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हाल
अपवित्र समझ कर उसमें राग भाव नहीं करता है, किन्तु अपने वर्शन, ज्ञान और चारित्र का सुख- 8
जनक निर्मल और नित्य समझता है उसके कर्मों को महान निर्जरा होती है। जो अपने आपको 3 छहा तो निन्दा करता है और गुणीजनों को सदा प्रशंसा करता है, अपने मन और इन्द्रियों को अपने
वश में रखता है और आत्म स्वरुप के चिन्तवन में लगा रहता है उसके कर्मों की भारी निर्जरा होतो है। जो समभाव में तल्लीन होकर आत्मस्वरूप का निरन्तर ध्यान करते हैं तथा इन्द्रियों और कषायों को जीतते हैं उनके कर्मों को परम उत्कृष्ट निर्जरा होतो है, ऐसा जानकर सदा तपश्चरण को करते हुए प्रात्म-निरत होना चाहिए ऐसा विचार करना सो निर्जरा भावना है । अर्थात् जो अन्तर 8 आत्मा शुद्ध सम्यग्दृष्टि स्व समय और पर समय को जानकर पर समय को तजता है और जो अपने 8 शुद्ध स्वभाव में स्थिर रहता है उनके ही फर्म को निर्जरा होती है अर्थात् जो आत्मा इन दोनों प्रकार के 38 स्वरूप को जानता है इनके द्रव्य रूप असंख्यात प्रदेशों को जानता है, इनको दररूप से जानता है इनके समस्त गुणों को जानता है स्वभाव विभावों को जानता है, और इनको समस्त पर्यायों को जानता है ऐसी आत्मा कर्मों की निर्जरा करता हुआ मोक्ष तक जाने वाले मार्ग का नायक समझा जाता है वही आत्मा समय पाकर परमात्मा बन जाता है। प्रागे लोक भावना का स्वरूप लिखते हैं
किन ह न करयोन धरै को, षटद्रव्यमयी न हर को ।
सो लोकमाहिं बिन समता, दुख सहै जीव नित शमता ॥१२॥
अर्थ-छह द्रव्यों से भरे हुए इस लोक को न किसी ने बनाया है, न कोई इसे धारण किए & हुए है और न कोई इसका नाश हो कर, सकता है ऐसे इस लोक के भीतर समता भाव के बिन
यह जोच निरन्तर भ्रमण करता हुआ महा दुःख सहा करता है + अर्थात्-यह लोक सामान्यकर