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तब ही शुकल ध्यानाग्निकर चउघाति विधि कानन दह्यो। सब लख्यो केवलज्ञानकरि भविलोककों शिवमग कह्यो॥११॥
अर्थ-इस प्रकार ध्यान अवस्था में चिन्तवन करते हुए जब मुनिराज अपनी आत्मा में स्थिर हो जाते हैं उस समय जो अनिवं धनीय आनन्द प्राप्त होता है वह इन्द्र, नागेन्द्र और अहि-8 मिन्द्र तक देवों को भी नहीं प्राप्त होता है। इसी प्रयान को अवस्था में साधुजन शुक्ल ध्यानरूपी अग्नि से ज्ञानावर्ण, दर्शनावर्ण, मोहनी और अन्तराय इन चार धातिया कर्मरूपी जंगल को जला 0 देता है। उसी समय उन के केवलनान जोत जाग जाती है, निज स्वरूए प्रकट हो जाता है 8 जिसके द्वारा लोक्य और त्रिकाल की समस्त वस्तुओं को प्रत्यक्ष देखने लगते हैं और फिर भव्य जीवों के हितार्थ मोक्षमार्ग का उपदेश दाता होते हैं । इस प्रकार अरहंत अवस्था प्राप्त करने के पश्चात् वे सिद्ध अवस्था को प्राप्त होते हैं । यह अवस्था वर्णन करते है
पनि धाति शेष अघाति विधि छिन मांहि अष्टम बसे। वशुकर्म विनशै सुगुन वसु सम्यक्त्व आदिक सबल सै॥ संसार खार अपार पारावार तरि तीर्राह गये । अविकार अकल अरूप च चिद्र प अबिनाशी भये ॥१२॥
____ अर्थ-अरहंत अवस्था में बिहार करते हुए धर्मोपदेश देकर आयु के अंत समय में योग निरोधकर शेष चार अघातिया कर्मों का भी घातकर एक समय में ईषत्प्रागभार नाम को आठवीं पृथ्वी है उसके ऊपर स्थित सिद्धालय में जा विराजमान होते हैं । इन सिद्धों के आठ कमों के विनाश से सम्यक्त्व आदि आठ गुण प्रगट होते हैं वे ये हैं