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& भाव से सब प्रिय बचनों द्वारा क्षमा करा कर स्वयं भी सब जनों को क्षमा करे । तत्पश्चात् & किसी योग्य निर्यापकाचायं (समाधिमरण कराने में अत्यन्त कुशल महासावु या श्रायक) के पास जाकर
समस्त परिग्रह को छोड़ कर शुद्ध और प्रसन्न चित्त होकर अपने इस जीवन सम्बन्धी सर्व पापों को द्वालाल
निश्चल भाव से आलोचना करे तथा मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना से जोवन पर्यन्त के लिए पांचों पापों का सर्वथा त्याग करे और महावतों को निर्पेक्ष धारण करे और क्रोध, मान, माया, लोभ, कषाय, शोक, भय, विधाद, स्नेह, कालुष्य और रागद्वेष को छोड़कर अमृतमय शास्त्र वचनों से आत्मा को तृप्त करे । और अपने बल बोर्य को प्रगट कर उत्साहित होकर आत्म ज्ञान से ध्यान की सिद्धि करे जो आत्मा का स्वरूप जानने में कुशल है, तपश्चरण करने में निपुण है खेगा पाला दारणा नको जग हालता है । तब हो वैराग्य की वृद्धि कर पहिले आहार का त्याग करे । कमसे त्याग कर दुग्धआदि स्निग्ध पान करे । तदनन्तर स्निग्ध पान को भी त्याग कर कांजी गरम पानी प्रादि वर पान पर रहे तत्पश्चात् कम से खर पान भी त्याग कर और कुछ दिनों तक शक्ति के अनुसार निर्जल उपवास करे । जब देखे कि अन्तिम समय आ गया है, तो आत्मध्यान
पूर्वक पंच परमेष्ठि, पंच नमस्कार मंत्र का स्मरण करते हुए पूरी सावधानी के साथ शरीर त्याग करे। * यह समाधिमरण की विधि है । आत्म कल्याण के इच्छुक पुरुषों का कर्तव्य है कि जीवन के अन्त में * इस सन्यास को अवश्य धारण करे, ग्रन्थकार ने इस सन्यास मरण को जोवन भर की तपस्या का & फल कहा है, इसलिए जब तक शरीर में शक्ति रहे, होश हवाशादि व्यवस्था ठिकाने रहे, तब तक
समाधिमरण में पूरा प्रयत्न करना चाहिए । श्रावक के बारह व्रतों के समान समाधिमरण के भी पांच 8 अतिवार बतलाए गए हैं. समाधिभरण करने वाले भव्य जीव को उनका त्याग करना चाहिए ।