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0 उत्तम शिक्षा को देते हैं । भावार्थ-संसार में प्रत्येक प्राणी मुख को चाहता है और दुख से दूर भागता
है, क्योंकि यथार्थ में सुख आत्मा का स्वभाव है, और अपने को सामर्थ्यहीन समझकर साथ साथ अपने को दुखो मानने लगता है। इस मिथ्या मान्यता को भ्रान्ति को दूर करने के लिए प्राणीमात्र के बिना कारण परम हितोपदेशी श्री गुरुदेव करुणा भाव से प्रेरित होकर परम समता शान्ति को पाने के लिए सन्मार्ग दिखाने वाली उत्तम शिक्षा रूप सदुपदेश में जीव को संसार परिभ्रमण का कारण दिखलाते हैंचौपाई- ताहि सुनो भवि मन थिर आन, जो चाहो अपना कल्यान ।
मोह महा मद पियो अनादि, भूल आपको भरमत वादी ॥ ३॥ अर्थ--प्रन्थकार भव्य जीवों को संबोधन करते हुए कहते हैं कि हे भव्य जीवों! यदि तुम अपना कल्याण चाहते हो तो उस परम पवित्र दुःखहारी और आत्मा को सुखकारी शिक्षा को मन स्थिर करके सूत्रो। यह जीव अनादि काल से मोह रूपी महामद को पान कर अपने आत्मा, को भूल कर उस मोह मदिरा से उन्मत्त होकर व्यर्थ इधर उधर धार गति रूप संसार बनी में भ्रमण कर रहा है और स्व स्वरूप भूल रहा है । पद्यपि आत्मा का स्वभाव अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन आदि गुणों का भंडार है, किन्तु अनादि काल से मोह को लहर से राग द्वेश के जाल में फंसकर अपने स्वरूप को
भूला हुआ है, मैं कौन हूँ, मेरा क्या स्वरूप है, मुझे कौन कार्य करना है, और कौन सा मार्ग मेरे & लिए हितकर है, जिसमें लगातार लगू । ऐसा विचार होने पर श्री गुरु कहते हैं कि हे भव्य ! यदि तू
अपना कल्याण चाहता है तो अपना मन स्थिर करके उस शिक्षा को सुन । भावार्थ- जो श्रावक या पति इस जनन्द्र प्रणीत सिद्धान्त शास्त्र शिक्षा को श्रवण कर धारण करता है वह थोड़े ही काल में
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