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8 के प्रकट होते ही ऊपर बतलाई गई ४१ कर्म प्रकृतियों से छुटकारा मिल जाता है इसी प्रकार अविरत
प्रमाद दूर होते ही अप्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ अस्थिर अशुभ असाता बेदनी अयशल
कौति अरति शोक इत्यादि प्रकृतियों का भी बंध छट जाता है । कहने का तात्पर्य यह है कि ज्यों ज्यों ल लाल
कर्म बंध के कारण दूर होते हैं, त्यों त्यों आत्मा कर्म प्रकृतियों के बन्धनों से छूटता जाता है । इस ४
प्रकार आगे आगे ज्यों ज्यों शम और बम भाव जागृत होते जाते हैं, त्यों त्यों कर्मों का मानव & रुकता जाता है और संवर प्रकट होता जाता है । इसी शम और दम के साथ जीव जब अपनी को छ
हुई पूर्व पाप प्रवृत्तियों को देखकर उनका पश्चात्ताप और प्रायश्चित करता है, उस पाप के शुद्ध करने ४ के लिये तप धारण करता है, तब उसके प्रति समय एक बहुत बड़े परिणाम में पूर्व बद्ध संचित कर्म मड़ने लगते हैं अर्थात् आत्मा से दूर होने लगते हैं, इसी को निर्जरा तत्त्व कहते हैं । ज्यों ज्यों धीरे धीरे तपस्या बढ़ती जाती है, आत्म विवेक जागृत होता है, त्यों स्यों कर्मों को निर्जरा भी असं--8 ख्यात गुणस कम से होने लगती है और कुछ काल के पश्चात् एक वह समय आता है जब आत्मा & सर्व कर्मों से परिक्षीण हो जाता है, आत्मा के प्रवेशों पर कहीं भी एक कर्म-परिमाण बंधा नहीं रह जाता है तब वह इस पौद्गलिक शरीर को छोड़ कर सिद्धालय में जा विराजता है और यही मोक्ष कहलाता है । इस अवस्था के पा लेने पर जीव अजर-अमर हो जाता है । अक्षय, अध्यावाष और अनन्त सुख को प्राप्त कर लेता है और आगे अनन्त काल तक ज्यों का स्यों निर्विकार, शुद्ध चिदानन्द पृष् अवस्था में विद्यमान रहता है। इस कारण से सातों तत्त्वों के यथार्थ श्रद्धान को व्यवहार सम्यग्दर्शन कहते हैं । घेव शास्त्र गुरु और धर्म की श्रद्धा इस व्यवहार सम्यग्दर्शन का प्रधान कारण है और उसकी प्राप्ति और पूर्णता के लिये आगे कहे जाने वाले आठ अंगों का धारण करना प्रावश्यक है।