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हूँ लगता है । प्राणी मात्र पर मंत्री भाव जागृप्त होने को अनुकम्पा कहते हैं । इस गुग के प्रगट हो जाने
से सम्यग्दृष्टि भोष को दूसरों के दुःख अपने ही प्रतीत होने लगते हैं, वह दूसरों के दुःख देख कर अनुकम्पित हो उठता है, और उन्हें दूर करने का शक्ति मूजब प्रयत्न करता है। इस गुण के प्रगट होने पर सम्यग्दर्शम पारी आत्मा का कोई शत्रु नहीं रहता, सब जीव मित्र बन जाते हैं और इसी कारण वह निःशल हो जाता है, इसी गुण के कारण सम्पष्टि जीव अन्याय और मांसादि अनक्य सेवन से
विमुख हो जाता है । इहलोक, परलोक. पुण्य, पाप और जीवादि तत्त्वों के सद्भाव में अस्तित्व बुद्धि 6 का होना सो आस्तिक्य है। इस गुण के प्रगट होने से मनुष्य में नास्तिकपना नहीं रहता। इसो गुण
के प्रभाव से सम्यग्दृष्टि सातों प्रकार के भयों से विमुक्त होकर निर्भय बन जाता है। उसे इस बात पर & र विश्वास हो जाता है कि मैं तो अजर अमर हूँ, म अस्त्र, वस्त्र और शस्त्रों से आच्छादित हो & सकता है, न छिन्न भिन्न किया जा सकता हूं, न अग्नि से जलाया जा सकता हूं, और न अन्य किसी
रोगावि से मेरा विनाश हो सकता है, जो पाप कर्म मैंने पूर्व भव में नहीं किये हैं तो उन का फल मुझे नहीं मिल सकता है, और जो कर्म मैंने किये हैं तो उनका फल मिलने से छूट नहीं सकता । लिया हुआ कर्म रूपो कर्ज तो अवश्य हो चुकाना पड़ेगा। फिर कर्मों के फल को मोगने से मय क्यों ? इस प्रकार के विचार प्रगट हो जाने से सभ्यष्टि जीव बड़े से बड़ा उपद्रव, रोग, उपसर्ग और परिवह 8 आ जाने पर भी निर्भय रहता है । अब सम्यग्दर्शन के ८ अंगों को लिखते हैंजोगीरासा-जिन वच में शंका न धारि वृष, भव सुख वांछा मान ।
मुनि तन मलिन न देख घिनावै, तत्व कुतत्व पिछाने । निज गुण अरु पर औगण ढाकं वा जिन धर्म बढ़ावै ।