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सनातन अनुभव करना परम कल्याण है । अब अशारण भावना लिखते है
सुर असुर खगाधिप जेते । मग ज्यों हरि काल कले ते ।
मणि मंत्र तंत्र बहु होई, मरते न बचावै कोई ॥४॥ अर्थ संसार में जिनको शरण देने वाला मानता है ऐसे सुराधिप (इन्द्र), असुराधिप (भागेन्द्र) और खगाधिप (विद्यासागर) और चक्रवता भी जब स्वयं काल के द्वारा वल-मल जाते हैं, तब
वे औरों को क्या रक्षा कर सकते हैं, और किसको शरण दे सकते हैं ? किसी को नहीं । जैसे सिंह के 8 मुंह में से मृग को बचाने के लिये कोई समर्थ नहीं है, इसी प्रकार संसारी प्राणी को मणि मंत्र तन्त्र 8 आदि कोई भी मरने से नहीं बचा सकता अर्थात् हाथी, घोड़ा, रथ, पयावे, बलवान् सामन्त, पालकी
सवारी, मोटर, रेल, मंत्र, तंत्र, जंत्र, रस, औषधि, प्रज्ञप्ति प्रादि विद्या; चाणिक्य नीति आदि १४ विद्या और माता पिता; भाई बहिन कुटुम्बी जन; नगर जन ये सब मरण भय के निकट आने पर या जन्म मरण बाल वृद्ध अवस्था को हटाने में जैन धर्म के सिवाय और इन्द्र धरनेन्द्र महेन्द्र; नरेन्द्रः खगेन्द्र; सुरेन्द्र भो रक्षा नहीं कर सकते । एक जैनधर्म ही रक्षक, प्राश्रय या श्रेष्ठ गति का देने वाला है; ऐसा अशरण भावना का चिन्तन करो।
भावार्थ--संसार में शरण देने वाले पदार्थ दो प्रकार के माने जाते हैं। लौकिक और लोकोतर। ये दोनों ही जीव अजीव और मिश्र के भेद से तीन तीन प्रकार के होते हैं । इनमें से राजा देवता; माता पिता आदि लौकिक शरण हैं । दुर्ग स्थान गुप्त स्थान महल मणि आदि अजीव शरण हैं। ग्राम नगर प्रावि लौकिक मिश्र धारण हैं। पंच परमेष्ठी लोकोस र जीव शरण हैं। पंच परमेष्ठी प्रतिबिम्ब आदि लोकोत्तर अजीव शरण है । ज्ञान संयम के साधन उपकरण युक्त साधु वर्ग