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. 'दृष्टि जीव यथार्थ वस्तु स्वरूप को जानने के कारण इन सब भयों से मुक्त रहता है । २ निःकांक्षित
& अंग- धर्म सेवन करते हुए उसके फल से इस जन्म में लौकिक विभव-संपत्ति आवि की इच्छा न छह & करना और परभव में नारायण, बलभद्र चक्रवर्ती, मंडलेश्वर, राजा आदि होने की इच्छा न करना, &
भोगों को अभिलाषा न करना निःकांक्षित अंग है । सांसारिक सुख भोग आदि कर्म के परवश हैं, अन्त करके सहित हैं, सांसारिक और मानसिक दुःखों से जिसका उदय व्याप्त है, और पाप का बीज है, ऐसे सुख की इच्छा न करना हो श्रेष्ठ है । इस प्रकार के विचार जागृत हो जाने से सम्यादृष्टि इह
लोक और परलोक संबन्धी भोगोपभोगों की आकांक्षा से दूर रहता है। ३ निविचिकित्सा अंगल यह है कि यह शरीर स्वभाव से ही अपवित्र है, किन्तु रत्नत्रय के धारण करने से पवित्र माना जाता & है. अतएव रत्नत्रय के धारक साधु-सन्तों के शरीर को मैला कुचला देखकर ग्लानि नहीं करना और
उनके मुषों में प्रीति करा लिपिकिरपा कहलाती है । भूख, प्यास, शौत, उष्ण आदि नाना प्रकार
के भावों के विकृतिकारक संयोगों के मिलने पर भी चित्त को खिन्न नहीं करना और मलमूत्रादि पदार्थों 8 में वस्तु स्वभाव को विचार कर ग्लानि नहीं करना भी निर्विचिकित्सा अंग हैं, सम्यग्दृष्टि पुरुष रोमी 8 शोको एवं मलीन पुरुषों को देखकर उससे घृणा नहीं करता है, बल्कि उसकी वयावृत्य करने को तैयार
होता है । ४ अमूढ़ दृष्टि प्रग - लौकिक प्रपंच वर्धक रूढ़ियों में कुवेव, कुशास्त्र, कुगुरु और कुधर्म & में सपनी दृष्टि को मूढ़ता रहित करना कुमार्ग और कुमार्ग पर चलने वाले पुरुषों की मन वचन काय
से अनुमोदना, प्रशंसा, सराहना न करना सो अमूढ़ दृष्टि अंग है । इस अंग के धारक सम्य© दृष्टि पुरुष को लोक मूढ़ता, देवमूढ़ता और गुरु मूढ़ता ये तोनों मूढ़ताएँ अवश्य छोड़नी चाहिएँ । धर्म
मानकर नदी, समुद्र, गंगा, यमुना, गोदावरी आदि में स्नान करना, बालू पत्थर वगैरह के ढेर लगाना