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छह
तामा
इस अंग के प्रभाव से सम्यग्दृष्टि जीव १ इहलोक भय, २ परलोक भय, ३ वेदना भय, ४ अन्त्रारण भय, इस ५ अगुप्ति भय, ६ मरण भय, ७ और आकस्मिक भय, इन सात भयों से विमुक्त हो जाता है । लोक संबंधी परिस्थितियों से घबड़ाने को इहलोक कहते हैं । मेरे इष्ट वस्तु का वियोग न होवे, और अधिक संगोष होये, देव कभी दरिद्र न बना देवे इत्यादि अनेक प्रकार को मानfor चिन्ताओं से जैसे मिथ्यादृष्टि जोव चिन्तित रहता है, उस प्रकार सम्वग्दृष्टि चिन्तित वहीं रहता परभव संबन्धी क्योंकि वह तो इस लोक संबन्धी समस्त वस्तुओं को पर और विनश्वर मारता है । पर्याय से भयभीत होने को परलोक भय कहते हैं इस भय के कारण जीव सदा उद्विग्न रहता हुआ सोचा करता है कि न मालूम में मर कर किस गति में जाऊँगा ? मेरा स्वरों में ही जन्म हो, नरकादि दुर्गति में मेरा जन्म न हो । परन्तु सम्यग्दृष्टि पुरुष इस भय से बिलकुल विमुक्त रहता है, क्योंकि वह जब मेरा जीवन पवित्र है तो मैं जानता है कि दुष्कर्म का फल परलोक में दुर्गति का कारण है । दुर्गति में क्यों जाऊँगा ? शरीर की पीड़ा रोग व्याधि और मानसिक चिन्ता आदि की पीड़ा से भय भीत होने को वेदना भय कहते हैं । इस भय के कारण जीव सोचा करता है कि में निरोग बना रहूं, मेरे कभी कोई वेदना न हो। पर सम्यग्दृष्टि तो अपनी आत्मा को सर्व प्रकार की आधि व्याधियों से रहित मानता है और इसलिए उसे वेदना भय नहीं होता । मेरा कोई रक्षक नहीं, मुझे इस आपत्ति अपने और से बचाने वाला कोई नहीं, इस प्रकार के अरक्षा संबन्धी भय को अत्राण भय करते हैं । अपने कुटुंब आदि की रक्षा के उपायभूत दुर्ग, गर्भालय, गढ़, कोट आदि के अभाव से उत्पन्न होने बिजली का गिरना, वाले भय को अगुप्ति भय कहते हैं। मौत से डरने को मरण भय कहते हैं । भूकंप का होना आदि आकस्मिक कारणों से जो भय होता है उसे आकस्मिक भय कहते हैं ।
सभ्य
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