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छह ढाला
अर्थात्---जो उत्तम आत्मा है वह अपने से भिन जो अर्हन्त सिद्ध परमात्मा की आराधना करके उन्हीं के समान परमात्मा हो जाता है, जैसे दीपक से भिन्न तेल बत्ती भी दीपक की आराधना करके दीपक स्वरूप हो जाती है। ऐसे ही यह आत्मा अपने चिद् स्वरूप को हो आत्म स्वरूप से आराधना करके परमात्मा हो जाता है । वया बॉस का पूरा करने को अपने से ही रगड़ कर न रूप हो जाता है । उसी प्रकार यह श्रात्मा आत्मा के आत्मीय गुणों की आराधना कर परमात्मा बन जाता है । जैसे बांस के वृक्ष में अग्नि शक्ति रूप विद्यमान होती है और अपने ही बांस रूप के साथ संघर्षण का निमित्त पाकर अग्नि प्रकट हो जाती है । ऐसे ही आत्मा में भी पूर्ण ज्ञानादि गुण शक्ति रूप से विद्यमान होते हैं वे प्रात्मा का ग्रात्मा के साथ संघर्षण होने से प्रकट हो जाते हैं उस संघर्षण से ध्यान रूपी अग्नि प्रकट होकर कर्म रूपो ईंधन को जला देती है तब ही वह आत्मा परमात्मा बन जाती है, जिस पद से फिर लौटना नहीं होता है, पुनः जन्म लेकर संसार में भ्रमण करना नहीं पड़ता ।
आगे रत्नत्रय का फल बतलाते हुए लिखते हैंमुख्योपचार दुभेद यों बडभागि रत्नत्रय घरें । अरु धरेंगे ते शिव लहैं तिन सुजस जल जगमल हरें ॥ इमि जानि आलस हानि साहस ठानि यह सिख आदरो । जबलौं न रोग जरा गहै तबलौं जगत निज हितकारो ॥१४॥
अर्थ - जो भाग्यशाली जीव पूर्वोक्त प्रकार से निश्चय और व्यवहार रूप दो प्रकार के रत्नत्रय को धारण करते हैं, तथा आगे धारण करेंगे ये जीव नियम से मोक्ष को प्राप्त करेंगे । उनका