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ल करना, सो मार्दव धर्म है । मन, वचन, काय को प्रवृत्ति को रोक सरल स्वभाव रखना और मायाचार का
सर्वथा त्याग करना सो आर्जव धर्म है। सवा सत्य वचन बोलना सो सत्य धर्म है । लोभ कषाय सर्वथर त्याग करना सो शौच धर्म है। इन्द्रियों के विषयों को का में रखना और छह काय के प्राणीमात्र पर दया प्रधान कर पालन करना, सो संयम धर्म है । पूर्वोक्त द्वादश प्रकार के तप तपना, सो तप धर्म है। साधुलों के संयम को रक्षार्थ प्राशुक आहार, औषधि, शास्त्र, वसतिका वगैरह का दान देना सो स्याग धर्म है। शरीर आदि से ममरव का त्याग करना सों आकिंचन्य धर्म है । स्त्री मात्र का मन वचन काय से त्याग करना, पूर्व में भोगे भोगों का स्मरण तक भी नहीं करना और शुद्ध चतन्य रूप परम र ब्रह्म में विचरण (रमण) करना सो ब्रह्मचर्य नाम का दसवां धर्म है। आत्मा के परम शत्र विषय और कषाय हैं। इनमें से कषायों के बोसने के लिए प्रारम्भ के पांच धर्मों का उपदेश दिया और इन्द्रियों को विषय प्रति को रोकने के लिए अन्त के पांच धर्मो का उपदेश दिया गया है। इस प्रकार मुनियों के सकल चारित्र का वर्णन किया। अब स्वरूपाचरण चारित्र का वर्णन करते हैं । आत्मा के शुद्ध निवि-8 कार सच्चिदानन्द स्वरूप में विचरने को स्वरूपाचरण कहते हैं । वह स्वरूपाचरण चारित्र किस प्रकार आत्मा में प्रकट होता है यह बतलाने के लिए प्रन्थकार उत्तर पछ को कहते हैं
जिन परम पैनी सुबुधि छैनी डारि अंतर भेदिया । वरनादि अरु रागादि से निज भाव को न्यारा किया ॥ निज माहिं निजके हेत निज कर आपको आपै गह्यो ।
गुण गुणी ज्ञाता ज्ञान ज्ञेय मंझार कछु भेद न रह्यो ॥६॥ अर्थ-- जब ध्यान को अवस्था में साधु अत्यन्त तीक्ष्ण धार वालो मेव विज्ञान सुबुद्धि को 8