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पुण्यपाप-फल माहि, हरष विलखौ मत भाई । यह पुद्गल परजाय, उपजि विनसे थिर थाई ॥ लाख बात की बात, यह निश्चय उर लावो ।
तोरि सकल जगदंवफंद, निज आतम ध्यावो ॥८॥ ___ अर्थ --हे भाई ! तुम पुण्य का फल मिलने पर हर्ण मत करो और पाप का फल मिलने पर विषाद मत करो, क्यों यह सब कर्म रूपी पुद्गल को पर्याय है, जो सवा उपजतो और विनशती
रहती है । संसार का ये हो स्वभाव है कि सदा कोई न कोई आपत्ति बनी ही रहती है। इसलिए & इन झंझटों के चक्कर में न फंसो, उनमें आसक्त होकर आत्म कल्याण से विमुख न रहो, सच्ची और
लाख बातों की बात यही है और इसे ही निश्चय से हृदय में लाओ कि संसार के समस्त दंद-फंचों
को तोड़ कर नित्य अपनो आत्मा का ध्यान करो । यदि संसारिक झंझटों के जंजाल में उलझे रहे & जो कि सुलझने वाले नहीं हैं, तो तुम त्रिकाल में भी अपना कल्याण नहीं कर सकोगे । भावार्थ-- & समझदार लोगों का कहना सच्च है, सच ही समझते हैं और हम भी समझते हैं कि संसार की कोई ४
धन, धान्य, सम्पदा इस जीव के साथ जाने वाली नहीं है, और विषय - बासना रूप महान चाह को
रोकने के लिए सम्यग्ज्ञान ही एक मात्र उपाय है । परन्तु क्या करें आज यह आपत्ति आगई तो कल ४ वह आपदा आ गई, कभी किसी का मरण हो गया, ऐसे अनेक झंझटों से छुटकारा नहीं पाता है । 8 किन्तु उससे बढ़कर दूसरी नई मशीन सामने तैयार रहती है ऐसी अवस्था में उनकी चिन्ताओं के
कारण हमें चाहते हुए भी अवकाश नहीं मिलता, फिर आप बतलाइये कि हम कैसे आत्म कल्याण के मार्ग में लगें । इस अवस्था में इस समय बड़ी त्राहि-त्राहि मची हुई है और न तो तन को लंगोटी 8