहरे बन जाते हैं। जब ऐसी अवस्था को कवि ने अर्द्धमृतक बुढ़ापा बताया है यह बिल्कुल ठीक हो कहा है । जब मनुष्य पर्याय के तीनों को यह दशा है तब फिर यह जीव अपनी प्रात्मा का यथार्थ स्वरूप कैसे देख सकता है, अर्थात् कभी नहीं । कहने का सारांश यह है कि जो बचपने में निरन्तर विद्याभ्यास " करता हुआ बालक सद्ज्ञान का उपार्जन करता हुआ स्याप पूर्वक धन उपार्जन कर सत्कार्य में उसको उपयोग करता हुआ वान, पूजन, शील, संयम आदि यथाशक्ति पालन करते हुए रात दिन संसार देह मोगों से उदासीन रहता है और पुण्य पाप के फल में हर्ष विवाद नहीं करता है और निरन्तर आत्म स्वरूप के चित्तवन में लगा रहता हैं, यह मनुष्य का सार है ! अन्यथा जो काल के संस्कारवश आहार, भय, मैथुन और परिग्रह संज्ञा में फंसकर न्याय, अन्याय, को कुछ नहीं गिनता हुआ अपनी स्वार्थमयो वासनाओं को पूरा करने के लिए दूसरे के धन का अपहरण, झूठ बोलना, पराई स्त्री से दुराचार करना और समय आने पर दूसरे का कंठ काटने से भी नहीं चूकना, इन कारणों से अपने पन को भूल जाना कि मैं कौन हूं, कहां से आया हूं और कहां जाऊंगा, मेरा क्या स्वरूप है, मुझे क्या प्राप्त करना है, और उसकी प्राप्ति में कौन मार्ग चलना, वा उसके साधन कौन से हैं? इस प्रकार मनुष्य के हृदय में उक्त विचार जब तक जागृत नहीं होते हैं, तब तक यह आत्मा उन्नति की तरफ कैसे अग्रसर हो सकता है । इस प्रकार प्रमादवश मोह निद्रा को
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