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॥ ॐ नम: सिद्धेभ्यः ॥ अथ छहढाला भाषा वनिका प्रारम्भ ।
तीन भुवन में सार, वीतराग विज्ञानता ।
शिवस्वरूप शिवकार, नमो त्रियोग सम्हारिक ॥१॥
अर्थ-तीनों लोकों में बोतराग परम-विज्ञानता ही सार है, वही कल्याण स्वरूप है, और २ मोक्ष को देने वाली भी वही है, ऐसा परम विज्ञान धन वीतरागता को मन, वचन और काय ये तोनों 8 8 योग लगाकर के प्रणाम करता हूँ। भावार्य- यद्यपि प्रत्येक वस्तु अपने स्वरूप को अपेक्षा सार युक्त
स्वतन्त्र है, तथापि प्रयोजनभूत मार पदार्थ है, जो संसार के राग-द्वेष रूपो भयंकर ज्वाला में निरन्तर जलते और असहा वेदनाओं को सहते हुए सब प्राणियों के उद्धार करने में समर्थ और राग-द्वेष रहित २ ज्ञान राज को वीतराग ज्ञान कहते हैं । यह जान चार घातिया कर्मों के नाश होने और अरहंत दशा
प्रकट होने पर उत्पन्न होता है। मारमा राम को एक बार इस ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर अनन्त २ काल तक यह आत्मा स्थायी मना रहता है, इसलिए इस ज्ञान को सार कहा है । वह वीतराग विझानता
आनन्द धन शिव स्वरूप कल्याणकारी मोक्ष रूप है, इसलिए तीनों लोक में सर्वोत्कृष्ट सारभूत केवलज्ञान 8 ३ को प्रन्थकार ने मन, वचन और काय को शुद्ध करके नमस्कार किया है। यहाँ ग्रन्यकार पं० दौलतराम जो 3 २ ग्रन्थ रचना का उद्देश्य बतलाते हुए संसार के अनन्तानन्त प्राणियों को हार्दिक इच्छा को प्रकट करते हैं :चौपाई-जे त्रिभुवन में जीव अननन्त, सुख चाहे दुख ते भयवन्त ।
ताते दुखहारी सखकार, कहें सीख गरु करुणा धार ॥२॥
अर्थ--तीनों लोकों में जितने अनन्त जीव हैं, वह सब सुख शहते हैं और दुख से भयभीत है, इसलिये श्री गुरुदेव करुणा भाव धारण करके दुःख को हरने वाली और सुख को करने बालो