________________
प्रमाद दूर होते हो. अप्रत्याख्यानावरण कोध मान माया लोभ अस्थिर अनुभ असाता वेदनो अपश छह 8 कीति अरति शोक इत्यादि प्रकृतियों का भी बंध छट जाता है । कहने का तात्पर्य यह है कि ज्यों ज्यों 8
कम बंध के कारण दूर होते है, त्यो त्यो आत्मा कर्म प्रकृतियों के बन्धनों से छूटता जाता है । इस
प्रकार आगे आगे ज्यों ज्यों शम और दम भाव जागृत होते जाते हैं, त्यों त्यों को का आस्त्रव & रुकता जाता है और संवर प्रकट होता जाता है : इसी शम और दम के साथ जीव जब अपनो को 8 हुई पूर्व पाप प्रवृतियों को देखकर उनका पश्चात्ताप और प्रायश्चित करता है, उस पाप के शुद्ध करने ल 8 के लिये सप धारण करता है, तब उसके प्रति समय एक बहुत बड़े परिणाम में पूर्व वड संचित कर्म
सड़ने लगते हैं अर्थात् आत्मा से दूर होने लगते हैं, इसो को निर्जरा तत्त्व कहते हैं । ज्यों ज्यों धीरे धीरे तपस्या बढ़ती जाती है, आत्म विवेक जागृत होता है, त्यों त्यों कर्मों को निर्जरा भी असं-- ख्यात गुणित क्रम से होने लगती है और कुछ काल के पश्चात् एक वह समय आता है जब आत्मा सर्व कर्मों से परिक्षीण हो जाता है, आत्मा के प्रदेशों पर कहीं भी एक कर्म-परिमाण बंधा नहीं रह जाता है तब वह इस पौगलिक शारीर को छोड़ कर सिद्धालय में जा विराजता है और यही मोक्ष कहलाता है । इस अवस्था के पा लेने पर जीव अजर-अमर हो जाता है । अक्षय, अन्याबाष और मनन्त सुख को प्राप्त कर लेता है और आगे अनन्त काल तक ज्यों का त्यों निर्विकार, शुद्ध चिदानन्द अवस्था में विद्यमान रहता है। इस कारण से सातों तत्वों के यथार्थ श्रद्धान को व्यवहार सम्यग्दर्शन
कहते हैं । वेव शास्त्र गुरु और धर्म को श्रद्धा इस व्यवहार सम्यग्दर्शन का प्रधान कारण है और 8 उसकी प्राप्ति और पूर्णता के लिये आगे कहे जाने वाले आठ अंगों का धारण करना प्रावश्यक है।