Book Title: Chahdhala 2
Author(s): Daulatram Kasliwal
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 160
________________ 讚 ढाला: तोक्ष्ण छेनोके तौर पर अपने भीतर डालकर अनादि काल से लगे पर के सम्बन्ध को छिन्न भिन कर फेंक देते हैं, और पुद्गल के गुण जो रूप, रस, गंध, स्पर्श से तथा राग, द्वेष आदि विकारी भावों को पृथक कर देते हैं, उस समय ये अपने आत्मा में, आपने आत्मा के लिए आत्मा को अपने आप ग्रहण कर लेते हैं अर्थात् जान लेते हैं । तब उस ध्यान की निश्चल पशा में गुण गुणी, ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय के भीतर कुछ भी नहीं रहता है, किन्तु एक अभेद रूप दशा प्रगट हो जाती है। भावार्थ - जिस समय कोई साधक ध्यान का अवलम्बन लेकर भेद-विज्ञान के द्वारा अनावि काल से लगे हुए द्रव्य कर्म, भाव कर्म और नो कर्म से अपने आपको भिन्न समझ लेता है उस समय यह अपनी आत्मा को पर की अपेक्षा के बिना स्वयं ही जान लेता है और उसे जानकर उसमें इस प्रकार तल्लीन हो जाता है कि ये ज्ञानादिक गुण हैं और मैं इनका धारण करने वाला गुणी है, यह ज्ञान है, इसके द्वारा में इन ज्ञेय प्रदार्थों को जानता हूँ इस प्रकार के ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय का कोई भेद नहीं रहता, किन्तु एक अभिन्न दशा प्रकट हो जाती हैं। जो कि स्वयं ही अनुभव गभ्य है । आगे इसी स्वरूपचरण रूप ध्यान अवस्था का और भी वर्णन करते हैं -- जहं ध्यान ध्याता ध्येय को न विकल्प वचभेद न जहां | चिद्भाव कर्म चिदेश करता चेतना किरिया तहां ॥ तीनों अभिन्न अखिन्न शुध उपयोग की निश्चल दशा । प्रगटी जहां हग ज्ञानं व्रत ये तीनधा एकै लशा ॥६॥ अर्थ--- जिस ध्यान को अवस्था में ध्यान करने वाला ध्याता, ध्यान करने योग्य वस्तु ध्येय

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